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प्रपन्नामृत – अध्याय ७०

🌷 श्रीभट्टार्य का विजय 🌷

🔹श्री पराशर भट्टार्य समस्त शिष्योंके साथ श्रीरंग पट्टण के समीप पहुँचे।

🔹एक ब्राह्मण ने उन्हे कहा की अगर वेदान्ति को मिलना है तो समस्त वैभव को त्यागकर एक याचक के रुपमें उनके अन्नक्षेत्र में मिलें। अन्यथा मिलना दुष्कर होगा।

🔹श्री पराशर भट्टार्य याचक के रुपमें वहाँ गये और वेदान्ति से बोले, “मैं भिक्षा के रुप में शास्त्रार्थ करने की प्रार्थना करुंगा”

🔹वेदान्ति ने पराशर भट्टार्य के बारेमें सुना था।

🔹वेदान्ति नें यह सोचा की इस संसारमें मुझसे शास्त्रार्थ करनेकी अभिलाषा करनेवाले केवल पराशर भट्टार्य ही हो सकते हैं।

🔹वेदान्ति ने पुछा, “आप महान श्रीवैष्णव श्री पराशर भट्टाचार्य तो नही हैं?”

🔹पराशर भट्टार्य नम्रता से बोले, “हाँ मै कुरेशाचार्य का पुत्र पराशर भट्टार्य ही हुँ”

🔹वेदान्ति ने सविनय पराशर भट्टार्य की पूजा करके उनसे तत्वार्थ के लिये प्रार्थना की।

🔹पराशर भट्टार्य ने श्रीभाष्य के माध्यम से तत्वार्थोंका उपदेश दिया।

🔹वेदान्ति ने उपदेश पाकर वहीं श्री पराशर भट्टार्य का शिष्यत्व ग्रहण कर लिया।

🔹श्री पराशर भट्टार्य ने उन्हे पञ्चसंस्कारोंसे दीक्षित किया और “माधवदास” यह भगवत् संबंधी नामकरण किया।

🔹श्री पराशर भट्टार्य ने माधवदास को उपदेश दिया,

1.चित्-अचित् शरीरवाले श्रीमन्नारायण ही परब्रह्म हैं।
2.वही जगत् के कारण स्वरुप हैं।
3.सभी वेदान्त दर्शनोंमें भगवान् विष्णु ही ब्रह्म कहे गये हैं।
4.वही नारायण, हरी, अविनाशी, लक्ष्मीश, पुंडरीकाक्ष, “ब्रह्मा-रुद्र आदि देवताओंके भी देवता”, जड चेतनात्मक जगत्कर्ता, “धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष के प्रदाता” कहे गये हैं।
5.ऐसे दयामय भगवान का दासत्व भाव ही आत्म कल्याण का साधन है।

🔹इस प्रकार महान मायावादी विद्वान वेदान्ति को अपना शिष्य बनाकर श्री पराशर भट्टार्य श्रीरंगम लौट आये।