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श्रीवैष्णव संप्रदाय मार्गदर्शिका – दिव्य प्रबंध और दिव्य देश

श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद वरवरमुनये नमः
श्री वानाचल महामुनये नमः

श्रीवैष्णव संप्रदाय मार्गदर्शिका

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श्रीमहालक्ष्मी, श्रीभूदेवी, श्रीनीळादेवी, नित्यसूरि समेत श्री परमपदनाथ (भगवान्  श्रीमन्नारायण), श्री वैकुण्ठ में

अपने पूर्व अनुच्छेद में हमने अपनी गुरु परंपरा के वैभव को देखा| इस अंक में हम दिव्य प्रबंध और दिव्य देशों के संबंध में जानेगे|

श्रीमन्नारायण ही परतत्व भगवान् है जो असंखेय अद्भुत प्रशंसनीय कल्याण गुणों से संपन्न है| भगवान् ने अपनी दिव्य-अप्रतिबंधित निर्हेतुक-कृपा से, कुछ बद्ध जीवों को चुना, जो आगे जाके “आळ्वार” के रूप में से प्रसिद्ध हुए| “आळ्वार” अर्थात् ऐसे दिव्य-संत-महापुरुष जिन्होंने केवल भगवान् श्रीमन्नारायण की शुद्ध-भक्ति का प्रचुर-प्रसार अपने दिव्य प्रबंधो द्वारा किया| हालाँकि भगवान्, नित्यसूरियों (कालातीत से मुक्त आत्माये) और मुक्तात्माओं के परम स्वामी अधिपति है, परन्तु साक्षात् भगवान् के मन में भी एक पीढा थी|

वह भौतिक-जगत् में त्रस्त जीवात्माओं को देखकर व्यग्र थे और यही उनके संताप का कारण था| क्यूंकि भगवान जगत पिता है वे अपनी संतानों के कष्ट को सहन करने में असमर्थ है, जो इस संसार के जन्म मरण चक्र में फंसे हुए है| यहाँ एक प्रश्न उठता है :- “अगर भगवान् सर्वशक्तिमान, सत्यकाम (जो सबों के इच्छाओं को पूर्ण करने में सक्षम), सत्यसंकल्प (जो संकल्प मात्र से कुछ भी कर सकते) है, तो क्या उन्हें किसी प्रकार के संताप या कष्ट की अनुभूति होगी” ? हमारे पूर्वाचार्यो ने यह समझाया है की यह अनुभूति भी एक विशेष और विशिष्ट गुण है| जिसप्रकार सर्वसक्षम पिता जो अपने एक पुत्र के साथ आनंदमय जीवन व्यतीत कर रहा है, परन्तु अपने दूसरे पुत्र के बारे में सर्वदा चिंताग्रस्त होता है जो उनके वियोग में उनसे दूर रह रहा है, इसी प्रकार भगवान् (जो सर्व सक्षम है) भी अपने विशेष गुण से अपने इस प्रेम-भावना को व्यक्त करते हुए अपने संतान के लिए चिंतित है जो कालातीत समय से अविद्या और आध्यात्मिक ज्ञान के अभाव में भौतिक-जगत् के दु:खों से पीड़ित है|

ऐसे बद्ध-जीवात्माओं का उद्धार करने हेतु, भगवान् सृष्टि के प्रारंभ में जीवात्माओं को देह(शरीर) और इन्द्रियाँ प्रदान कर, शास्त्रों को प्रकाशित कर, तदन्तर स्वयं श्रीराम-श्रीकृष्ण इत्यादि के रूप में अवतार लेकर इस लीला-विभूति में पधारते है| इतना सब कुछ करने के बावजूद, बद्ध-जीवात्मा प्रकाशमय दिव्य-ज्ञान और उनके परत्व को स्वीकार नहीं करते| कहा जाता है कि, जिस प्रकार एक शिकारी प्रशिक्षित हिरण के माध्यम से अन्य हिरणों का शिकार करता है, ठीक उसी प्रकार भगवान् भी उनकी कृपा से प्रशिक्षित हिरण (बद्ध-जीवात्मा जैसे आळ्वार) के माध्यम से अन्य जीवात्माओं का उद्धार करते है| अत: इस कारण भगवान् कुछ विशेष जीवात्माओं को चुनकर, अपनी कृपा का अवलम्ब कराकर, दिव्य-ज्ञान का उपदेश देकर, उन्हें आळ्वार के रूप में प्रकाशित करते है| आळ्वार अर्थात जो भगवद्-विषय (आध्यात्मिक तत्वज्ञान) में पूर्ण रूप से आसक्त/तल्लीन है| व्यास ऋषि द्वारा श्रीभागवतजी में की गयी भविष्यवाणी के अनुसार ही भारत देश के दक्षिण भाग के दिव्य स्थानों में ये आलवार अवतरित हुए| आलवारों के विषय में हमने अपने पूर्व अनुच्छेद में चर्चा की है|

आळ्वारों

आळ्वारों ने भगवान श्रीमन्नारायण के मंग्लाशान में मंगलाशाशनिक अत्यंत मधुरता से अनेकों पासूरों का गान किया| इन सभी पासुरों की कुल संख्या लगभग ४००० है और अत: इन्हें नालायिर-दिव्यप्रबंध भी कहते है| दिव्य अर्थात् अनोखा, अपूर्व और प्रबंध अर्थात साहित्य (ऐसा साहित्य जो भगवान् का संपूर्ण वर्णन करता है)|बहुत से अद्वितीय क्षेत्र जहाँ भगवान के अर्चा विग्रह विराजे है और जिनका मंगलाशासन आलवारों द्वारा किया गया है, उन्हें दिव्य देश कहा जाता है| कुल 108 दिव्य देश है| इनमें से 106 दिव्य देश, भारत वर्ष (नेपाल सहित) के विभिन्न भागों में स्थित है| भौतिक जगत में स्थित क्षीराब्धि तक पहुँचना हमारे लिए दुर्लभ है|परमपद आध्यात्मिक स्थान है, जहाँ मोक्ष के पश्चाद ही पहुंचा जा सकता है|श्रीरंगम को मुख्य दिव्य देश मन जाता है और तिरुमाला, कांचीपुरम, तिरुवल्लिक्केणी, आलवार तिरुनगरी, आदि अन्य महत्वपूर्ण दिव्य देश है| भगवान के पांच स्वरूप माने जाते है – परमपद नाथ, क्षीराब्धि के व्यूह स्वरुप, अंतर्यामी स्वरुप (जीवात्माओं में बसने वाले विशिष्ट आत्मा), विभव स्वरुप (श्रीराम, श्रीकृष्ण रूप में अवतार धारण करने वाले) और अंततः अर्चा (विग्रह) स्वरुप| इन सभी स्वरूपों में, भगवान के अर्चा विग्रह स्वरुप को अत्याधिक कृपामय स्वरुप जाना जाता है, जो सदा सर्वदा सभी को सुलभता से प्राप्य है|हमारे पूर्वाचार्यों ने दिव्य देशों को प्राणों के समान माना और अपना सम्पूर्ण जीवन इन दिव्य देशों में भगवान और भागवतों की सेवा में समर्पित किया| अधिक जानकारी के लिए, कृपया http://koyil.org पर देखें|

दिव्य प्रबंध, वेद/वेदान्त के सारतम तथ्य को सरल और शुद्ध तमिळ भाषा में प्रकाशित करते है| सच्चे ज्ञान के प्रचार द्वारा बद्ध-जीवात्माओं के उद्धार हेतु ही इनकी रचना की गयी है| आळ्वारों के समय के कई सौ वर्षों के पश्चाद, कई आचार्य जैसे श्रीमन्नाथमुनि, मध्यस्थ में श्रीरामानुजाचार्य, और अंतत: श्रीवरवरमुनि अवतरित हुए और उन्होंने आलवारों के इस दिव्य सन्देश का प्रचुर प्रचार किया| निम्न बुद्धि के लोग आळ्वारों की इस दिव्य रचना को साधारण लौकिक ग्रंथ अथवा सामान्य तमिळ भजन या गान समझते है, परन्तु भगवान के शुद्ध-भक्तों (आचार्यों) ने प्रतिपादन किया है कि यह पासुर भगवान् श्रीमन्नारायण के परतत्व को प्रकाशित करते है और बताते है कि भगवान् ही उपाय (भगवान् स्वयं अपने शरणागत प्रपन्नों का उत्थापन करते है) और भगवान ही उपेय है (श्रीवैकुण्ठ/ परमपद में भगवान् श्रीमन्नारायण का नित्य कैङ्कर्य प्राप्त करना ही एक जीव का सर्वोत्तम लक्ष्य है)| हमारे पूर्वाचार्य ने दिव्य प्रबंधों का सम्पूर्ण रसास्वादन किया और अपने जीवन को इन दिव्यप्रबंधों को सीखने, सिखाने और प्रतिपादित करने में व्यतीत किया|

 

  श्रीमधुरकवि आळ्वार और श्रीमन्नाथमुनि सहित नम्माळ्वार

आळ्वारों के समय के बाद एक समय ऐसा था, जहाँ उपरोक्त दिव्यप्रबंध समय के प्रभाव में लुप्त हो गए, जिसे हम “अंधकार अवधि” कहते है| अंतत: श्रीनाथमुनि ने अत्यंत श्रम और कष्ट से नम्माळ्वार/श्रीशठकोप स्वामीजी के अविर्भाव स्थल “आळ्वार तिरुनगरी” को दूंढा और नम्माळ्वार के विशेष अनुग्रह से उन्होंने सम्पूर्ण ४००० (नालायिर) पासुरों को अर्थ सहित सीखा| श्रीनाथमुनि स्वामीजी ने स्वयं इन ४००० दिव्य पासूरों को चार भाग में विभाजित किया, जैसे आज हम देखते है और उन्हें अपने शिष्यों को सिखाकर उसके महत्व को प्रकाशित किया|आपश्री ने स्वयं अनुग्रह करके श्रीमधुरकवि आलवार (जिन्होंने नम्माळ्वार के प्रति अटूट आचार्य भक्ति का निरूपण किया) के वैभव और आचार्यनिष्ठा को दर्शाने और उनका सम्मान करने हेतु, श्रीमधुरकवि आलवार द्वारा अनुगृहीत “कण्णिनुन् शिरुत्तांबु” को इन ४००० संख्या दिव्यप्रबंध में सम्मिलित किया|

 

श्रीरामानुजाचार्य (एम्पेरुमानार)

श्रीरामानुजाचार्य (एम्पेरुमानार) जिन्हें आदि-शेषजी का अवतार माना जाता है, कई वर्षों बाद इस भूतल पर अवतरित हुए| उन्होंने श्रीयामनुचार्यजी की इच्छा अनुरूप इन दिव्यप्रबंधो को हमारी अद्वितीय दिव्य परम्परा के आचार्यों से प्राप्त किया| तदन्तर आळ्वारों के वैभव और उनकी दिव्य रचनायें अर्थात दिव्य तत्वानुभूति को बिना किसी भेद-भाव के, सभी वर्ण-जाति को प्रदान किया और सुसरलता से श्रीवैष्णवसंप्रदाय का प्रचुर-प्रसार किया| श्रीरामानुजाचार्य के महान योगदान के कारण , स्वयं श्रीरंगनाथ भगवान् ने इस सम्प्रदाय को “एम्पेरुमानार दर्शन – श्रीरामानुज दर्शन” का श्रेष्ठ नाम प्रदान किया| तदन्तर तिरुवरंगत्तु अमुदानार स्वामी ने आचार्य भावानामृत से श्रीरामानुजाचार्य के वैभव को प्रकाशित करने हेतु, “रामानुज नूत्तन्दादी” की रचना की, जो बाद में आचार्यों की आज्ञा से ४००० संख्या दिव्यप्रबंध में सम्मिलित की गयी| इस “रामानुज नूत्तन्दादी” को प्रपन्नगायत्री कहते है| जैसे ब्राह्मण नित्य गायत्री का जप करते है, ठीक वैसे ही प्रत्येक प्रपन्न को इसका पाठ नित्य करना चाहिए|

नम्पिळ्ळैजी की कालक्षेप गोष्ठी (प्रवचन)

श्रीवैष्णव सम्प्रदाय में “नम्पिळ्ळै/कलिवैरीदास स्वामीजी” एक विशेष आचार्य है (जो श्रीरामानुजाचार्य, एम्बार, श्रीपराशर भट्टर, नंजीयर/वेदांती स्वामीजी के बाद में परंपरा में आये), जिनका इस स्तर पर उल्लेख करना उचित है| आपश्री प्रतिदिन श्रीपेरिय पेरुमाळ के दिव्यमण्डप में भगवद्विषय का कालक्षेप करते थे| आपश्री श्रीरंगम में निवास करते थे और उस समय के आचार्य थे| ४००० दिव्यप्रबंध के अर्थानुसंधान का इस समय में अधिक महत्व दिया जाने लगा था| कहा जाता है की उनके समय में साक्षात् भगवान् श्रीरंगनाथ उनका प्रवचन सुनने के लिए अपनी सन्निधि से खड़े होकर, खिड़की से झांककर सुनते थे | नम्पिळ्ळै के शिष्यों का भी दिव्यप्रबंधो के अर्थों के प्रसार-प्रचार में महद्योगदान है| नम्पिळ्ळै के शिष्य “पेरियवाच्चान पिळ्ळै” ने आचार्या अनुग्रह से सभी ४००० दिव्यप्रबंध पर व्याख्यान की रचना की और व्याख्यान चक्रवर्ती नाम से सुप्रसिद्ध हुए| उनके इस महद्योगदान का सभी आचार्यगण अभिवादन करते है| नम्पिळ्ळै के और एक शिष्य “वडुक्कु तिरुवीधिपिळ्ळै” ने अपने आचार्य के दिव्यप्रबंध के प्रवचनों को ३६००० पदी टीका (तिरुवाय्मोळि़ की सर्वाधिक पोषित टीका) शैली में संग्रहित कर लिखित-प्रमाण के रूप में प्रकाशित किया|

 

पिळ्ळैलोकाचार्य जी की कालक्षेप गोष्ठी

नम्पिळ्ळै के तदन्तर, श्री पिळ्ळै लोकाचार्य सत्सम्प्रदाय के पथप्रदर्शक हुए| आपश्री ने दिव्यप्रबंधो के निगूढ़ अर्थों को निचोड़कर स्वरचित रहस्यग्रंथो में अनुगृहीत किया| इन दिव्यप्रबंधो के निगूढ़ अर्थों को कई आचार्यों ने कई ग्रंथों के कालक्षेप में समझाया है| आपश्री ने इन सभी को संग्रहित कर अपने मुख्य १८ ग्रंथों में सम्मिलित किया| एक संक्रामक अकाल रोग के रूप में, मुसलमानों का हमला हिंदुत्व पर हुआ, जिसमें उन्होंने हिन्दू मंदिरों को तहस-नहस किया और सारी धन-संपत्ति को लूट लिया|आपश्री के अंतिम दिनों में, यह फैलता हुआ दक्षिण भारत के श्रीवैष्णव-शिखर श्रीरंगम में पहुंचा और पूरे श्रीरंग को नष्ट कर दिया| भगवद् इच्छा से और भगवद्-प्रेम में, आपश्री ने वृद्धावस्था में श्रीनम्पेरुमाळ के उत्सवमूर्ति का संरक्षण किया और श्रीरंगम से अर्चामुर्ति लेकर पलायन किया| इस कठिन जंगल यात्रा में, वृद्धावस्था के कारण , आपश्री ने अपने प्राणों का त्याग किया| तदन्तर लम्बे समय तक पूरा श्रीवैष्णव समुदाय मुसलमानों के शोषण से शोषित था| कई वर्षों बाद, जब शांति हुई, तब श्रीनम्पेरुमाळ वापस अपने निज-निवास-स्थान में लौंटे|

श्रीमणवाळ मामुनि (श्रीवरवरमुनि) जी की कालक्षेप गोष्ठी
(श्रीशैलेश दयापात्रं .. इत्यादि तनियन का समर्पण)

अंतत: श्रीमणवाळ मामुनि (श्रीवरवरमुनि), जो श्रीरामानुजाचार्य के पुनरावतार है, का अविर्भाव आळ्वार तिरुनगरि में हुआ| आपश्री तिरुवाय्मोळि़ पिळ्ळै/ श्रीशैलेश स्वामीजी का आश्रय लेकर, सत्सम्प्रदाय के अगले और अंतिम पथप्रदर्शक हुए|आपश्री ने आपके पिताजी और आचार्य से वेद, वेदांत, दिव्यप्रबंध इत्यादि का ज्ञान प्राप्त किया|आचार्य के आदेशानुसार, आपश्री ने श्रीरंगम पहुँचकर, तदन्तर शेष जीवन वही व्यतीत किया| इसी दौरान आपश्री ने सत्सम्प्रदाय को पुनः स्थापित कर उसकी ख्याति को पुनः सर्वोच्च शिखर पर पहुँचा दिया, जैसा पूर्वाचार्यों के समय में था|आपश्री ने स्वयं लुप्त ग्रंथों को खोजा, पढ़ा, अत्यंत कठिनाई से ताम्रपत्रों में लिपिबद्ध किया, और भविष्य काल के लिए इनका संरक्षण किया| स्वयं भगवान रंगनाथ ने एक वर्ष तक आपश्री के तिरुवाय्मोळि़ प्रवचन को श्रवण किया और समाप्ति में, उनके इस महद्योगदान और विशेष गुणों को प्रकाशित करने के लिए स्वयं एक बालक के रूप में आकर, आपश्री को आचार्य मानकर, आपके वैभव को बढ़ाने के लिए एक श्लोक “श्रीशैलेश दयापात्रं ….. वन्दे रम्यजामातारं मुनिं” प्रस्तुत किया| तदन्तर, कई वंशवृक्षों के अंतर्गत बहुत सारे आचार्यों का अविर्भाव हुआ, जिन्होंने प्रतिपादित तत्वों का प्रचुर-प्रसार कर आश्रितजनों को सिखाया|

अत: इतिहास के दौरान, जीवात्माओं के कल्याण की, भगवान की इच्छा पूर्ति हेतु, आळ्वारों के दिव्यप्रबंधों का संरक्षण हमारे पुर्वाचार्यों ने भली-भांति किया है|कहा जाता है कि प्रत्येक श्रीवैष्णव को दिव्यप्रबंध के महत्व को जानकर, उसे सीखकर, प्रतिदिन उसका पाठ, अर्थानुसंधान, निगूढ़ तत्वाचरण करना चाहिए|

आळ्वारों और दिव्यप्रबंध के वैभव और उनकी प्रमाणिकता के विषय में जानना हमारे लिए बहुत उपयोगी होगा|इस विषय का प्रतिपादन निम्नलिखित लिंकों पर अंग्रेजी में उपलब्ध है :

विभिन्न प्रबंधनों के विविध भाषाओँ में अनुवाद को पढने के लिए कृपया हमारे दिव्य प्रबंध पोर्टल- http://divyaprabandham.koyil.org पर देखें|

-अडियेन सेत्तलूर सीरिय श्रीहर्ष केशव कार्तीक रामानुज दास
-अडियेन सेत्तलूर वैजयंती आण्डाल रामानुज दासी
– अडियेन भगवती रामानुजदासी

आधार – http://ponnadi.blogspot.in/2015/12/simple-guide-to-srivaishnavam-dhivya-prabandham-dhesam.html

प्रमेय (लक्ष्य) – http://koyil.org
प्रमाण (शास्त्र) – http://granthams.koyil.org
प्रमाता (आचार्य) – http://acharyas.koyil.org
श्रीवैष्णव शिक्षा/बालकों का पोर्टल – http://pillai.koyil.org