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अन्तिमोपाय निष्ठा – ६ – भगवान् के ऊपर आचार्य की उच्च स्थिति

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः  श्रीमते रामानुजाय नमः  श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्री वानाचल महामुनये नमः

अन्तिमोपाय निष्ठा

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पिछले लेख (अन्तिमोपाय निष्ठा – ५ – भट्टर्, श्री वेदान्ति जीयर् (नन्जीयर्) और श्री कलिवैरि दास (नम्पिळ्ळै)) में, हमने भट्टर्, श्री वेदान्ति जीयर् (नन्जीयर्) और श्री कलिवैरि दास (नम्पिळ्ळै) के दिव्य व्यवहारों को देखा। हम इस लेख में हमारे पूर्वाचार्यों के साथ हुए और कई घटनाओं का क्रम जारी रखेंगे।

गोष्ठीपूर्ण (तिरुक्कोष्ठियूर् नम्बि) स्वामी एक बार श्रीरंगम-धाम मे जारी उत्सव के समय आकर उत्सव-समय पर्यन्त वहीं वास करते है। श्रीरामानुजाचार्य (एम्पेरुमानार्) उत्सव-समय पर्यन्त गोष्ठीपूर्ण स्वामी (तिरुक्कोष्ठियूर् नम्बि) की सेवा करते हैं। जब गोष्ठीपूर्ण (तिरुक्कोष्ठियूर् नम्बि) प्रस्थान कर रहे थे, श्रीरामानुजाचार्य (एम्पेरुमानार्) ने उनसे पूछा, “कृपया मुझे कुछ अच्छे निर्देश दें जिनका मैं शरण ले सकता हूं”। गोष्ठीपूर्ण (तिरुक्कोष्ठियूर् नम्बि) कुछ समय के लिए स्वनेत्र बंद करके कहते हैं, “हम यामुनाचार्य (आळवन्दार्) के अधीन प्रशिक्षण से गुजर रहे थे। उस समय, जब वो (यामुनाचार्य) नदी में बैठ कर नीचे झुकके एक डुबकी लेते हैं, तो उनकी ऊपरी पीठ एक सुंदर चमकदार तांबे के बर्तन जैसा दिखता है। मैं हमेशा इस दिव्य दृष्टि का शरण लेता हूं। आप भी इसी दिव्य दृष्टि का शरण ले ” – यह घटना बहुत लोकप्रिय है (अनुवादक का टिप्पणीः ६००० पडि गुरु परम्परा प्रभाव में भी यही घटना समझाई गई है। यह घटना इंगित करती है कि शिष्य का ध्यान आचार्य के दिव्य रूप पर ध्यान केंद्रित करने में होना चाहिए)। ऐसा कहा जाता है कि, गोष्ठीपूर्ण (तिरुक्कोष्ठियूर् नम्बि) मुख्य गोपुर के ऊपरी स्थर पर तिरुक्कोष्ठियूर् मंदिर में यामुनाचार्य (आळवन्दार्) पर ध्यान केंद्रित करते थे और हमेशा “यमुनैतुरैवर्” (यामुनाचार्यर्) मंत्र पढ़ते थे।

हमारे जीयर् इस निम्नलिखित घटना को बताते हैं। एक बार श्रीरामानुजाचार्य (उडयवर्), एक गूंगे (मूक) व्यक्ति पर अपनी निर्बाध दया को बरसाने के लिए, उसे अपने कमरे में ले गये, उसे अपने दिव्य रूप और चरणकमलों को संकेत भाषा के माध्यम से दिखा कर मूक व्यक्ति को उनके चरणकमलों मे पूर्ण शरण लेने को कहते हैं। मूक व्यक्ति उत्साहित होकर श्रीरामानुजाचार्य (उडयवर्) के सामने झुकता है। श्रीरामानुजाचार्य (उडयवर्) मूक व्यक्ति के सिर पर अपने चरणकमल रखते हैं और पूरी तरह से उसे आशीर्वाद देते हैं। श्री कूरेश (कूरत्ताऴ्वान्) उस समय यह देखकर मन ही मन में कहते हैं ” अहो ! अगर मैं एक मूक व्यक्ति के रूप में पैदा हुआ होता तो मुझे भी सही मार्ग दिखाया जा सकता था (जो श्रीरामानुजाचार्य (एम्पेरुमानार्) के दिव्य रूप को कुल शरण के रूप में स्वीकारना है)। इसके बजाय, मैं आऴ्वान् के रूप में पैदा हुआ और पूरी तरह से शास्त्र सीखा। लेकिन इस कारण, श्रीरामानुजाचार्य (एम्पेरुमानार्) ने मुझे प्रपत्ति का मार्ग दिखाया और इस प्रकार मैं श्रीरामानुजाचार्य (एम्पेरुमानार्) के दिव्य रूप का पूर्ण आश्रय लेने के लिए अयोग्य हो गया! ” और स्वयं उदास/परेशान हो जाते हैं।

श्रीरामानुजाचार्य (एम्पेरुमानार्) एक बार श्री शठकोप (नम्माऴ्वार) को मङ्गलाशासन करना चाहते थे और आऴ्वार-तिरुनगरि की ओर अपनी यात्रा शुरू करते है । रास्ते में श्रीरामानुजाचार्य (एम्पेरुमानार्) तिरुप्पुळिङ्गुडि दिव्य देश पहुंचते है। श्रीरामानुजाचार्य सड़क पर एक छोटी ब्राह्मण लड़की को देखते हैं और उससे पूछते हैं “ओह छोटी लड़की! यहाँ से आऴ्वार-तिरुनगरि कितना दूर है?” लड़की जवाब देती है “ओह विद्वान व्यक्ति! क्या आपने तिरुवाय्मोऴि नहीं सीखी?”। श्रीरामानुजाचार्य चौंक गए और लड़की से पूछते हैं “हम तिरुवाय्मोऴि सीखकर यहां से आऴ्वार-तिरुनगरि की दूरी कैसे जानेंगे?”। लड़की जवाब देती है, चूंकि आळ्ळवार कहते हैं – तिरुप्पुळिङ्गुडियाय्! वडिविणैयिल्ला मलर्मगळ् मट्रै निलमगळ् पिडिक्कुम् मेल्लडियैक् कोडुविनैयेनुम् पिडिक्क नी ओरुनाळ् कूवुतल् वरुतल् चेय्याये (तिरुवाय्मोऴि ९.२.१० – ओह तिरुप्पुळिङ्गुडि में वास करने वाले व्यक्ति  ! आप मुझे क्यों नहीं बुलाते या मेरे पास नहीं आते हैं, ताकि मैं आपके सबसे कोमल कमल चरणों की सेवा कर सकता हूं, जिनकी सेवा सबसे सुन्दर श्रीदेवि और भुदेवि नाचियार् करती हैं) – क्या आप नहीं जानते कि दूरी बहुत छोटी होनी चाहिए (क्योंकि अगर भगवान् (एम्पेरुमान्) वहां से बुलाते है आऴ्वार-तिरुनगरि में आऴ्वार अवश्य सुनेंगे)? “इसे सुनकर श्रीरामानुजाचार्य आऴ्वार के शब्दों में उस छोटी लड़की की बुद्धि और विश्वास से बहुत प्रसन्न हो जाते है। फिर श्रीरामानुजाचार्य अपने खाने पकाने का मिट्टी के पात्र को तोड़ते हैं और पूछते है के वो लड़की कहां रहती है। लड़की अपने घर में श्रीरामानुजाचार्य को लाती है और श्रीरामानुजाचार्य उस लड़की के माता-पिता, उस लड़की और उनके रिश्तेदारों को अपने शिष्यों के रूप में स्वीकारते हैं, माता-पिता और लड़की को एक भोजन तैयार करने का निर्देश देते हैं (श्री रंगनाथ (एम्पेरुमान्) को पेश करते हैं) और उनसे प्रसाद स्वीकार करते हैं। फिर वह वहां से निकलते हैं और आऴ्वार-तिरुनगरि पहुंचते हैं। उस दिन से, छोटी लड़की और उसके सभी रिश्तेदारों ने श्रीरामानुजाचार्य (उडयवर्) को उनकी पूजा करने योग्य देवता के रूप में माना और एक गौरवशाली जीवन जीया – यह हमारे पितरों द्वारा समझाया गया है।

उपर्युक्त घटनाओं से, हम समझ सकते हैं कि बच्चे, गूंगा (मूक), संसार में गिरे हुए, जो शास्त्र का अध्ययन करने के योग्य नहीं हैं, अभी भी एक असली आचार्य के साथ संबंध के माध्यम से अंतिम गंतव्य / लक्ष्य तक पहुंच जाएंगे। जैसा कि हम देख सकते हैं, छोटी लड़की और गूंगा (मूक) व्यक्ति ने श्रीरामानुजाचार्य (उडयवर्) के सबसे दयालु कृत्यों द्वारा सबसे गौरवशाली आशीर्वाद प्राप्त किया है।

निम्नलिखित २ घटनाओं (दूसरों के बीच) की पहचान पेरियाऴ्वार तिरुमोऴि ५.५.१ नव् करियम् पसुर की व्याख्या श्री वरवरमुनि (मामुनिगळ्) द्वारा की गयी है। (अनुवादक का टिप्पणीः ये २ घटनाएं आचार्य पर कुल विश्वास के महत्त्व को उजागर करती हैं और उन लोगों का सहयोग छोड़ती हैं जो केवल भगवान् की महिमा करते हैं, आचार्य को भगवान् के जितना या भगवान् से अधिक महत्व दिए बिना।

  • एक बार तिरुक्कुरुगैप्पिरान् पिळ्ळान् कोङ्गु क्षेत्र (कोयंबटूर, आदि) के लिए यात्रा कर रहे थे। वह एक श्रीवैष्णव की जगह पर आते हैं जहां वह अपना खुद का प्रसाद तैयार करने का फैसला करते हैं। लेकिन वह देखते हैं कि उस घर में हर कोई सिर्फ भगवान् का महिमागान (नाम सङ्कीर्तनम्) (आचार्य का स्मरण के बिना) कर रहे हैं। चूंकि इस तरह के महोल ने उन्हें खुश नहीं किया, इसलिए उन्होंने बस उस घर को छोड़ दिया।
  • एक बार, श्रीरामानुजाचार्य (एम्पेरुमानार्) की सभा में, एक वैष्णव आकर तिरुमन्त्र सुनाता है। आन्ध्रपूर्ण (वडुग नम्बि) इस दृश्य को देखकर घोषणा करते है की चूंकि तिरुमन्त्र का पाठ/जप गुरु-परम्परा मन्त्र को के बिना किया गया था, अतः जीभ के लिए यह अयोग्य है और उस जगह को तत्क्षण छोड़कर चले जाते हैं। (अनुवादक का टिप्पणीः पिळ्ळै लोकाचार्य ने श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र में घोषणा की है – एक सच्शिष्य (सच्चे शिष्य) को हमेशा गुरु परम्परा और द्वय का सदैव पाठ/जप करते रहना चाहिए)।

वार्ता माला मे, मालाधर (तिरुमालै आण्डान्) कहते है, “अगर मैं भगवद्विषय को पढ़ाना चाहता हूं तो इस भौतिकवादी दुनिया में बहुत से लोग सुनने और सीखने के लिए नहीं हैं। अगर हमने एक अर्क अखरोट बोया, कुछ उर्वरक डालें, जब तक यह अंकुरित न हो जाए, एक छोटा झोपड़ी बनाएं और वहां कई वर्षों तक इसे देखते रहें, आखिरकार हम कुछ इलाके मे छोटे अखरोट देखेंगे। कहने का तात्पर्य यह हुअा कि इस तरह के सभी परिश्रम दुखों का फल चूँकि महत्वहीन होता है, यहां भगवद्विषय में, हमें इस भौतिक संसार से राहत मिलेगी जो पीड़ा से भरी हुई है और हम परमपद प्राप्त करेंगे जो सभी शुभों से पूरित है। हमें आचार्य की ओर थोडी सी कृतज्ञता से देखना है जिन्होने यह सब संभव बनाया – लेकिन भौतिकवादी लोगों के लिए जो इस छोटी आवश्यकता को पूरा नहीं कर सकते हैं, मैं भगवद्विषय को कैसे समझा सकता हूं? ” और बहुत दुखी हो जाते हैं। जैसा कि कहा गया है “गोग्ने चैव सुरापे च चोरे भग्नव्रते तथा; निष्कृतिर्विहिता सद्भिः कृतघ्ने नास्ति निष्क्रुतिः” (अनुवादक का टिप्पणीः यह श्लोक सबसे घृणास्पद पापों को सूचीबद्ध करता है जैसे कि गाय को मारना, शराब पीना, चोरी करना आदि, जिनके पास प्रायश्चित्त नहीं है – और ऐसे पाप करने वाले कृतघ्न लोग उन्हें पुण्य काल / शुभ समय के दौरान कुछ पवित्र कर्मों को करके इससे से मुक्त हो जाएगे) यदि कृत्यों (शारीरिक) में कृतघ्न शामिल है जिसमें गाय की हत्या करना, चोरी, इत्यादि बहुत घृणित है, तो आचार्य के प्रति कृतघ्न होने के बारे में क्या कहना है, जिन्होंनें जीवात्मा को स्वस्वरूप का दिव्य ज्ञान प्रदानकर जीवात्मा को शारीरिक सोच की स्थिति से आत्मा (आध्यात्मिक सोच) की स्थिति में बदल दिया – यह सबसे घृणित पाप है जिसका प्रायश्चित्त ही नहीं है।

रेत के साथ मिश्रित पानी और तेत्ताम् बीज (बीज का एक प्रकार) के साथ शुद्धीकरण क्रिया मे जिस प्रकार रेत अर्ध भाग में जमता है और साफ पानी शीर्ष भाग मे, ठीक उसी प्रकार सबसे दयालु आचार्य जीवात्मा (साफ पानी) शरीर (पात्र) में जो अज्ञानता (रेत) का स्रोत है, इसे तिरुमन्त्र (बीज) के साथ शुद्धीकरण करते है । अतः फलस्वरूप अज्ञानता कम होती है और ज्ञान प्रकाशमय हो जाता है। लेकिन जब तक शुद्ध पानी को किसी अन्य स्वच्छ पात्र में स्थानांतरित नहीं किया जाता है, जब भी पानी किसी और चीज से छूता है तो रेत आती है, जब तक कि वह परमपद में किसी अन्य शुद्ध शरीर में स्थानांतरित नहीं हो जाता तब तक जीवात्मा को इस शरीर में भी संभ्रमित ही रहना पडेगा । इस तरह के घबराहट से बचने के लिए शिष्य को आचार्य और अन्य श्रीवैष्णव के आस-पास रहना आवश्यक हैं जो आचार्य के रूप में अच्छे हैं। यह सिद्धांत हमारे पूर्वाचार्यों द्वारा समझाया गया है।

यामुनाचार्य (आळवन्दार्), तिरुवनन्तपुरम् जाने के दौरान, अपने प्रिय शिष्य दैववारियाण्डान् को श्री रंगानाथ (एम्पेरुमान्) की माला-सेवा और श्रीरंगम में मठ की देखभाल करने का निर्देश देते हैं। आण्डान् बहुत चिंतित हो जाते हैं और तीर्थ और प्रसाद को नहीं स्वीकार करते हैं और दिन-प्रतिदिन पतले होते जाते हैं। श्री रंगानाथ (पेरिय-पेरुमाळ्) उनसे पूछते हैं “तुम ऐसा क्यों हो रहे हो?” और आण्डान् ने जवाब दिया “भले ही मेरे पास आपके (देवरिर्) के कैङ्कर्य और सेवा (दर्शन) हैं, फिर भी मैं अपने आचार्य यामुनाचार्य (आळवन्दार्) से अलग होने में असमर्थ हूं, यही कारण है कि मेरा शरीर पतला हो रहा है”। “अगर ऐसा है तो आप केवल आळवन्दार् के पास जाएं”। आण्डान् खुशी से जाते हैं और तिरुवनंतपुरम के बाहर नदी के तट पर यामुनाचार्य (आळवन्दार्) (जो तिरुवनंतपुरम से लौट रहे थे) से मिलते हैं। आण्डान् वहां जाते हैं, अपने आचार्य से मिलते हैं और उन्हे देखकर आनंदमय और स्वस्थ हो जाते हैं। उस समय, यामुनाचार्य (आळवन्दार्) कहते हैं, “आप तिरुवनंतपुरम के चारों ओर बगीचे देख सकते हैं। आप अनन्तशयन एम्पेरुमान् की पूजा करने के लिए श्रीवैश्णव के साथ वहाँ जाए। आण्डान् ने जवाब दिया, “यह आपका तिरुवनतपुरम् है; मैं पहले से ही अपने तिरुवनतपुरम् से मिला हूं” (अनुवादक का टिप्पणीः आचार्य का दिव्य रूप वह जगह है जहां श्री रंगनाथ (एम्पेरुमान्) रहते हैं – तो स्वयं वही शिष्य के लिए एक दिव्य देश है)। यामुनाचार्य (आळवन्दार्) कहते हैं, “कितना बड़ा विश्वास! इस तरह के दृढ़ विश्वास के साथ शिष्य को ढूंढना मुश्किल है” और आण्डान् से बहुत खुश हो गये।

जब पश्चात् सुन्दर देशिक (पिन्भळगिय पेरुमाळ् जीयर्) बीमार थे, तो उन्होंने अन्य श्रीवैष्णव से निवेदन करते है, “कृपया श्री रंगनाथ (एम्पेरुमान्) से प्रार्थना करें कि वह मुझे वर्तमान में परमपद नहीं दें और मुझे कुछ और समय के लिए श्री रंगम में रहने दें” और उन्हें आऴियेऴ (तिरुवाय्मोऴि ७.४), एऴै एतलन् (पेरिय तिरुमोळि ५.८) पदिग का पाठ करने को कहते है और श्री रंगनाथ (एम्पेरुमान् से ऐसा अनुरोध करते हैं (अनुवादक का टिप्पणीः इसे श्रीवैष्णव शिष्टाचार के अनुचित के रूप में माना जाता है – किसी को भी कुछ भी चीज़ के लिए श्री रंगनाथ (एम्पेरुमान्) से प्रार्थना नहीं करनी चाहिए – यहां तक कि बीमारी से ठीक होने के लिए भी)। अन्य श्रीवैष्णव के निवेदन करने से पश्चात् सुन्दर देशिक (पिन्भळगिय पेरुमाळ् जीयर्)) जल्दी से सुस्स्वस्थ हो जाते हैं। यह देखकर, श्री कलिवैरि दास (नम्पिळ्ळै) के शिष्य उनके पास जाते हैं और उनसे पूछते हैं “वो सबसे ज्यादा जानकार और बुजुर्ग हैं, लेकिन क्या उनकी प्रार्थना शारीरिक सुरक्षा के लिए उनके स्वरूप के लिए योग्य है?”। श्री कलिवैरि दास (नम्पिळ्ळै) कहते हैं, “हम नहीं जानते कि उनके विचार क्या हैं”। तब श्री कलिवैरि दास (नम्पिळ्ळै) कहते हैं, जाओ और पिळ्ळै एङ्गळाऴ्वान् से पूछो। पिळ्ळै एन्गळाज़्ह्वान् जवाब देते हैं “वह श्री रंगम के गौरवशाली कैङ्कर्यों से जुडे हो सकते हैं और वह कुछ और समय के लिए यहाँ रहना चाहते हैं” क्योंकि यह भी कहा जाता है कि “इस संसार में एक को अपने कर्मो का पूरी तरह से उपभोग करना चाहिए”। श्री कलिवैरि दास (नम्पिळ्ळै) तब अपने शिष्यों को तिरुनारायणपुरत्तु अरयर् से पूछने के लिए कहते हैं – अरयर् कहते हैं, “हो सकता है कि उनके पास कुछ अधूरा कार्य हो जो वह पूरा करना चाहते हैं, इसलिए वह यहां अपने जीवन को बढ़ाने के लिए प्रार्थना कर रहा हैं”। श्री कलिवैरि दास (नम्पिळ्ळै) तब अपने शिष्यों को अम्मङ्गि अम्माळ् से पूछने को केहते हैं, जो कहती हैं, “कौन श्री कलिवैरि दास (नम्पिळ्ळै) के कालक्षेप गोष्टी को छोड़ना चाहेगा, वह प्रार्थना कर सकता है ताकि वह श्री कलिवैरि दास (नम्पिळ्ळै) के कालक्षेप को सुनने के लिए कुछ और समय के लिए यहां रहना चाहते हैं।” श्री कलिवैरि दास (नम्पिळ्ळै) तब अपने शिष्यों से अम्मङ्गि पेरिय मुदलियार् के पास जाने के लिए कहते हैं और जब वे उनके पास जाते हैं, तो वो कहती हैं, “भट्टर् ने कहा कि अगर उन्हें परम्पद में श्री रंगनाथ (नम्पेरुमाळ्) का एक ही दिव्य रूप नहीं दिखाई देता है, तो वह एक छेद बनायेगा और श्री रंगम में वापस कूद जाएगा। इसी तरह वह श्री रंगनाथ (नम्पेरुमाळ्) से भी जुड़ा हो सकते हैं कि वह यहां से नहीं निकलना चाहता “। इन सभी विचारों को सुनने के बाद, श्री कलिवैरि दास (नम्पिळ्ळै) अंततः जीयर से पूछते हैं कि इनमें से कोई भी विचार वह स्वयं जो सोच रहे हैं उसके अनुरूप है क्या। जीयर जवाब देते हैं, “इनमें से कोई भी मेरी सोच से मेल नहीं करता है।” श्री कलिवैरि दास (नम्पिळ्ळै) जीयर को अपने दिमाग (सोच) को प्रस्तुत/प्रकट करने के लिए कहते हैं। जीयर कहते हैं, “आप सबकुछ जानते हैं। लेकिन आपकी दया से, आप इसे मेरे माध्यम से प्रस्तुत/प्रकट करना चाहते हैं। मुझे कहना है कि मैं यहां क्यों रहना चाहता हूं। हर दिन, स्नान करने के बाद, आप नए कपड़े पहनेंगे और अपने दिव्य चेहरे पर थोडा पसीने के साथ घूमेंगे और मैं उस समय आपको पंखा करना शुरू कर दूंगा। मैं इस तरह के दिव्य रूप और उस सेवा की उस दृष्टि को कैसे छोड़ सकता हूं जो उस समय मैं करता हूं और अभी परमपद जाऊं? “। श्री कलिवैरि दास (नम्पिळ्ळै) और उनके शिष्य ये सुन रहे थे और आनंदमय हो गये इस संसार में इस तरह के समर्पण को देखकर आश्चर्यचकित हुए। हमारे जीयर् (मामुनिगळ्) को भी इस समर्पण के साथ अतिरंजित किया गया था और उपरोक्त रत्न माला ६६ वें पासुरम् में इस तरह के समर्पण को विकसित करने के लिए अपने दिमाग को निर्देश दिया था।

पिन्बऴगराम् पेरुमाळ् जीयर्
पेरुन्तिवत्तिल् अन्बदुवुमट्रु
मिक्क आशैयिनाल् नम्पिळ्ळैक्कान अडिमैगळ् शेय्
अन्निलैयै नन्नेन्जे! ऊनमऱ एप्पोऴुदुम् ओर्

सरल अनुवादः पिन्भऴगराम् पेरुमाळ् जीयर्, परमपद से जुड़ाव के बिना, श्री कलिवैरि दास (नम्पिळ्ळै) के दिव्य रूप की सेवा करने के लिए महान प्यार से श्री रंगम में रहे। ओह प्रिय दिमाग ! हमेशा समर्पण की स्थिति पर ध्यान दें।

एक बार श्री महापूर्ण (पेरिय नम्बि), गोष्टीपूर्ण (तिरुक्कोष्ठीयूर् नम्बि) और मालाधर (तिरुमालै आण्डान्) को चन्द्र पुष्करिणी के तट पर पुन्नै पेड़ के नीचे श्री रंगंम में इकट्ठित हुए। वे अपने आचार्य (यामुनाचार्य (आळवन्दार्)) की यादगार यादों का स्मरण कर रहे थे और उनके द्वारा दिए गए अद्भुत निर्देशों पर चर्चा कर उनका आनंद ले रहे थे। उस समय, सेल्वर् (अनुवादक का टिप्पणीः सेल्वर् श्री रंगनाथ (एम्पेरुमान्) का रूप (विग्रहम्) है जो परिवार देवताओं को प्रसाद वितरित करने की प्रक्रिया को देखता है) की  सवारी शुरू होती हैं और श्रीबलि (प्रसाद) को वितरित करने वाले कैङ्कर्य करने वालों (कैङ्कर्यपर) के साथ वहां आते हैं। चूंकि उन्हें अपनी चर्चा को कुछ क्षणों के लिए विश्राम देना पड़ा, और तदनन्तर श्री रंगनाथ (एम्पेरुमान्) के सामने झुकना पड़ा, वे कहते हैं, “यहां भीड़ तोडने वाले आ गये है; इस दिन से हम एक मंदिर में रहने की प्रतिज्ञा करते हैं जहां सेल्वर् श्रीबलि को वितरित करने वाले कैङ्कर्य करने वालों (कैङ्कर्यपारा) के साथ नहीं जाते हैं” । (अनुवादक का टिप्पणीः अपनी प्रतिज्ञा को पूरा करने के लिए, श्री रंगनाथ (एम्पेरुमान्) ने कैङ्कर्य करने वालों के साथ नहीं जाने की शपथ ली क्योंकि यह अपने भक्तों के दिव्य चर्चाओं को श्री रंगम में ईन्टेर्रुप्ट्/परेशान करेगें और आज तक इसका पालन आज भी होता है)।

जब अनन्तार्य (आनन्ताऴ्वान्) श्री वेदान्ति जीयर् (नन्जीयर् (वेदान्ति जिनका भट्टर द्वारा सुधार किया गया था)) से मिले जिन्होंने संयास लिया और श्री रंगम तक पहुंचने की योजना बना रहे थे और उन्हे बताया, “आपने संयास आश्रम स्वीकार कर लिया है जो आपके आचार्य के प्रति आपके कैङ्कर्य में हस्तक्षेप करेगा। क्या वे आपको परमपद से बाहर धकेलेंगे यदि आपने पसीने आने पर स्नान लिया, जब आपको भूख लगी तो आपने खाया और हमेशा भट्टर के चरणकमलों पर शरण लेते थे? अब आपको सिर्फ एक कोने में रहना होगा और आप भट्टर की सेवा करने में सक्षम नहीं हैं।

तोण्डनूर् नम्बि का एक शिष्य जो तिरुमलै जाने से पहले एक शैव था और अनन्तार्य (अनन्ताऴ्वान्) से मिलता है। उन्होंने देखा किया कि अनन्तार्य (अनन्ताऴ्वान्) फूलों को तोड़ रहे हैं और अपने बगीचे में बीज लगा रहा है ताकि श्री बालाजी (तिरुवेंकटमुडैयान्) के लिए माला बना सके। वह कहते हैं, “अनन्तार्य (अनन्ताऴ्वान्) ! कई नित्यसूरि इन फूलों का रूप ले कर तिरुवेकटम् में श्री बालाजी (तिरुवेकटमुडैयान्) की सेवा करते हैं। आप उन्हें अनावश्यक रूप से पेराई कर रहे हैं। मेरा कैङ्कर्य मेरे आचार्य तोण्डनूर् नम्बि के निवास के पिछवाड़े पर है जहां वे केले के पत्तियों को खाली करते हैं, जिस पर श्रीवैष्णव प्रसाद का उपभोग करते हैं ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि वहां सबकुछ साफ और उचित बनाए रखा जाए। मैं आपके साथ अपना यह कैङ्कर्य के सहभागी बने। उस भागवत्कैङ्कर्य में शामिल होने से हम पयिलुम् चुडरोळि  (तिरुवाइमोऴि ३.७) और नेडुमार्क्कडिमै (तिरुवाइमोऴि ८.१०) के अनुसार अपना जीवन जी सकते हैं। (अनुवादक का टिप्पणीः इन दोनों पदों में भगावतों के उप-सहायक होने के महत्व पर प्रकाश डाला गया है)। आप इन दैवीय फूलों के पेड़ को परेशान करने से क्यों नहीं वर्जन करते हैं? “इसके बाद, वह श्रीवैष्णव बीमार हो जाता है और उसके सिर को अनन्तार्य (अनन्ताऴ्वान्)  की गोद पर रख कर लेट जाता है। अनन्तार्य (अनन्ताऴ्वान्) पूछते हैं “इस समय आप क्या सोच रहे हैं?”। वह श्रीवैष्णव जवाब देता है “तोण्डनूर् नम्बि ने मुझे स्वीकारा और मेरे पिछले बुरे सहयोग पर विचार किए बिना मुझे सुधारा। मैं अपने निवास के पिछवाड़े पर ध्यान कर रहा हूं जहां मैं कैङ्कर्य करता था” और तुरंत परमापद चले जाते हैं। इस घटना का सार यह है – भले ही इस श्रीवैष्णव के पास श्री बालाजी (तिरुवेंकटमुडैयान्) के सामने होने का बड़ा भाग्य था, लेकिन उसमें उसे कोई रूचि नहीं थी और उस जगह पर पूरी तरह से ध्यान केंद्रित किया गया जहां उसके आचार्य ने उसे स्वीकार कर लिया और उसे कैङ्कर्य में लगाया।

अनुवादक का टिप्पणीः इस प्रकार, उपर्युक्त घटनाओं के माध्यम से, हम अपने पूर्वाचर्यों द्वारा भागवत्कैङ्कर्य पर भी आचार्य कैङ्कर्य को दिए गए अधिक महत्व को समझ सकते हैं।

जारी रहेगा………

अडियेन भरद्वाज रामानुज दासन्

आधार – https://ponnadi.blogspot.com/2013/06/anthimopaya-nishtai-6.html

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