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विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन) – १४

 श्रीः  श्रीमते शठकोपाय नमः  श्रीमते रामानुजाय नमः  श्रीमद्वरवरमुनये नमः  श्रीवानाचलमहामुनये नमः  श्रीवादिभीकरमहागुरुवे नमः

श्रीवैष्णवों को अपने दैनिक जीवन में कैसी चुनोतियों का सामना करना पड़ता है इसका उपदेश श्रीरामानुज स्वामीजी ने वंगी पुरुत्तु नम्बी को दिया । वंगी पुरुत्तु नम्बी ने उस पर व्याख्या करके “विरोधि परिहारंगल” नामक ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत किया । इस ग्रन्थ पर अँग्रेजी में व्याख्या श्रीमान सारथी तोताद्रीजी ने की है। उसके आधार पर हम लोग हिन्दी में व्याख्या को देखेगें । इस पूर्ण ग्रन्थ की व्याख्या को हम लोग https://srivaishnavagranthamshindi.wordpress.com/virodhi-pariharangal/ पर हिन्दी में देख सकते है।

<– विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन) – १३

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श्रीरामानुज स्वामीजी अपनी कालक्षेप गोष्ठी में

४५) श्रवण विरोधी – सुनने में बाधाएं (भगवान और भागवतों कि स्तुतियाँ)

श्रवण का अर्थ सुनना है। इस अंश में क्या सुनना और क्या न सुनना इस विषय को समझाया गया है। अनुवादक टिप्पणी: भागवत में श्रीप्रह्लादजी भक्ति की ९ पद्धतियों को समझाते है – श्रवणम् कीर्तनम् विष्णो: स्मरणम् पाद सेवनम् अर्चनम् वंदनम् दास्यम् सख्यम् आत्म निवेदनम् – सुनना, गाना, भगवान श्रीमन्नारायण का स्मरण करना, उनके चरण कमलों कि सेवा करना, उनकी आराधना करना, उनकी स्तुति करना, उनकी सेवा करना, उनके दास बनकर रहना और अपने आप को उनको समर्पित करना, यह भगवान के प्रति सेवा भक्ति करने कि नौ प्रकार की पद्धति है। इनमें श्रवण को पहिले दर्शाया गया है क्योंकि यह मुख्य पहलू है। इसके बारे में हम अभी देखेंगे।

  • जहाँ भगवद विषय पर चर्चा हो रही हो ऐसे स्थान पर व्यर्थ चर्चा करने पर विरोध करना चाहिये। ऐसा न करना बाधा है। हालांकि कोई पूर्णत: भगवद विषय (भगवान से संबंधित विषय) में लिप्त हो तो वह जो भी कहते है वह स्वतः ही भगवद विषय बन जाता है। ज्ञान सारम के ४०वें पाशुर में यह कहा गया है कि “अंबर सोल्लुम अविडु सुरुदियाम” – भगवान के प्रिय भक्त, जो भगवान को जानते है, के द्वारा की गई कोई संयोगिक बात भी प्रमाण बन जाती है। अनुवादक टिप्पणी: श्रीवरवरमुनि स्वामिजी के उत्तर दिनचर्या में एरुम्बिअप्पा स्वामीजी उनसे प्रार्थना करते है कि “प्रिय स्वामीजी! कृपया मुझे आशिर्वाद प्रदान करे कि मेरे सारे विचार आप पर हीं केन्द्रीत हो, सारे शब्द आप हीं कि स्तुति करे, मेरे शरीर के सारे अंग आपकी ही सेवा करे, यहाँ जो भी मैंने न कहा हो – वह सभी आपके आनन्द के लिये हो” – यह सच्चे श्रीवैष्णवों कि परिस्थिती है – वह हमेशा भगवान और आचार्य का आनन्द देखते रहते है – इसलिये वह जो भी कुछ करते है वह अपने आप भगवान और आचार्य के लिये आनन्ददायक हो जाता है।
  • सुनते समय विषय पर पूर्णत: ध्यान नहीं रखना बाधा है। मन पूर्णत: विषय पर केन्द्रीत रहना चाहिये। उसे अनजाने से नहीं सुनना चाहिये और उसके पूर्ण महत्त्व को जाने बिना यह कहना कि “मैंने भी भगवद विषय सुना है” यह बाधा है।
  • भगवद विषय को सुनते समय ध्यान अन्य विषय पर केन्द्रीत करना बड़ी बाधा है।
  • जब कोई विशेष विषय को सुन रहे हो जिसके बारे में हमे पता न हो तो हमें पूरे ध्यान से उसे सुनना चाहिये और समझने कि कोशिश करनी चाहिये। केवल सिर हिलाकर यह कहना कि “हां यह सत्य है” आदि और ऐसे रहना जैसे कि हमें सब पता हो ऐसा करना बाधा है।
  • जब कोई शिक्षीत विद्वान कुछ तत्व समझा रहे हो तो उन्हें मध्य में रोककर अपने ज्ञान कि बढाई नहीं करनी चाहिये। हमें उनमें कोई दोष भी नहीं देखना चाहिये।
  • अगर कोई भगवद विषय का अर्थ बड़ी सुन्दरता से बता रहा हो, तो उनके प्रति ईर्ष्या भावना रखना बाधा है। अगर कोई भगवद विषय में जगमगा रहा हो, तो हमें ईर्ष्या नहीं करनी चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: आर्ति प्रबन्ध में श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ५५वें पाशुर में स्वयं के बारे में कहते “पिरर मिनुक्कम पोरामै ईल्लाप पेरुमैयुम पेट्रोमे”” – मैं अन्य को जगमगाते देख कभी भी ईर्ष्या भावना नहीं रखता हूँ। यह बहुत बड़ा महान गुण है और प्राप्त करने के लिये भी कठिन है – परन्तु श्रीवैष्णवों से इसी की अपेक्षा रहती है – अन्य श्रीवैष्णवों कि स्तुति होते देख हमें स्वयं भी आनंदित होना चाहिये।
  • भगवद विषय के अच्छे शब्दों को सुन उनकी स्तुति न करना बाधा है। नम्र होना बहुत अच्छी बात है और जब अच्छे शब्द सुनते है और वे अच्छे काम करते है, तो हमें पूर्ण हृदय के साथ उनकी प्रशंसा करनी चाहिये।
  • सह विद्यार्थी, जो हमसे अधिक समझदार है, उनसे ईर्ष्या भावना रखना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: हर श्रीवैष्णवों को दूसरे श्रीवैष्णवों को जगमगाते देख आनंदित होना चाहिये और जब वे दुखी हो तो शोक प्रकट करना चाहिये। यह समझदार लोगों का सच्चा गुण है। यह कहा जाता है कि अन्य श्रीवैष्णवों का जब भी अच्छा होता है तो हमें भी आनंदित होना चाहिये जैसे हमारे बच्चो का ही कुछ अच्छा होता है तब हम हर्षित होते है (सभी जन अपने बच्चों कि प्रगति और खुशी देख हर्षीत होते ही है)।
  • हमारा हृदय भगवान के दिव्य गुण जैसे सौलभ्य (आसानी से प्राप्त होना), सौशिल्य (सभी से हिल मिल जाना) आदि को सुनकर पिघलना चाहिये। ऐसा न करना बाधा है। यह जानकर कि भगवान श्रीमन्नारायण कृष्ण रूप में असहाय परिस्थिति में है, श्रीशठकोप स्वामीजी अपना चेतन ६ महिने के लिये खो देते है, हम इस घटना को स्मरण कर सकते है।
  • भगवद विषय (भगवान से जुड़ा हुवा विषय) हृदय से पूर्ण उपासना सहित होना चाहिये। उन्हें अनुराग रहित ऐसे ही सुनना बाधा है।
  • दिव्य मनोभाव में कोई शारिरीक बदलाव न होना बाधा है। “आह्लादसीत नेत्राम्बु: पुलाक्लकृत गात्रवान” – उमंग के साथ जब हम भगवान का नाम सुनते है खुशी के आँसु और शारीरिक बदलाव (रोमांच, शरीर के बाल खड़े होना आदि) न होना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: यह सभी भगवान, गरुड पुराण में स्वयं समझा चुके है, जब वे अपने भक्तों के ८ गुण समझाते है – एक गुण है भगवान के बारे में सुनते ही दिव्य उमंग होना। वह कहते है “मेरे भक्तों में यह ८ गुण है – १) भगवान के भक्तों में बिना शर्त के प्रेम, २) दूसरे को भगवान के प्रति पुजा करते देख आनन्द लेना, ३) स्वयं भगवान की पुजा करना, ४) अहंकार छोड़ करके रहना, ५) भगवान के प्रति सुनने में लगाव रखना, ६) जब भी भगवान के विषय में सुनते/ सोचते/ कहते है, शारीरिक बदलाव (जैसे रोमांच आदि) होना, ७) हमेशा भगवान के बारे में सोचना, ८) भगवान कि सेवा के बदले सांसारिक लाभ नहीं मांगना। ऐसे भक्त अगर म्लेच्छ भी हो, तब भी वे मेरे समान ही ब्राह्मणों, योगियों, कैंकर्य करने वालों और यहाँ तक की सन्यासियों और विद्वानों द्वारा पूजनीय है। ऐसे विद्वानों से ज्ञान देने और लेने में वे योग्य है।
  • एक बार सत सम्प्रदाय के तत्वों को सुनने के पश्चात उसका पूर्णत: पालन करना चाहिये। ऐसा न करना बाधा है। श्रीगोदम्बाजी, नाच्चियार तिरुमोली में कहते है “मेयम्मैप्परु वारत्तै विट्टुचित्तर केट्टिरुप्पर” – मेरे पिताजी श्रीविष्णुचित्त स्वामीजी ने चरम श्लोक को सुनकर उसके अनुसार ही जीवन व्यतीत किया। यह आस्तिक लक्षण (शास्त्र में विश्वास करने वाला) है। इस तत्व का पालन नहीं करना मतलब सच्चे स्वभाव का नाश करना है।
  • सदाचार्य से नहीं सुनना बाधा है। सदाचार्य का अर्थ वह जो अपने बड़ो (अपने आचार्य) से सही तरह सुने, उनके अर्थों पर विचार करें और वही दूसरों को समझाये। वह जो अपने पूर्वाचार्यों के आचरण से सिखे। ऐसे ही महान व्यक्ति को सदाचार्य कहते है। उपदेश रत्नमाला के ६१वें पाशुर में श्रीवरवरमुनि स्वामीजी इस तरह समझाते है “ज्ञानं अनुष्ठानं इवै नंरागवे उदैयनान गुरु” – आचार्य, जो ज्ञान में सही प्रकार से स्थित हो और तत्वों को सही तरिके से पालन करते है।
  • सदाचार्य से अनमोल ज्ञान को प्राप्त कर दूसरे अज्ञानी जनों को ज्ञान देना बाधा है। उसमें सही ज्ञान को पाने कि तीव्र इच्छा होनी चाहिये और ऐसे ज्ञान में विश्वास होना चाहिये।
  • अवैष्णवों से भगवद विषय सुनना विरोधी है। अवैष्णव अर्थात जिनका देवतान्तर सम्बन्ध हो – अन्य देवों से जैसे रुद्र, दुर्गा, इन्द्र, ब्रम्ह, आदि से सम्बन्ध। अनुवादक टिप्पणी: श्रीपरकाल स्वामीजी, पेरिय तिरुमौली में यह समझाते है कि हमें उन लोगों से कोई सम्बन्ध नहीं रखना चाहिये, जो देवताओं से जुड़े हुए है। पेरिय तिरुमौली – मट्रुमोर धेय्वं उलधेंरु इरुप्पारोडु उट्रिलेन – मैं उनसे नहीं जुडुंगा जो अन्य देवताओं को स्वीकार करते है। ऐसे जन अगर वें भगवद विषय प्रस्तुत भी करें तो भी अपने प्रिय देवता के प्रति थोड़ा प्रेम रहेगा – ऐसों से बचना ही चाहिये। चाहे वो बाह्य हो (वैदिक क्रम से बाहर) या कुदृष्टि (वो जो वैदिक रीति को अपनाते है, परन्तु उसके अर्थ को गलत रूप देते है) – वो जो भी समझाते है, वो सत सम्प्रदाय के विपरीत रहेगा – इसलिये हमें ऐसे जनों से बहुत सावधान रहना चाहिये और उन्हे नहीं सुनना चाहिये।
  • सत सम्प्रदाय का विषय छोड़ हमें और कुछ भी नहीं सुनना चाहिये। हमें ऐसे विद्वानों से सुनना चाहिये जो सत सम्प्रदाय में ही पूर्णत: शिक्षीत हो। अनुवादक टिप्पणी: अगर हम उन विद्वानों से सुनते है जो इन तत्वों में शिक्षीत न हो तो भ्रम होना पूर्णत: सम्भव है और सहीं तत्वों का गलत प्रतिनिधित्व या प्रकाशन होगा। अत: ऐसे लोगों से बच कर ही रहना चाहिये। श्रीभक्तांघ्रिरेणु स्वामीजी तिरुमलै के पाशुर में कहते है “कलै अरक्कट्र मांदर काण्बरो केटपरो ताम” – क्या शिक्षीत जन अवैदिक विषय को सुनेंगे। श्रीपेरियवाच्चान पिल्लै अपने व्याख्यान में एक घटना को दर्शाते है जहाँ श्रीकुरेश स्वामीजी अपनी युवा अवस्था में एक बौद्ध ग्रन्थ के विषय में सुनते है और तिरुमाली में देर से आते है। श्रीकुरेश स्वामीजी के पिताजी कुरताल्वार स्वामीजी ऐसे बर्ताव से बहुत दुखी होते और श्रीकुरेश स्वामीजी को पवित्र करने हेतु श्रीपादतीर्थ देकर ही तिरुमाली में अन्दर स्वीकार करते है।
  • भगवान और भागवतों कि स्तुतियाँ सुनकर हमें आनंदित होना चाहिये। उसी तरह जब कोई भगवान और भागवतों का अपमान करता है (जैसे शिशुपाल ने किया) तो हमें उसी क्षण अपने कान बन्द कर उस स्थान को छोड़ देना चाहिये। ऐसा न करना बाधा है।
  • चरमार्थम जैसे तिरुमन्त्र, द्वयं और चरम श्लोक को अच्छी तरह समझकर जीवन में उतारना चाहिये। चरमार्थ का अर्थ चरम श्लोक भी है। अनुवादक टिप्पणी: चरमार्थ का अर्थ है आचार्य को उपाय और उपेय रूप में स्वीकार करना। श्रीदेवराजमुनि स्वामीजी ने ज्ञान सारं और प्रमेय सारं प्रबन्ध में यह समझाया है। श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र को यह कहकर समाप्त करते है कि हमें सर्वोच्च स्थान पर ले जाने के लिये आचार्य कृपा ही सर्वोत्तम है। श्रीविलांचोलै पिल्लै स्वामीजी अपने सप्त कथा में ७ पाशुरों में यही तत्व समझाते है। उपदेश रत्नमाला के अन्त में श्रीवरवरमुनि स्वामीजी इसे एक सुन्दर रूप से समझाते है।
  • भगवद विषय के बारे में चर्चा करते समय किसी को भी अन्य देवता जैसे शिवजी, ब्रम्हाजी, इन्द्र आदि कि चर्चा नहीं करनी चाहिये।

-अडियेन केशव रामानुज दासन्

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