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विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन) – ३५

श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचलमहामुनये नमः श्रीवादिभीकरमहागुरुवे नमः

“श्रीवैष्णवों को अपने दैनिक जीवन में कैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है इसका उपदेश श्रीरामानुज स्वामीजी ने वंगी पुरत्तु नम्बी को दिया। वंगी पुरत्तु नम्बी ने उसपर व्याख्या करके “विरोधी परिहारंगल (बाधाओं को हटाना)” नामक ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत किया। इस ग्रन्थ पर अंग्रेजी में व्याख्या श्रीमान सारथी तोताद्रीजी ने की है उसके आधार पर हम लोग हिन्दी में व्याख्या को देखेंगे। इस पूर्ण ग्रन्थ की व्याख्या को हम लोग “https://goo.gl/AfGoa9”  पर हिन्दी में देख सकते है।

<– विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन – ३४)

६९) आप्त विरोधी – विश्वासयोग्य तत्त्वों को समझने में बाधाएं।

श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी (आचार्य – गृहस्थ) – श्रीवेदान्ति स्वामीजी (शिष्य – सन्यासी)

आप्त का अर्थ विश्वसनीय व्यक्ति / पहलू या हित चाहनेवाला। सामान्यत: वह जो बिना कुछ चाहे दूसरों का हित चाहता है उसे आप्त कहते है – मित्रों में उत्तम। श्रीसहस्रगीति में श्रीशठकोप स्वामीजी तिरुमोगूर भगवान की तिरुमोगूर आत्तन ऐसे जय जयकार करते हैं। आप्त का तमिल शब्द आत्तन है। अनुवादक टिप्पणी: इस भाग में उन विषयों पर चर्चा हुई है जो प्रपन्नों के लिये अच्छा है – इसमें शामिल है किसी के स्वभाव को अच्छी तरह समझना, भगवद, भागवत, आचार्य, आदि के महत्त्व को समझना।

  • भगवान और भागवतों में जिनकी प्रीति हो उनकी उपेक्षा करना बाधा है। जो भी भगवद और भागवतों में लगा है उन्हें अपना हित चिन्तक समझना चाहिये और उनके प्रति अच्छी तरह व्यवहार करना चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: भगवान कृष्ण स्वयं भगवद्गीता के ७.१९ में समझाते हैं “बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपध्यते। वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥” – कई जन्मों के पश्चात जो सच्चा ज्ञान प्राप्त करता है वह मेरे शरण में आता है। ऐसे व्यक्ति जो वसुदेव को ही सबकुछ (उपाय, उपेय, आदि) मानते हैं वो महान व्यक्ति है और बड़ी दुर्लभता से मिलते हैं। उसी तरह स्वयं भगवान वैष्णवों के आठ विशेष गुणों को समझाते हैं। उसमें वैष्णवों का पहला गुण है “मद भक्त जन वात्सल्य” – भगवान के भक्तों के प्रति लगाव रखना। वह भी “वात्सल्य” शब्द का यहाँ प्रयोग भगवान ने किया है। वात्सल्य अर्थात माता सा प्यार / सहनशीलता – जैसे एक माता अपने बच्चों में कितना भी दोष हो उसे प्यार करेगी उसी तरह एक वैष्णव को अन्य वैष्णव में कितना भी दोष या कमी हो उनके दोषों को अनदेखा करके उनमें प्रेम भाव रखना चाहिये। अत: इन २ प्रमाणों से हम वैष्णवों के सेवा के महत्त्व को समझ सकते है जो भगवद और भागवतों में लगे हुए हैं। यह भी समझना चाहिये कि वैष्णवों कि ओर ध्यान न देना उनके प्रति सम्मान न देने के बराबर है।
  • जो भगवान और भागवतों के प्रति लगाव नहीं करते हैं उनके प्रति बहुत प्यार करना या दिखाना बाधा है। यह पिछले विषय से जुड़ा है। हमें उनके प्रति लगाव नहीं दिखाना चाहिये जो अपने कार्य और बाह्य स्वरूप से संसारी हो। अनुवादक टिप्पणी: श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र में श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी श्रीवैष्णवों की दिनचर्या को समझाते हैं। कई विषयों में एक इस प्रकार हैं “अहंकार अर्थ कामंगल मूनरूम अनुकूलर पक्कलीले अनाधरत्तैयूम, प्रतिकूलर पक्कलीले प्रावण्यत्तैयुम, उपेक्षिक्कुमवर्गल पक्कलीले अपेक्षइयूम पिरप्पिक्कुम”। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी इसके लिए एक बहुत सुन्दर उदाहरण देते हैं। तीन विषयों की यहाँ चर्चा हुई है। एक एक कर हम देखेंगे। १) श्रीवैष्णव अनुकूल (हितकारी) हैं – वे हमारे स्वामी हैं। जब हम उन्हें देखते हैं हमें उनके प्रति आदर सम्मान होना चाहिये और उसी क्षण सम्मान सहित वहाँ खड़े होना चाहिये। परन्तु अहंकार (स्वयं को स्वतन्त्र मानना) हमें उनकी ओर दुर्लक्ष्य कर देता है। क्योंकि अहंकार स्वयं को उच्च मानता है और अन्यों को सम्मान देने से रोकता हैं। २) सांसारिक जन प्रतिकूल (कृपाहीन) होते हैं। अर्थतम का अर्थ सांसारिक धन है। जब हम धन की इच्छा की ओर बढ़ते हैं तब हम धन प्राप्ति के लिये किसी की भी कितनी भी प्रशंसा कर सकते हैं। अत: यह सांसारिक धन, वैभव, आदि की इच्छा हमें प्रतिकूल जनों का मान सम्मान और उनके प्रति लगाव कराता है। ३) कामुक स्त्री सामान्यता उपेक्षिक्कुमवर (जो हमारी इच्छाओं की कभी भी परवाह नहीं करती हैं) होती हैं। अपेक्षा यानी इच्छा। जब किसी में कामुकता बढ़ती है तब यद्यपि वह स्त्री उस पुरुष की परवाह नहीं करती है और सार्वजनिक रूप में उसका अपमान भी करती है तब भी वह कामी पुरुष उसके पीछे जाने में लज्जा नही करता। अत: हमें इन ३ गड्ढो में गिरने से बचना चाहिये।
  • स्वकीया स्वीकार निष्ठा (स्व कोशिश पर विश्वास) होना बाधा है। जब हम कुछ अनुसरण करते हैं तब यह विचार कर अनुसरण करना कि “यह मेरा है, मैं इसे मेरे स्व कोशिश से अनुसरण कर रहा हूँ” से बचना चाहिये। क्योंकि भगवान ही सभी के मालिक हैं, हमें सब कुछ भगवद प्रसाद (भगवान की कृपा), आचार्य प्रसाद (आचार्य कृपा) मानना चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: प्रपत्ति के दो प्रकार को समझाया गया है – स्वगत प्रपत्ति और परगत प्रपत्ति। स्वगत प्रपत्ति यानि स्वयं के प्रभाव की कोशिश से शरण होना। परगत प्रपत्ति यानि भगवान की कृपा से शरण होना। इन दोनों में से हमारे पूर्वाचार्यों ने परगत शरणागति को महत्त्व दिया है जो भगवान हीं रक्षक हैं और वे ही अपनी कृपा से हमें उपर उठाते हैं। जीवात्मा को भगवान के शरण होना चाहिये क्योंकि जीवात्मा का स्वाभाविक स्थान है भगवान के शरण होना।
  • स्व प्रयोजन प्रवृत्ति (स्वयं की इच्छाओं को पूर्ण करने की कोशिश) में लिप्त होना बाधा है। स्वयं के सन्तोष के लिये हमें केंद्रित नहीं होना चाहिये और हमें दूसरों को उपर उठाने और उनके अच्छे के लिये कार्य करना चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: जैसे कहा गया हैं “विचित्र देह संपत्तिर ईश्वराय निवेदितम, पूर्वमेव कृता ब्राह्मण हस्तपाधाधि संयुता” जब जीवात्मा एक सूक्ष्म स्थिति में होता है जैसे एक पदार्थ बिना इन्द्रिय/शरीर और सांसारिक आनन्द में नहीं लग सकता या वह स्वतन्त्रता की कोशिश करता है, तब भगवान के चरण कमलों की ओर अग्रसर होने के लिये कृपालू सर्वेश्वर, उस जीवात्मा पर इन्द्रिय/शरीर से कृपा करते हैं। इंद्रियाँ या शरीर का उपयोग में शारीरिक आनन्द के लिये भगवान के पास जाने के बजाय उद्धार के लिये जीवात्मा को भगवान के पास जाना चाहिये जैसे श्रीशठकोप स्वामीजी ने श्रीसहस्रगीति में कहा है “अन्नाल नि तंत आक्कैयीन वली उलल्वेन” अर्थात एक व्यक्ति जिसे एक बेड़ा दिया गया नदी के उस पार जाने के लिये, परन्तु नदी के जल के प्रवाह के कारण समुद्र में गिर जाता है, उसीप्रकार जीवात्मा को इस संसार से ऊपर उठने के लिये वही इंद्रियाँ या शरीर दिये गये थे वह इस संसार के लिये ही अधिक प्रयोग करता है। रामानुज नूत्तन्दादि में श्रीतिरुवरंगत्तु अमुधनार (श्रीरंगामृत स्वामीजी) इस तत्त्व को ६७वें पाशूर में समझाते है “मायवन् तन्नै वणंगवैत्त करणमिवै” – भगवान ने जीवात्मा को यह शरीर उनकी पूजा करने हेतु दिये है। सभी के लिये भागवतों की सेवा करना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। इसलिये हमें इस जन्म का सही उद्देश्य पता होना चाहिये और उसके अनुसार ही कार्य करना चाहिये।
  • केवल शेषत्त्व ज्ञान होना और पारतंत्रय का ज्ञान न होना बाधा है। आत्मा का स्वभाव दो चरणों में है: शेषत्त्वम – अपने स्वामी की इच्छाओं को पूर्ण करने हेतु तत्पर रहना; पारतंत्रियम – स्वामी की इच्छाओं को पूर्ण करना। भगवान की सच्ची इच्छाओं को पूर्ण करना केवल अपने स्वामी की सेवा के लिये इंतजार करने से भी अधिक महत्त्वपूर्ण समझना चाहिये यहाँ हम श्रीभरतजी को स्मरण कर सकते हैं जिन्होंने १४वर्ष तक भगवान राम की अनुपस्थिति में अयोध्या का राज्य संभाला। हालाँकि वे पहले श्रीराम के साथ वन में जाना चाहते थे।
  • स्वयं आनंदित होना और दूसरों को आनंद न देना बाधा है। भोग्यम – जो आनंदित है, भोक्ता – जो आनंदित होता है। श्रीवैष्णवों को स्वयं को भगवान को आनंद देनेवाली वस्तु समझना चाहिये। यह समझना आवश्यक है कि हमारे स्वयं का अस्तित्व केवल भगवान के आनंद के लिये ही होना चाहिये। ऐसी समझ होना बहुत महत्त्वपूर्ण है। हम भगवान को आनंद देनेवाली वस्तु हैं फिर भी स्वयं को उपभोक्ता समझना विपरीत है। अनुवादक टिप्पणी: आचार्य हृदय के २१वें चूर्णिकै में अलगिय मणवाल पेरुमाल नायनार समझाते हैं “शेषत्व भोक्थृतवंगल पोलन्रे पारतंत्रीय भोग्यतैगल”– पारतंत्रियम और भोग्यत्व दोनों शेषत्त्व और भोक्तृवंगल से भी उच्च हैं। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी यहाँ बड़ी सुन्दरता से समझाते हैं कि शेषत्त्व सोने की ईंट (कीमती है फिर भी उसका रूप बदल कर काम में ले सकते हैं) जैसी है और पारतंत्रियम  सोने की आभूषण कि तरह है जिसे उसी रूप में कार्य में लेना है। यह बहुत गहरा तत्त्व है और इसे आचार्य कालक्षेप के जरिये समझना चाहिये।
  • यह मानना कि हमें जो आनन्द प्राप्त हुआ वह स्वयं से प्राप्त होता है, बाधा है। श्रीशठकोप स्वामीजी श्रीसहस्रगीति में यह घोषणा करते हैं कि “थनक्केयाग एनैक्कोल्लुमिते  चिरप्पु” – भगवान अपने मुखोल्लास के लिये मुझे अपना लेवे यही उत्तम है। हमारा शेषत्व और पारतंत्रय दोनों केवल भगवान के मुख के आनन्द के लिये हीं उत्पन्न होना चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: श्रीकुलशेखर स्वामीजी इसे पेरुमाल तिरुमोझी में समझाते हैं “पडियायक्किडन्दु उन पवलवाय काण्बेने” – मैं आपकी सन्निधी के प्रवेश द्वार में सीढी बनूँ (जैसे अचित जिसे ज्ञान नही है) और सुख के परस्पर होना (क्योंकि चित जिसे ज्ञान है) जब मैं आपके होठों पर मुस्कान देखता हूँ। (अनुवादक टिप्पणी: यह हमारे सत सम्प्रदाय का सर्वोत्तम तत्त्व है जिसे “अचित्वत पारतंत्रियम” कहते है – अचित जैसे भगवान के पूर्ण शरण होना फिर जब भगवान के द्वारा खुशी प्रगट की जाती है तब जीवात्मा भी खुश होता है)। यह तत्त्व (स्वयं के सुख को मिटाने का) द्वय महामन्त्र के दूसरे भाग “नम:” में समझाया है। स्तोत्र रत्न में श्रीयामुनाचार्य स्वामीजी इसी तत्त्व को समझाते है “कदाप्रहर्षयिष्यामि” – भगवान के सुख के लिये तड़प। जब जीवात्मा भगवान के सुख का परस्पर आदान प्रदान करता है तब भगवान खुश हो जाते हैं। हमारे कैंकर्य का एक मात्र उद्देश है उनकी खुशी। इसके विपरित कार्य करना बाधा है।
  • जीवात्मा का सच्चा स्वभाव भगवान के आनन्द के लिये होना है और जो मूलभूत गुण है वह भी केवल भगवान के ही आनन्द पर केन्द्रित है यह न जानना बाधा है। जीवात्मा का सच्चा प्रबन्ध भगवान के आनन्द के लिये होना है – भगवान की सम्पत्ति बनना। मूलभूत तत्त्व भगवान का सच्चा दास बनकर रहना है। ऐसे जनों के लिये जिन्हे यह अहसास हो गया है कि दासता स्वभावत: ऐसी सेवा कैंकर्य, पूर्ण अधीनता, आदि बताने से होती हैं। जैसे श्रीसहस्रगीति में बताया गया हैं कि “थनक्केयाग एनैक्कोल्लुमिते चिरप्पु” हमें निरन्तर भगवान के आनन्द के लिये सेवा करनी चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: जैसे इसमें कहा गया हैं कि “अकिंचितकरस्य शेषत्व अनुपपत्ति:” –दासता के सच्चे लक्षण को कम से कम छोटे कैंकर्य (धार्मिक सेवा) द्वारा अनवरत किया जाता हैं।
  • आचार्य जो हमें वे तत्त्व बताते हैं जिसका हमें ज्ञान नहीं है उसको भगवान न मानना बाधा है। जैसे श्रीसहस्रगीति में कहा गया हैं “अरियाधन अरिवीत्त अत्ता” – नित्य सम्बंधित जिन्होंने भगवद विषयम में अज्ञात अनुभव प्रगट किया हैं, भगवान प्रथमाचार्य हैं। हमारे आचार्य को हमें भगवान का मनुष्य रूप मानना चाहिये। ऐसे आचार्य पर पूर्ण विश्वास न होना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: कृपया अंतिमोपाय निष्ठा पर लेख पढिये जिसमें आचार्य स्वयं को भगवान मानते हैं।
  • अपने आचार्य जो अन्तिम उपाय और उपेय हैं पर पूर्ण विश्वास न होना बाधा है। श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र के ४४७वें सूत्र में समझाते हैं कि “आचार्य अभिमानमे उत्तारकम” – मोक्ष के लिये आचार्य की शरण होना ही अन्तिम उपाय है। यहाँ यह समझना चाहिये कि हमें उस स्थिति में होना चाहिये जहाँ आचार्य माने कि उनका शिष्य रहे जैसे “यह मेरा प्रिय शिष्य हैं”। ४४६वें सूत्र में श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी कहते हैं “आचार्यनैयुम थान पररूम पर्रु अहंकार गर्भमोपाधि कालन कोणडु मोधिरमी मिडुमा पोले – आचार्य का अनुसरण करते समय भी अगर वह स्वगत शरणागति (स्व परिश्रम से आचार्य का अनुसरण करना) हैं तो भी वह जीवात्मा के स्वभाव के प्रतिकूल है क्योंकि अभिमान या स्वतन्त्र स्वभाव के कारण ऐसा अनुसरण है। यह तो केवल आचार्य ही जो शिष्य पर कृपा करता हैं (शिष्य को निरन्तर ऐसा ही सोचना चाहिये)। अगर शिष्य की ओर से अभिमान से यह कार्य किया गया हो तो वह सोने कि अंगूठी बनाकर उसे काल (यम – मृत्यु को नियंत्रण करनेवाला) से स्वीकार करना जैसे होगा।

-अडियेन केशव रामानुज दासन्

आधार: http://ponnadi.blogspot.com/2014/07/virodhi-pariharangal-35.html

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