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विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन) – १९

 श्रीः  श्रीमते शठकोपाय नमः  श्रीमते रामानुजाय नमः  श्रीमद्वरवरमुनये नमः  श्रीवानाचलमहामुनये नमः  श्रीवादिभीकरमहागुरुवे नमः

श्रीवैष्णवों को अपने दैनिक जीवन में कैसी चुनोतियों का सामना करना पड़ता है इसका उपदेश श्रीरामानुज स्वामीजी ने वंगी पुरुत्तु नम्बी को दिया । वंगी पुरुत्तु नम्बी ने उस पर व्याख्या करके “विरोधि परिहारंगल” नामक ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत किया । इस ग्रन्थ पर अँग्रेजी में व्याख्या श्रीमान सारथी तोताद्रीजी ने की है। उसके आधार पर हम लोग हिन्दी में व्याख्या को देखेगें । इस पूर्ण ग्रन्थ की व्याख्या को हम लोग https://srivaishnavagranthamshindi.wordpress.com/virodhi-pariharangal/ पर हिन्दी में देख सकते है।

<– विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन) – १८

श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी कालक्षेप गोष्ठी – सबसे अधिक मोहित करनेवाले विद्वान जो अपने सहस्रगीति के व्याख्यान के माध्यम से भगवान की स्तुतियों को सुनने के लिये कई शूरों को रोक कर रखते थे

५०) कालक्षेप विरोधी – अपना समय व्यतित करते हुए आने वाली बाधाएं

सामान्यत: कालक्षेप का अर्थ है- समय गुज़ारना। हमारा समय व्यर्थ नहीं जाना चाहिये। समय व्यतित करने के दो पक्ष है – देह यात्रा (देह के लाभ के लिये समय बिताना) और आत्मा यात्रा (आत्मा के लाभ के लिये समय बिताना)। देह यात्रा में वह सभी समय सम्मिलित है जो शरीर और शरीर संबंधियों के लाभ के लिये व्यतीत किया गया हो। आत्मा यात्रा अर्थात आत्मा के पोषण और कल्याण हेतु समय बिताना। हमारा समय इस जीवात्मा के उज्जीवनार्थ केन्द्रीत होना चाहिये। हमें देहिक आवश्यकताओं का भी सही तरीके से ध्यान रखना चाहिए – इसे नकारा नहीं जा सकता है, परन्तु केवल भोजन, छत, कपड़े और शारीरक भोग पर ही ध्यान केन्द्रीत नहीं करना चाहिये। श्रीभक्तिसार स्वामीजी और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने इस बात को समझाया है कि हमें अपना समय किसप्रकार व्यतित करना चाहिये – उसे समझना, मनन करना और अभ्यास करना चाहिये।

श्रीभक्तिसार स्वामीजी नान्मुगन तिरुवंदादि के ६३वें पाशुर में कहते है:

तेरित्तलुदि वाशित्तुम केट्टुम वणङ्गि वलिपट्टुम पूशित्तुम पोक्किनेन पोदु ।।

अर्थात मैं अपना समय भगवान के विषय में सोच कर /चिन्तन कर, उनके विषय में लिखकर, उनके विषय में पढ़कर, उनके विषय में दूसरों से सुनकर, उनकी अभिमान रहित पूजा कर, उनका तिरुवाराधन कर व्यतित करता हूँ।

आर्ति प्रबन्ध के २६वें पाशुर में श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कहते है:

पण्डू पल आरियरुम पारुलगोर उय्यप परिवुडने चेय्दु अरुलुम पल्कलैगल तम्मैक कण्डथेल्लाम एलुदी, अवै कट्रु इरुन्थुम पिरर्क्कुक कातलुडन करपित्तुम कालत्तैक कलित्तेन – अर्थात मुस्लिम हमले के समय पूर्वाचार्यों के जो ग्रन्थ लुप्त हो गये, मैंने उनको ढूंढकर एकत्रीत किया है। हमारे पूर्वाचार्यों द्वारा बड़ी करुणा से भविष्य की पीढ़ी के हितार्थ यह ग्रन्थ लिखे गये थे। जो भी ग्रन्थ मुझे प्राप्त हुए है, मैंने स्वयं उन्हें ताड़ के पत्ते पर लिखा है। मैंने अपने आचार्य (श्रीशैलपूर्ण स्वामीजी आदि) से सिखा, उनके अनुसार जीवन व्यतित किया और अपने शिष्यों को भी यही सिखाया।

यद्यपि कालक्षेप को सामान्यत: “समय बिताना” ऐसा समझा जाता है परंतु हम यहाँ यह समझ सकते है कि हमें पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों को शब्दश: समझ कर उन्हें आत्मसात करने पर केन्द्रीत होना चाहिए और दूसरों को उपदेशों के जरिये सिखाना चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: इसे श्रीवैष्णव दिनचर्या श्रीवैष्णव-लक्षण-10  और श्रीवैष्णव-लक्षण-11 में विस्तार से समझाया गया है।

  • कालक्षेप के समय तमो गुण के कारण निद्रा लेना बाधा है। श्रीभक्तांघ्रीरेणु स्वामीजी तिरुमालै पाशुर 3 में कहते है “वेद नूल पिरायम नूरु मनिशर ताम पुगुवरेलुम पादियुम उरंगिप्पोगुम” – यद्यपि जीवात्मा मनुष्य देह को स्वीकार करता है, जिसे सौ वर्ष की आयु दी गई है, उसमें से आधी आयु तो सोने (विश्राम) में ही बीत गयी। यह विश्राम करना तमो गुण का परिणाम है। यद्यपि उचित विश्राम अनुगामी है (२४ घण्टे में ६ घण्टे पर्याप्त है) अधिक विश्राम करना भी हानीकारक है। अनुवादक टिप्पणी: कालक्षेप सुनते समय हमें बहुत सतर्क रहना चाहिये और जो वहाँ कहा गया है उन तत्वों पर केन्द्रीत रहना चाहिये।यह समझना चाहिये कि नमस्कार करने हेतु कोई समय की पाबंदी नहीं है और नमस्कार करने हेतु कोई अच्छा समय आदि नहीं देखना चाहिये।
  • सुबह उठते ही सांसारिक विषयों के बारे में सोचना और समय गँवाना बाधा है। जब हम जाग रहे हो तब समय को अच्छी तरह उपयोग करना चाहिये। केवल दूसरों के बारे में बुरा सोचना/चाहना बहुत बड़ा पाप है। अनुवादक टिप्पणी: श्रीभागवत में यह कहा गया है कि एक भागवत कई कैंकर्य में नियुक्त हो सकता है जैसे श्रवण (भगवान के विषय पर सुनना), किर्तन (भगवान कि स्तुतियों को गाना), विष्णु स्मरण (भगवान के कैंकर्य को स्मरण करना), श्रीपाद सेवा (भगवान के चरण कमलों कि सेवा करना), अर्चना (भगवान कि पूजा करना), वंदना (भगवान कि स्तुति करना), दास्यम (भगवान कि सेवा करना), सख्यम् (भगवान के सखा होना) और आत्म निवेदन (स्वयं को पूरी तरह भगवान को समर्पित करना)। जब इतने शुभ कैंकर्य में हम निरत हो सकते है तो अशुभ काम में समय क्यों गवाना? श्रीशठकोप स्वामीजी पेरिय तिरुवंदादि में कहते है “कार कलन्द मेनियान कै कलन्द आलियान पार कलन्द वल्वयिट्रान पाम्पणैयान शीर कलन्द शोल निनैन्दु पोक्कारेल शूल विनैयिन आल तुयरै एन निनैन्दु पोक्कुवर इप्पोदु” – जब बादल के समान श्याम वर्ण वाले, जिनके हस्त कमलों में सुदर्शन चक्र है, जो प्रलय के समय में इस संसार कि रक्षा उन्हें अपने उदार में स्थान प्रदान कर करते है और जो शेष शैय्या पर लेटे है, ऐसे भगवान के दिव्य गुणों के बारे में बात करने हेतु इतने सुन्दर विषय है, तो कैसे हम भगवान के विषय में ध्यान मनन न करते हुए अपना समय व्यतित कर सकते है? आल्वार अपने दृष्टिकोण से विचार करते है और वे नहीं जानते कि भगवान के विषय में मनन किये बिना अपना समय कैसे व्यतीत करे।
  • स्त्रियों के साथ आनन्द लेते हुए अपना समय व्यतित करेंगे, यह सोचना भी बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: भौतिक आनंद में चरम आनंद स्त्री-पुरुष में संभोग है। अपने तरुण अवस्था के प्रारंभ से ही स्त्रियों और पुरुषों का ध्यान केवल आनंद प्राप्त करने पर होता है। हमारे पूर्वाचार्य ने इसे “विषयान्तर प्रावण्यम्” कहकर समझाया है– अर्थात सांसारिक आनन्द में प्रवृत्ति। श्रीमहद्योगी स्वामीजी ऐसी इच्छाओं को मन से निकालने के लिये एक साधारण उपचार देते है। वह मून्राम तिरुवंदादि के १४वें पाशुर में कहते है “मार्पाल मनम शुलिप्प मंगैयर तोल कैविट्टु” – जब हम अपने मन और इच्छाओं को भगवान पर केन्द्रीत करेंगे तो सांसारिक आनन्द के प्रति हमारा लगाव स्वतः ही लुप्त हो जायेगा। भगवान को “शुभाश्रयम्” ऐसा समझाया गया है अर्थात कल्याण गुण सागर रूप जिन्हें मनन करना चाहिए – जब हम ध्यान भगवान पर केन्द्रीत करते है तो स्वतः ही सभी पवित्रता स्पष्ट रूप से हम में भी आ जाते है और सभी अपवित्रता अदृष्ट हो जाती है।
  • करियान कळल (श्याम वर्ण भगवान के चरण कमल) के विषय में सोचे बिना समय बिताना बाधा है। भगवान को नील मेघ श्यामल (वह जो श्याम रंगवाले बादल को संबोधित करता है) ऐसा समझाया गया है। हमें भगवान के चरण कमलों पर केन्द्रीत रहना चाहिये जैसे श्रीशठकोप स्वामीजी श्रीसहस्रगीति में कहते है “अनरू थेर कडविय पेरुमान कनै कलल काण्बथेन्रुकोल कणगले” – मैं कब भगवान के चरण कमलों का दर्शन करूँगा जिन्होंने रथ (अर्जुन के लिये) को चलाया? और श्रीशठकोप स्वामीजी श्रीसहस्रगीति में भगवान को देखने के लिये दिव्य चाहना करते है और यह कहकर स्पष्ट करते है कि “उन्नै मेय्कोल्लक काण विरुमबुमेन कणगले” – मेरे नेत्र आपके दिव्य दर्शन की चाहना करते है। श्रीशठकोप स्वामीजी श्रीसहस्रगीति के पाशुर में और भी कहते है “ओरु नाल कान वाराये” – कृपया एक बार आईये ताकि मैं आपके दर्शन कर सकूँ।
  • अपना समय केवल सामान्य कर्मों में व्यतित करना जो वर्णाश्रम धर्म के अनुसार बतलाया गया है। इसे वैदीक कर्मों कि निन्दा करना ऐसा अर्थ नहीं लेना चाहिये। इसे भगवद आज्ञा कैंकर्य (यह जो भगवान कि आज्ञा है,इसे कैंकर्य समझकर करना चाहिये) ऐसा लेना चाहिये। इसे “सामान्य धर्म” कहते है। कुछ कर्म (जैसे नित्य संध्यावन्दन आदि, नैमित्तिक (तर्पण, आदि कर्म) “अकरणे प्रत्यवायं” ऐसा पहिचाना गया है – जब ऐसे कर्मों को नहीं किया जाता है तो वह हमारे पापों को बढा देता है। इन कर्मों को करना ही चाहिये। परन्तु हमें केवल इन कर्मों पर केन्द्रीत नहीं होना चाहिये। हमें तोण्डक्कुलम (दास कुल – भगवान और भागवतों के सेवक) भी कहते है। हमारा कार्य इसी स्थिति पर केन्द्रीत रहना चाहिये और हमारा समय भगवान और भागवतों कि सेवा में ही लगना चाहिये।
  • द्वय महा मन्त्र का ध्यान किये बिना समय बिताना विरोधी है। अपने समय का सबसे सही सदुपयोग द्वय महा मन्त्र का उच्चारण कर और उसके दिव्य अर्थों का ध्यान करके करना चाहिये। शरणागति गद्यम में श्रीरंगनाथ भगवान श्रीरामानुज स्वामीजी को आज्ञा करते है कि “द्वयमर्त्तानुसंधानेन सह यावच चरीरपादम अथरैव श्रीरंगे सुकमास्व” –  आप श्रीरंगम में अपने इस जीवन के अन्त तक रहिये और निरन्तर द्वय महा मन्त्र के अर्थों का ध्यान कीजिये। वरवरमुनि दिनचर्या में श्रीदेवराज गुरु (एरुम्बी अप्पा) श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिव्य दैनिक गतिविधियों को प्रणाम करते है। ९वें श्लोक में यह दर्शाते है “मंत्र रत्न अनुसंधान संतत स्फुरिताधरम; तदर्थ तत्व निध्यान सन्नध्द पुलकोध्गमम” – श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के ओष्ट निरन्तर द्वय महा मन्त्र का उच्चारण करते है (जिसे मन्त्र रत्न कहते है – मंत्रों में मणि)। उनका शरीर द्वयम के अर्थों को निरन्तर जपने से स्पष्ट दिव्य प्रतिक्रिया करता है (जो और कुछ नहीं श्रीसहस्रगीति है)। अनुवादक टिप्पणी: यह ध्यान रखना चाहिये कि द्वय महामन्त्र को कभी स्वतन्त्रता से नहीं उच्चारण करना चाहिये – हमें पहिले गुरु परम्परा मन्त्र का ध्यान कर फिर द्वय महा मन्त्र का उच्चारण करना चाहिये।
  • देवतान्तरों के भजन में समय बिताना और भगवान कि पूजा कभी न करना बाधा है। हमें अपना पूर्ण समय भगवान कि पूजा में ही व्यतित करना चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: श्रीभक्तिसार स्वामीजी यह समझाते है कि श्रीवैष्णव वह है जो “मरंतुम पुरम तोला मांतर” – अर्थात वह जो किसी भी कीमत पर कोई देवताओं कि पूजा नहीं करते है। जब हम अपने आचार्य से पञ्चसंस्कार कि दीक्षा लेते है तो आचार्य हमें हमारे भगवान के साथ सम्बन्ध कि पूर्णत: सत्यता बताते है। जैसे एक पत्नी पूर्णत: अपने पति पर ही निर्भर रहती है और किसी से कोई लगाव नहीं रखती है उसी तरह श्रीवैष्णव भी पूर्णत: भगवान पर ही निर्भर रहते है और किसी पर नहीं।
  • सामान्य शास्त्र (वेदों पर सामान्य मार्गदर्शक) में समय बिताना और तात्पर्य शास्त्र (वेदों का तत्व जो तिरुमन्त्र आदि है) को सुनने या ध्यान करने में समय न बिताना बाधा है। सामान्य शास्त्र सत्य कहने को कहता है, धर्म (सही रहना), प्रसाद से पहिले स्नान करना, नित्य कर्मानुष्ठान करना आदि। यह जरूरी है परन्तु अन्तिम लक्ष्य नहीं है। अन्तिम लक्ष्य तो वैष्णव धर्म को समझना और उसका पालन करना है। हम इसी ग्रन्थ में कई पहलू आगे देख चुके है। अनुवादक टिप्पणी: आचार्य हृदयम के कई चूर्णिकाओं में अळगिय मणवाल पेरुमाल नायनार बहुत सुन्दरता से वर्ण धर्मी (वह जो वर्णाश्रम धर्म पर केन्द्रीत है) और दास्य वृत्ति (वह जो भगवान और भागवतों के कैंकर्य पर केन्द्रीत है) के मध्य में भेद समझाते है। वर्ण धर्मी केवल वेद पर केन्द्रीत रहता है और शास्त्र के सबसे उच्च तत्व को नहीं समझता है। दास्य वृत्ति पूर्णत: तिरुमन्त्र (द्वयम और चरम श्लोक भी) पर केन्द्रीत रहता है और शास्त्र के उच्च तत्व को समझता है जो कि भगवान और भागवतों कि नित्य सेवा है। नायनार दास्य वृत्ति को साराग्य (वह जिसने तत्वों को ग्रहण किया है) कहकर बुलाते है, आदियार / तोण्डर (दास), मण्डिनार (जिसे दिव्य देशों के प्रति पूर्ण लगाव है), मिक्का वेधियार (जो शास्त्र में बहुत बड़ा ज्ञानी है) आदि। वह वर्ण धर्मी को शास्त्री (जिसका सामान्य शास्त्र के प्रति लगाव हो) बुलाते है, अन्तणर / मरैयोर (ब्राह्मण / वैधिक), मट्रैयोर (वह जो दिव्य देशों के प्रति अधिक केन्द्रीत न हो), वेधावित (वह जो सामान्य शास्त्र को पढा हो) आदि।
  • सांसारिक आनन्द को कमाने के लिये समय बिताना और व्यर्थ विषयों को सिखना बाधा है। और आत्म कल्याण के लिये समय व्यतित न करना बाधा है। आत्मा के स्वभाव भगवद भागवतों कि सेवा पर केन्द्रीत होना है परंतु सांसारिक धन पर ध्यान केन्द्रीत होना विनाशकारक है।
  • दूसरों को दुख पहूंचाने हेतु समय बिताना परंतु दूसरों कि सहायता करने के लिये समय नहीं देना। “न हिमस्याथ सर्वभूतानि” – शास्त्र का आदेश दूसरों को तकलीफ नहीं पहूंचाना। हमें अपने जीवन को इस तरह प्रबन्ध करना चाहिये कि वह दूसरों को विघ्न न पहूंचाये। यह भी कहा गया है कि “परोपकारार्थम इदं शरीरं” – यह शरीर दूसरों कि सहायता के लिये है। इसे हम कपोत उपाख्यान (कबूतर कि कहानी) जिसे श्रीरामजी ने विभीषण कि शरणागति के समय श्रीरामायण में समझाया था। अनुवादक टिप्पणी: जब विभीषणजी श्रीरामजी के पास समर्पण करने हेतु आए थे तो सुग्रीवजी और अन्य सभी ने श्रीरामजी से विरोध जताया और उन्होंने विभीषणजी को स्वीकार न करने की सलाह दी। उस समय श्रीरामजी ने एक घटना को समझाकर इस बात को स्थापित किया कि अगर विभीषण दुष्ट इरादे से भी उन्हें हानी पहुंचाने के लिये आये है फिर भी कि वह विभीषण को स्वीकार करेंगे। एक जंगल में एक पेड़ पर दो कबूतर रहते थे। वर्षा के दिन एक शिकारी उसी पेड़ के नीचे आ गया जहाँ वे रहते थे। भारी वर्षा के कारण वह शिकारी बहुत समय के लिये उस पेड़ के नीचे फंस गया। बहुत भूख लगने पर वह पेड़ पर उस कबूतर पर निशाना लगाता है। वह उस मादा कबूतर को तीर से मार देता है, और आग में उसे पका कर खा लेता है। वह उस स्थान पर कुछ और समय के लिए फंस जाता है और उस स्थान से जा नहीं सकता है। नर कबूतर जो अपने साथी के खो जाने पर बहुत दुखी था, ऊपर से यह सब देखता है और यह सोचता है “यहाँ मेरे पास एक अतिथी है और भूख से तड़प रहा है, मुझे किसी तरह उसका स्वागत कर उसे कुछ भोजन देना है”। वह कुछ सुखी पत्ती, आदि लाकर उस शिकारी के लिये अग्नि बनाकर और स्वयं उस अग्नि में गिर जाता है और उसे समर्पण कर देता है। हम यह समझ सकते है कि उस कबूतर ने अपना त्याग उस शिकारी कि भूख मिटाने के लिये कर दिया जिसे वह अतिथी समझता था। श्रीरामजी फिर कहते है “अगर में विभीषण को नहीं अपनाता हूँ जो इतने दूर से मेरे शरण में आया है तो यह संसार मुझे उस नर कबूतर से छोटा नहीं समझेगा जिसने यह जानकर के भी कि उस शिकारी ने उसके साथी को मारा उसे अपना अतिथी मानकर स्वयं का बलिदान दिया”। सुग्रीव और अन्य सभी श्रीराम से संतुष्ट होकर विभीषण का स्वागत किया।
  • दूसरे के घरों में भोजन में समय गँवाना और स्वयं के स्थान में नहीं बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: स्वयं के घर के बाहर कुछ भी खाने से पहिले हमें बहुत सावधान रहना चाहिये। अपने घर में हम यह सुनिश्चित कर सकते है कि भोजन पहिले भगवान, आल्वार और आचार्य को अर्पण किया हुआ है। परन्तु बाहर इसको सुनिश्चित करना संभव नहीं है। इसलिये हमारे पूर्वज परान्न नियम का पालन करते थे – दूसरों के हाथों से बनाया हुआ भोजन ग्रहण नहीं करना। केवल एक छुट यह है कि सामान्यत: मन्दिर, मठ, आचार्य तिरुमाली आदि में बना हुआ प्रसाद जो सही नियम से बना हुआ है और भगवान को भोग लगाने के बाद दिया गया है उसे ग्रहण करे।
  • पर-स्त्री के विषय में विचार करने में समय बिताना और स्वयं कि स्त्री के विषय में सोचना भी नहीं बाधा है। सामान्य शास्त्र स्वयं कि स्त्री के साथ समागम समझाता और स्वीकार भी करता है इस भाव से कि सही संतान की प्राप्ति हो सकती है (शास्त्र में समागम के लिये भी बहुत नियम और कानून है)। फिर भी सत सम्प्रदाय के ग्रन्थों जैसे श्रीवचन भूषण में स्वयं की स्त्री के साथ आनन्द से रहना भी अस्वीकार किया गया है – क्योंकि केवल भगवान के सुख के प्रति केन्द्रीत रहना चाहिये, सांसारिक सुख भोगना भी जीवात्मा के सत्य स्वभाव से प्रत्यक्ष विरुद्ध है।
  • दूसरों कि सम्पत्ति चुराने में समय बिताना और स्वयं की संपत्ति को दान न देना बाधा है। हमें जिसको जरूरत है उसको दान देना चाहिये आदि।
  • किसी भी प्रकार का जुआ खेलने में समय व्यतित करना बाधा है।
  • भगवान के विषय में जानकारी लेने में समय नहीं बिताना, उनके स्तुति को नही लिखना, उनके विषय में नहीं पढ़ना, उनके बारें में नहीं सुनना, पूजा नही करना आदि बाधा है।
  • अपने स्वयं कि तिरुमाली में भगवान कि पूजा के लिये सहीं अनुष्ठान के साथ समय नहीं देना, जब भी मौका मिले श्रीवैष्णवों कि सेवा नही करना और दूसरों के घर जाकर गप्पे लगाना आदि बाधा है।
  • बागीचा, पुष्प वाटिका आदि को सही बनाने में समय बिताना और उसकी देख-रेख करना। आधारभूत वस्तु कि आवश्यकताओं का ध्यान रखना एक मात्र लक्ष्य होना चाहिये।
  • हमें उद्यान आदि को अपने आचार्य कैंकर्य के लिये संभाल कर रखना चाहिये। जो आचार्य को आनन्द प्रदान करता है उसे हमें आचार्य कैंकर्य अर्थात भगवद कैंकर्य समझना चाहिये। उदाहरण के लिए श्रीअनन्तालवान स्वामीजी अपने आचार्य निर्देशानुसार तिरुमाला में एक उद्यान का निर्माण कर उसकी देख-रेख कर उसके पुष्प भगवान श्रीवेंकटेशजी को नियमित रूप से अर्पण करते थे। हमें आचार्य तिरुमाली में भी पुष्प आदि अर्पण करना चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: श्रीवेदान्ती स्वामीजी जो कि श्रीपराशरभट्टर स्वामीजी के शिष्य है एक उद्यान का ध्यान रखते थे। एक बार श्रीवेदान्ती स्वामीजी की अनुपस्थिती में श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी के परिवार से किसी ने उद्यान में आकर कुछ पुष्प माँगे। जो उस उद्यान कि देख-रेख कर रहा था उसने यह पुष्प भगवान के लिये है यह कहकर पुष्प देने से इंकार कर दिया। जब श्रीवेदान्ती स्वामीजी को इस विषय का पता चला तो उसी समय उस उद्यान कि देख-रेख करनेवाले को दण्ड देकर कहा यह उद्यान आचार्य और उनके परिवारवालों के आनन्द के लिये बनाया गया है और उनकी इच्छा को हमेशा पूर्ण करना चाहिये। इस घटना को पिन्भळगिय पेरुमाल जीयर के ६००० पदि गुरूपरम्परा प्रभावम में दर्शाया गया है।
  • सभी को आचार्य और उनकी तिरुमाली कि देख-रेख करनी चाहिये – ऐसा न करना बाधा है। आचार्य की शारीरिक आवश्यकता का ध्यान रखे यह शिष्य का कर्तव्य है। हमें यह ध्यान रखना चाहिये कि हमारे आचार्य शारीरिक आवश्यकता के लिये कहीं जाना ना पड़े – शिष्य हमेशा आचार्य के लिए सुलभ हो ताकि उनका ध्यान शिष्य के आध्यात्मिक आवश्यकता कि ओर केन्द्रीत रहे। अनुवादक टिप्पणी: यह तथ्य श्रीपिल्लै लोकाचार्य के श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र में समझाया गया है और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी उपदेश रत्नमाला में इस तत्व को समझाते है।
  • केवल स्वयं के परिवार के पालन पोषण के बारे में समय बिताना और आचार्य के परिवार को अनदेखा करना बाधा है। हमें आचार्य परिवार को स्वयं का परिवार समझना चाहिये और उनकी आवश्यकता को पूर्ण करना चाहिये।
  • अपने स्वयं के शरीर कि ओर अधिक ध्यान देने में समय बिताना और आचार्य के शरीर कि ओर ध्यान न देना। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी उपदेश रत्नमाला के ६५वें पाशुर में शिष्य लक्षण को समझाते है “तेशारूम शिष्यनवन शीर्वडिवै आशैयुडन नोक्कुमवन्” – समझदार शिष्य अपने आचार्य के दिव्य रूप का बड़े प्यार से ध्यान रखेगा।
  • स्वयं के स्नान में समय बिताना और अन्य श्रीवैष्णवों को स्नान आदि करने में सहायता नहीं करना। यह श्रीवैष्णवों कि सेवा करने का महत्त्व कई प्रकार से दर्शाता है।
  • उच्च स्तर का प्रसाद (जैसे दूध, घी आदि) पाने में समय बिताना और ऐसा प्रसाद श्रीवैष्णवों को अर्पण न करना।
  • स्वयं के लिये अच्छे वस्त्र, इत्र आदि लगाने में समय बिताना और भगवान को अर्पण किया हुआ चन्दन का लेप न लगाना, भगवान को अर्पण किया हुआ पुष्प धारण नहीं करना, भगवान को अर्पण किया हुआ वस्त्र धारण नहीं करना आदि बाधा है। हम जिस भी वस्तु का उपयोग करें उसे पहिले भगवान और आचार्य को अर्पण करना चाहिये – हमें केवल उनका प्रसाद स्वीकार कर ग्रहण करना चाहिये।
  • संसार सत्कार में समय बिताना और भगवान के दिव्य घटनाओं का आनन्द न लेना बाधा है। भगवान को मायान् कहते है – उनकी लीलायें हृदय को बहुत अच्छी लगती है। हमें अपना समय ऐसे चरित्र को पढ़ने / सुनने में लगाना चाहिये नाकि सांसारिक आनन्द में समय गवाना चाहिये।
  • देवेतान्तरों कि स्तुति करने में समय बिताना और गलत बाते करना और आल्वार और आचार्य के दिव्य पाशुरों के जरिये भगवान कि स्तुति न करना बाधा है।
  • सामान्य पवित्र नदियों में जाकर समय बिताना और श्रीवैष्णवों का श्रीपाद तीर्थ (चरणामृत – चरण कमलों को धोया हुआ जल) न लेना बाधा है। यहाँ सामान्य पवित्र नदियां अर्थात गंगा आदि। यह बहुत पवित्र नदियां है। परन्तु श्रीवैष्णवों का श्रीपाद तीर्थ सबसे पवित्र है। श्रीसहस्रगीति को भी तीर्थ जैसे ही दर्शाया गया है। श्रीसहस्रगीति के पाशुर 7.10.11में कहा गया है कि “जो श्रीसहस्रगीति के पाशुरों का गान करता है उसे देवता भी पूजते है”। इससे प्रारम्भ कर सामान्य शास्त्र और विशेष शास्त्र के मध्य में भेद कर सकते है। सामान्य शास्त्र का पालन करना जरूरी है। परन्तु विशेष शास्त्र अधिक सूक्ष्म है। हमें यह अपने बड़ों से सही तरिके से ग्रन्थ वाचन कर और उसे कैसे पालन करना है यह सिखना चाहिये। समय समय पर सामान्य शास्त्र/अनुष्ठान का महत्त्व लुप्त होता दिखता है। परन्तु इसका यह मतलब नहीं है कि इसका पूर्णत: त्याग करना चाहिये। इसका उद्देश केवल विशेष शास्त्र का महत्त्व दर्शाना है।
  • केवल पुण्य क्षेत्रों (जैसे काशी, गया आदि) में जाने में समय बिताना और भगवद क्षेत्रों में न जाना बाधा है। श्रीरंगम, तिरुमाला, काञ्चीपुरम, तिरुनारायणपुरम आदि विशेष क्षेत्र है जो अपने आल्वार और आचार्य को प्रिय है। श्रीरंगनाथ भगवाम स्वयं श्रीरामानुज स्वामीजी को अपना शेष जीवन श्रीरंगम में बिताने को कहते है हम इस बात को स्मरण कर सकते है।
  • सामान्य कविता, नाटक आदि जो केवल बुनियादि इतिहास है उसमें समय बिताना और श्रीरामायण जो भगवद पवित्र काव्य है में समय नहीं बिताना। सामान्यत: सामान्य कविता ज्ञान का स्वामी होने के लिये शिक्षा ली जाती है। परन्तु श्रीरामायण को आदि काव्य (पहली ऐतिहासिक कविता) कहते है। श्रीरामजी का जीवन जैसे है वैसे ही लिखने कि दिव्य कृपा वाल्मीकि ऋषि पर हुई थी। इसे विशेष शास्त्र भी कहते है। अनुवादक टिप्पणी: श्रीरामायण को शरणागति शास्त्र कहते है – जिसके कई उदाहरण है। हमारे पूर्वाचार्यों ने श्रीरामायण के व्याख्यान से कई उदाहरण लेकर कई तत्वों को स्थापित किया है। श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी, विशेषकर श्रीरामायण के महान विद्वान थे। श्रीपेरियावाच्चान पिल्लै ने श्रीरामायण के मुख्य श्लोकों पर बडी गहराई से व्याख्या लिखी है और इन श्लोकों को श्रीरामायण तनिश्लोकं कहते है।
  • इतिहास और पुराण के ग्रन्थों को पढ़ना या चर्चा करने में समय बिताना और दिव्य प्रबन्धों को नही पढ़ना और उनकी चर्चा नहीं करना बाधा है। इतिहास (श्रीरामायण, महाभारत) और पुराण (विष्णुपुराण, श्रीभागवत आदि) को पढ़ना चाहिये परन्तु वहाँ रुकना नहीं चाहिये। हमें आल्वार और उनके दिव्य प्रबन्धों समझना चाहिये और उसे पूर्ण समय देना चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी कि बढाई अपार है। श्रीपेरियावाच्चान पिल्लै (जिन्हें व्याख्यान के चक्रवर्ती कहते है) पेरिय तिरुमोलि के व्याख्यान में “ओथुवाय्मैयुं” में श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी कि बड़ी सुन्दरता से बढाई करते है। यहाँ श्रीपेरियावाच्चान पिल्लै के स्वयं के शब्द है: मुरपड द्वयत्तैक केट्टू, इतिहास पुराणन्गलैयुं अधिकरित्तु, परपक्ष- प्रतिक्षेपत्तूक्कुदलाग न्याय मीमांसैगलै अधिकारित्तु, पोतु पोक्कुम अरुलिच्चेयलिलेयाम्पडि पिल्लैयैप्पोले अधिकरीप्पिक्क वल्लनैयिरे ‘ओरुत्तन’ एन्बतु। यहाँ इस पाशुर में श्रीपरकाल स्वामीजी सांदीपनी मुनि कि बढाई करते है जो भगवान कृष्ण के आचार्य है। आचार्य कैसे हो यह समझाने के लिये श्रीपेरियावाच्चान पिल्लै, श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी के गुणों को दर्शाते है और यह दिखाते है कि वे निपुण आचार्य है। एक सच्चे आचार्य को श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी के जैसे होने चाहिये जो अपने शिष्य को पूरी तरह शिक्षा प्रदान कर सके – पहिले द्वय महामन्त्र का अर्थ सुनकर, फिर इतिहास और पुराण को सिखकर, फिर न्याय, मीमांसा सिखकर आदि अन्य सिद्धान्तों को समझकर और अपना स्वयं का सिद्धान्त को स्थापित करना और स्वयं का समय आल्वारों के दिव्य प्रबन्ध और उनके अर्थों के बारें में चर्चा करने में बिताना। उसी तरह श्रीशैलपूर्ण स्वामीजी, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी को श्रीभाष्य को एक बार सिखने कि और पूर्ण जीवन श्रीसहस्रगीति और उसके व्याख्या के प्रचार प्रसार करने कि आज्ञा करते है। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी पूरी निष्ठा के साथ अपने आचार्य कि आज्ञा का पालन करते है और अन्त में “इट्टुप् पेरुक्कर” यह नाम पाते है – वह जिन्होंने श्रीकलिवैरीदास स्वामीजी द्वारा रचित तिरुवाय्मौली के इदु व्याख्यान का प्रसार किया।
  • पूर्व पक्ष के ग्रन्थों में समय व्यतित करना और अपने सिद्धान्त के ग्रन्थों पर थोड़ा समय भी न देना बाधा है। पूर्व पक्ष के ग्रन्थ अर्थात अन्य मतों के ग्रन्थ। उन्हें सिखना भी जरूरी है और दूसरों के तर्क को सिखना और समझना जरूरी है ताकि हम स्पष्टता से अपने सिद्धान्त को स्थापित कर सके। परन्तु अपने सत सम्प्रदाय को छोड़ निरन्तर केवल अन्य सिद्धान्तों के ग्रन्थ का वाचन करना बहुत बड़ी गलती है। हमें जो विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त को संबोधित करता है ऐसे श्रीरामनुज दर्शन में डुब जाना चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: हमने यह देखा कि श्रीरामानुज स्वामीजी ने पूर्व पक्ष को यादव प्रकाश के सन्निधी में पढ़ा – परन्तु अन्त में विशिष्टाद्वैत सिद्धान्त को स्थापित किया और यादव प्रकाश को समझाकर और अपने शिष्य रूप में स्वीकार किया। हमने यह घटना भी देखी जहाँ श्री कुरेश स्वामीजी (उनके बचपन में) थोड़े समय के लिए बाह्य ग्रंथ (जो वेद को प्रमाण नहीं मानते) का व्याख्यान सुनते है और उसी वजह से घर देरी से पहुंचते है तब उनके पिताजी श्रीकुरेश स्वामीजी को श्रीपाद तीर्थ से शुद्ध करके ही अंदर आने की अनुमति देते है।
  • बिना अपने सदाचार्य कि सेवा किये केवल भगवद सेवा में समय बिताना यह बाधा है। भक्ति और कैंकर्य भगवान के प्रति प्रथम नियम है। यही आचार्य के प्रति अन्तिम नियम है। इस प्रशंसा को मधुरकवि निष्ठा (मधुरकवि आलवार अपने आचार्य श्रीशठकोप स्वामीजी के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित थे) और श्रीआन्ध्रपूर्ण पड़ी (श्रीआन्ध्रपूर्ण स्वामीजी जो हमेशा अपने आचार्य श्रीरामानुज स्वामीजी कि सेवा करते थे) कहते है। इसे श्रीवरवरमुनि स्वामीजी अपने उपदेशरत्नमाला के ६० और ६६ पाशुर में विस्तार से समझाते है। अनुवादक टिप्पणी: आचार्य निष्ठा को समझने के लिये कृपया अंतिमोपाय निष्ठा (http://ponnadi.blogspot.in/p/anthimopaya-nishtai.html) और चरमोपाय निर्णय (https://srivaishnavagranthamshindi.wordpress.com/charamopaya-nirnaya/) को पढे।

-अडियेन केशव रामानुज दासन्

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