कृष्ण लीलाएँ और उनका सार – ३२ – सान्दीपनि मुनि के गुरुकुल में वास करना

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद् वरवरमुनये नमः श्रीवानाचलमहामुनये नमः

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वसुदेव जी ने अपने कुलगुरु (कुल के आचार्य (मार्गदर्शक)) से विचार-विमर्श करके श्रीकृष्ण और बलराम के उपनयन संस्कार करने की तिथि निश्चित की।उसी तिथि को श्रीकृष्ण और बलराम का उपनयन संस्कार हुआ। तत्पश्चात् वे वहाँ गुरु के निर्देशानुसार शास्त्र सीखने के लिए रहे। सान्दीपनि मुनि जो अवन्ति के सर्वश्रेष्ठ गुरु थे उनके पास श्रीकृष्ण जो सर्वेश्वर हैं, जो सभी वेदों के प्रतिष्ठित हैं, जो सम्पूर्ण सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा को वेदों का ज्ञान देते हैं उस श्रीकृष्ण बलराम सहित को उन्हीं से शास्त्र सिखाने के लिए अनुरोध किया। उन्होंने उनके दिव्य स्वरूप को देख आनन्दपूर्वक ६४ दिनों में शास्त्र के ६४ भागों का ज्ञान दिया। श्रीकृष्ण और बलराम सुदामा जैसे छात्रों के साथ शास्त्र सीखने के लिए गुरुकुल में पूर्ण समर्पण के साथ रहे और शास्त्रविशेषज्ञ बने।

गुरु से ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् दक्षिणा देने हेतु श्रीकृष्ण और बलराम गुरु के पास गये और पूछा, “कृपया आप अपनी आवश्यकता के अनुसार बताएँ हम उसकी प्राप्ति करेंगे।” यदि उन्होंने मोक्ष भी माँगा होता तो श्रीकृष्ण सहर्ष देना स्वीकार करते। परन्तु उन्होंने अपनी भार्या से विचार कर अपने पुत्र को लौटाने के लिए अनुरोध किया जो बहुत समय पहले समुद्र में डूबने के कारण मृत्यु को प्राप्त हुआ। श्रीकृष्ण उसी समय समुद्र तट पर पहुँचे और खोजना आरम्भ किया। वहाँ समुद्रराजन नामक समुद्र का राजा उपस्थित हुआ और बताया कि शंख के आकार वाला पंचसनन नामक राक्षस ने उस मुनिपुत्र को निगल लिया है। श्रीकृष्ण ने उस राक्षस जिसने उस मुनिपुत्र को निगल लिया था खोजना आरम्भ किया परन्तु वह नहीं मिला। तत्पश्चात् श्रीकृष्ण यमलोक में गये और उस मृत बालक को पुनः जीवित करने का अनुरोध किया और अनुरोध से बाध्य यम ने उस बालक को पुनः जीवित किया और मुनि को सौंप दिया।

तत्पश्चात् वे अपने नगर लौट आए।

तिरुमङ्गै आऴ्वार् ने अपने पेरुमाळ् तिरुमोऴि में सान्दीपनि मुनि की छत्रछाया में श्रीकृष्ण के द्वारा अध्ययन करने का वर्णन किया है, “ओदु वाय्मैयुम् उवनियप् पिऱप्पुम् उनक्कु मुन् तन्द अन्दणन् ऒरुवन्” (महात्मा सान्दीपनि मुनि ने आपको उपनयन संस्कार और वेदज्ञान के माध्यम से दूसरा जन्म दिया है)। “अन्दणन् ऒरुवन्” इस प्रबन्ध की पॆरियवाच्चान् पिळ्ळै ने व्याख्या (टिप्पणी) की कि सान्दीपनि मुनि नम्पिळ्ळै (पॆरियाच्चान् पिळ्ळै के आचार्य) के जैसे एक महान आचार्य हैं।

सार:-

  • हम अपनी इच्छानुसार भगवान को कुछ भी समर्पित कर सकते हैं परन्तु आचार्य को उनकी इच्छानुसार ही दक्षिणा देनी चाहिए।
  • भगवान ‌स्वाभाविक सर्वज्ञ होते हुए भी एक उच्च आदर्श को स्थापित करने हेतु विनम्रता पूर्वक आचार्य के प्रति पूर्ण समर्पित होकर ज्ञान प्राप्त किया और यही ज्ञान प्राप्त करने का नियम उचित है।
  • भगवान को ज्ञान देने वाला जो शारीरिक संबंध से जुड़ा है वह भगवान प्राप्ति के अवसर को खो देता है।

अडियेन् अमिता रामानुजदासी

आधार: https://srivaishnavagranthams.wordpress.com/2023/10/09/krishna-leela-32/

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