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विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन) – ५

श्रीः  श्रीमते शठकोपाय नमः  श्रीमते रामानुजाय नमः  श्रीमद्वरवरमुनये नमः  श्रीवानाचलमहामुनये नमः  श्रीवादिभीकरमहागुरुवे नमः

श्रीवैष्णवों को अपने दैनिक जीवन में कैसी चुनोतियों का सामना करना पड़ता है इसका उपदेश श्रीरामानुज स्वामीजी ने वंगी पुरुत्तु नम्बी को दिया । वंगी पुरुत्तु नम्बी ने उसपर व्याख्या करके “विरोधि परिहारंगल” नामक ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत किया । इस ग्रन्थ पर अँग्रेजी में व्याख्या श्रीमान सारथी तोताद्रीजी ने की है उसके आधार पर हम लोग हिन्दी में व्याख्या को देखेगें । इस पूर्ण ग्रन्थ की व्याख्या को हम लोग https://srivaishnavagranthamshindi.wordpress.com/virodhi-pariharangal/ यहाँ पर हिन्दी में देखे सकते है ।

<– विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन) – ४

२४) स्वस्वरूप विरोधी – जीवात्मा का सत्य स्वभाव समझने में बाधाएं

भागवत शेषत्वम – जीवात्मा का अंतस्थ स्वभाव

स्वस्वरूप यानि जीवात्मा का सत्य स्वभाव। जीवात्मा ज्ञान से बना है ऐसा समझा जाता है और उसमे ज्ञान, शेषत्व और पारतंत्र्य है। ज्ञान यानि विध्या। जिसके पास ज्ञान है उसे जैसे है वैसे समझना चाहिये। इस विषय में हम बाधाएं देखेंगे।

  • किसी भी वस्तु में ज्ञान (सत्य ज्ञान), ज्ञान अनुधयं (ज्ञान का अभाव ज्ञान रहित स्थिति), अन्यथा ज्ञान (वस्तु के गुण को नासमझना – शंख को पीले रंग का मानना) और विपरीत ज्ञान (वस्तु को हीं नहीं समझना – स्तम्भ को मनुष्य समझना)। इन ज्ञान में अनुधयं ज्ञान, अन्यथा ज्ञान और विपरीत ज्ञान बाधाएं है। अनुवादक टिप्पणी: इसे हम उदाहरण सहित समझेंगे।
  • ज्ञान अनुधयं – यह नहीं जानना कि आत्मा सचेतन है (ज्ञानी) और शरीर से भिन्न है (असचेतन) यह सम्पूर्ण ज्ञान के अभाव कि परिस्थिति है।
  • अन्यथा ज्ञान – यह मिथ्याबोध में रहना कि आत्मा भगवान श्रीमन्नारायण को छोड़ देवताओं का दास है यह परिस्थिति आत्मा के शेषत्वम को मिथ्याबोध समझना है।
  • विपरीत ज्ञान – जीवात्मा को स्वतंत्र समझना मिथ्याबोध है यह जीवात्मा के स्वयं के स्वभाव को मिथ्याबोध है।
  • जब भगवान जीवात्मा में रस लेते है और अगर वह जीवात्मा के शेषत्व को जीतते है यानि अगर वह जीवात्मा को उच्च स्थान पर रखते है और स्वयं नीचा स्थान ग्रहण करते है और जीवात्मा कि सेवा करने का प्रयत्न करते है जीवात्मा को पीछे नहीं हटना चाहिये यह विचार कर कि उसे हमेशा भगवान का दास बनकर रहना है जो शेषत्व की छटा दिखाता है। ऐसे पीछे हटना विरोधी है और भगवान के आनन्द में बाधा है। शेषत्व यानि भगवान का दास बनकर रहना और उनकी सेवा करने में तत्पर रहना। उदाहरण के तौर पर हमारे पारम्पारिक जीवन शैली में यह देखा जाता है कि स्त्री अपने पति कि बहुत तरिके से सेवा करती है। परन्तु अगर पति अपने विशेष प्रेम और स्नेह को छोड़ अपनी पत्नी कि सेवा करता है तो उस पत्नी को इससे पीछे हटकर “नहीं आप मेरी सेवा नहीं कर सकते है मुझे आपकी सेवा करना चाहिये” ऐसा नहीं कहना चाहिये – जिसे अपनी पत्नी कि सेवा करने में बहुत आनन्द आता है ऐसे पति के आगे यह बाधा है। परमात्मा और जीवात्मा के मध्य में पति पत्नी का सम्बन्ध है। इस मत से जीवात्मा (जो पत्नी है) को भगवान कि सेवा करनी चाहिये। परन्तु अगर भगवान को जीवात्मा कि सेवा कर आनन्द प्राप्त करना है तो जीवात्मा को भगवान के आनन्द को ध्यान में रखकर इसे सुगम करना चाहिये। इसी तत्त्व को श्रीपिलै लोकाचार्य स्वामीजी ने मुमुक्षुपड़ी के ९२ सूत्रं वही शब्दो के साथ समझाया है जैसे यहाँ इस व्याख्या में समझाया गया है।
  • शेष (दास) यानि वह जो शेषी (स्वामी) के कीर्ति को बढ़ाता है। पारतंत्रीयं यानि स्वामी के पूर्ण अधिकार में रहना जैसे अचित (अनुवादक टिप्पणी: अगर कोई अपनी घड़ी को मेज पर रखता है या हाथो पर बांधता है तो सामान्यत: वह घड़ी अपने मालिक से कभी प्रश्न नहीं करेगी – जीवात्मा को भी भगवान के प्रति ऐसे हीं रहना चाहिये)। परन्तु पिछले बात कि तरह जब भगवान को जीवात्मा से आनन्द लेना हो तो बिना प्रतिक्रिया के जीवात्मा पत्थर बनकर रह नहीं सकता है। भगवान के आनन्द को बढाने के लिये जीवात्मा को सही तरीके से उत्तर देना चाहिये है। ऐसा न करना विरोधी है। (अनुवादक टिप्पणी: जब श्रीसुदामाजी भगवान कृष्ण को देखने जाते है तब भगवान सुदामाजी कि चरण सेवा करते है और बहुत अच्छी तरह सुदामाजी का खयाल करते है जिसके लिये सुदामाजी तैयार हो जाते है क्योंकि यह भगवान को आनन्द दे रहा है। उसी तरह जब भगवान को श्रीशठकोप स्वामीजी कि सेवा करने कि इच्छा हुयी तब उन्होंने आल्वार के दाहिना चरण लिया और बहुत आनन्द से उनकी चरण सेवा करने लगे। शुरु में आल्वार व्याकुल हो गये परन्तु फिर उन्हें पता चला कि भगवान को क्या चाहिये। इसलिये बादमें उन्होनें अपना दाहिना चरण निकालकर बांया चरण भगवान के सामने रखा। भगवान को बहुत आनन्द आया और उनकी खुशी दुगनी हो गयी। इसलिये जो भगवान के दासों के कार्य को जवाब नहीं देता है और स्वयं के पारतंत्रीयं को बताता यह विरोधी है।
  • भागवत शेषत्व को दूसरा दर्जा देना (और भगवद शेषत्व को पहिला स्थाना देना) बाधा है। हम स्वाभाविक तरिके से भगवान के दास है। इसे आगे और स्पष्ट कर भागवतों के दासत्व कि उन्नति की और बढ़ना चाहिये। जब कोई उन्हें जोड़ उनके दासों कि सेवा करता है तो भगवान स्वयं यह पसन्द करते है । इसलिये भागवत शेषतत्व का महत्त्व कम है ऐसा नहीं समझना चाहिये। ऐसा समझना विरोधी है।
  • यही बात आचार्य के विषय में भी लागु होती है। अनुवादक टिप्पणी: सभी को अपने आचार्य के प्रति पूर्ण समर्पण होना चाहिये और उनकी हर स्थिति में सेवा करनी चाहिये। श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी श्रीवचन भूषण मे पूर्ण समर्पण होने का महत्त्व दर्शाते है। श्रीवरवर मुनि स्वामीजी इसका मूल तत्त्व उपदेश रत्न माला में बताते है।

२५) पर स्वरूप विरोधी – भगवान के सत्य स्वभाव को समझने में बाधाएं

एक जिसे गरुड आल्वार ने उठाया है (वह जो वेदात्मा नाम से पुकारे जाते है) वही परम श्रेष्ठ भगवान है।

परस्वरूप यानि परमात्मा का सत्य स्वभाव। भगवान श्रेष्ठ, सब जाननेवाला, सर्वशक्तिमान, सारे संसार के स्वामी, जो दोषरहित है और जो सभी शुभ गुणों से भरा है। इस विषय में हम बाधाएं देखेंगे।

  • एक विषय के लगाव में और सांसारिक आनन्द में लगे रहना बाधा है। यह प्रकृति परदे के जैसे है जो भगवान के सत्य स्वभाव को छुपाता है। प्रकृति तीन गुणों से बनी है – सत्व, रजो और तमो गुण। शारीरिक आनन्द का दास बनकर रहना हमें भगवान से दूर करेगा। जब किसी व्यक्ति के शरीर में सत्व गुण बढ़ता है तो यह शरीर भगवान का स्वभाव समझने में बहुत प्रभावशाली होता है। परन्तु जब रजो / तमो गुण बढ़ता है तो भगवान से दूर लेकर जाता है। अत: शरीर के आनन्द का दास बनकर रहना विरोधी है।
  • सांसारिक सोचवाले मनुष्य को उच्च समझना बाधा है। उसी प्रकार देवता जैसे ब्रम्हा, रुद्र आदि भी जन्म मरण के चक्कर में फँसे है। श्रीभक्तांघ्रिरेणु स्वामीजी तिरुमालै के 10वें पाशुर में कहते है “नाट्टिनान देय्वम एडगुम ताने” सभी देवता को निर्धारित कार्य दिया गया है और उन्हें श्रेष्ठ माना भी नहीं जा सकता है।
  • यह विचार नहीं करना कि “यह देवता भी भगवान से हीं नियंत्रण किये गये है”। सभी जन भगवान के पूर्णत: आधीन है। ऐसा विचार न करना बाधा है।
  • भगवान कि सौलभ्य को देख उनकी श्रेष्ठता पर संदेह करना बाधा है। वात्सल्य, सौलभ्य, सौशिल्य आदि भगवान के सबसे इच्छुक गुण है। इन्हें बहुत प्यारा समझना। परन्तु अगर कोई यह विचार करता है कि “क्योंकि भगवान बिना कष्ट से प्राप्त होते है वह भी मेरे जैसा होना चाहिये” यह बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: भगवान श्रीकृष्ण गीताजी में कहते है (९॰११) “अवजानन्ति माम् मूद…” – मूर्ख पुरुष मुझे मनुष्य समझते है (मेरे अवतार के समय) और वह मेरी श्रेष्ठता को नहीं समझते है।
  • भगवद विषय में अज्ञान और अन्यता ज्ञान होना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: हमें भगवान के परत्वम और सौलभ्य को अच्छी तरिके से समझना चाहिये। सही तरीके से नहीं समझना हमे भगवद अपचार कि और ले जाता है।

२६) स्वानुभव विरोधी – स्वयं को अनुभव करने में बाधाएं

स्वानुभव यानि स्वयं के आत्मा के अनुभव / आनन्द एक निर्मल स्थिति में लेना। हालाकि भगवान के अनुभव / आनन्द से भी यह कम है फिर भी आत्मानुभव को आनंददायक समझा गया है। आत्मा जो सांसारिक शरीर में बंधा है वह स्वयं भी आत्मानुभव में बाधा है। इसमें बाधा इस प्रकार है:

  • देह वासना से आनन्द प्राप्त करना विरोधी है। हमारे पिछले देह आनन्द के अनुभव जो इंद्रियों से प्राप्त हुए उसका जो प्रभार है वह सत्य अनुभव के साथ भी रहेगा। यह वासना बहुत घातक है और यह हमें रुचि की ओर ले जाता है। अनुवादक टिप्पणी: वासना कम चेतन की छाप है और रुचि जान बूझकर उत्पन्न किया हुआ है।
  • प्रसन्नता / स्मरण उनसे जो इस शरीर से सम्बधीत है – पत्नी, बच्चे, धन, आदि बाधा है और आत्मनुभव को सीमित करता है।
  • रुची जो वासना से उत्पन्न हुई है विरोधी है। सामान्यत: कहा जाता है कि “बिल्ली जिसने दूध को चखा है उसे फिरसे चुराने के लिये लौट कर आयेगी”। अनुवादक टिप्पणी: एक बार हमारा शरीर प्रसन्नता और सुख का रस लेता है तो उसे छोड़ना बहुत कठिन हो जाता है और इंद्रियों पर नियंत्रण करना मुश्किल हो जाता है। इसलिये हमारे ऋषी मुनियोंने हमे त्याग भावना सिखाई नाकि इंद्रियों के लिये प्रसन्न होना। कितना भी प्रसन्न हो इच्छायें कभी भी पूर्ण नहीं होती बल्कि वह इच्छाओं को और बढ़ाती है।

२७) परानुभव विरोधी परमात्मा का अनुभव करने में विरोधी

अर्चावतार – तिरुक्कुरुंगुड़ी नम्बी – सबसे अधिक मोहित करनेवाले

परानुभव यानि सच्चे तरिके से समझना और भगवान के स्वरूप, रूप, गुण, विभुति का अनुभव करना। भगवान के पाञ्च प्रकरण (रूप) है – पर, व्यूह, विभव, अंतर्यामी और अर्चा अवतार। इन सब में अर्चा अवतार को हीं हमारे इंद्रिया अनुभव कर सकती है जैसे श्रीपरकाल स्वामीजी तिरुनेडुन्दाण्डगम के पाशुर में कहा है “पिन्नानार वणंगुम ज्योति” – तो आनेवाली पीढ़ी पुजा करेगी (विभव अवतार के पश्चात श्रीकृष्ण भगवान से समाप्त होकर)। अब बाकि सब मानस साक्षात्कार से अनुभव किया जा सकता है। अनुभव भगवान के प्रति प्रेम कि ओर ले जाता है। यह प्रेम भगवान के प्रति प्रेम सेवा कराता है। यह सभी अनुभव के भाग है – ऐसे अनुभव में जो भी अडचन है वह विरोधी है। इस विषय में हम बाधा देखेंगे।

  • स्वयं पर केन्द्रित कार्य विरोधी है। सहस्त्रगीति में श्रीशठकोप स्वामीजी कहते है “अन्नाळ् नी तन्त आक्कैयिन् वळि उळल्वेन्” – मैं इस शरीर और इंद्रीयों के पीड़ा से दुखीत हूँ जो मुझे आप से प्रदान हुए हैं। शरीर और इंद्रीयों का उपयोग कर उपर बढ़ने को छोड़, स्वयं पर केन्द्रित कार्य पर उपयोग करना भगवद अनुभव में बाधा है।
  • भगवान के दिव्य गुणों से ईर्ष्या करना विरोधी है। स्वयं के अनगिनत पापों को छोड़ भगवान के गुणों से द्वेष करना विरोधी है जैसे शिशुपाल, दुर्योधन आदि ने किया। यह विरोधी है।
  • दूसरे संसारी (जो भूत ग्रस्त है) के बारे में सुनकर शोक हरण करना विरोधी है।
  • उसके श्रेष्ठता से अभिमत होना और उसे छोड़ना विरोधी है। श्रीपरकाल स्वामीजी तिरुनेडुन्दाण्डगम के पाशुर में कहा है “अवरै नाम देवर एन्रञ्जिनोमे मैं यह सोच कर डर गया कि वह श्रेष्ठ है। परन्तु आल्वार के अनुसार उनमें और भगवान के मध्य में यह श्रेष्ठ वार्तालाप है – यह सोच के बाहर है परन्तु सामान्यत: यह सुझाव किया गया है कि भगवान के श्रेष्ठता के प्रति संतुष्ट होना और भगवान से दूर जाना बाधा है।

२८) संस्लेश विरोधी जीवात्मा का परमात्मा के साथ समागम होने में विरोधी

संस्लेश यानि भगवान के साथ अनुभव करना। यह मन का अनुभव हो सकता है या प्रत्यक्ष अनुभव। भगवान के साथ दोनों का अनुभव करने को संस्लेश कहा गया है। यह परानुभव के समान विषय है। हम इस विषय में बाधायें देखेंगे।

  • भगवान के श्रेष्ठता से अभिमत होना और उनके साथ को छोड़ना विरोधी है। पिछले विषय में चर्चा हो गयी है।
  • यह सोच कर कि आत्मा का महत्त्वपूर्ण नहीं भगवान के गुणों से संतुष्ट होना और उनके साथ से दूर होना यह बाधा है। इसे इस तरह समझाया गया है कि कम महत्त्व वाली आत्मा भगवान से जुड़े तो भगवान के गुण कम होंगे और ऐसे विचार किसी को भी भगवान से सम्बन्ध रखने में बाधा होंगे। इस दशा को “वलवेझुलगु तलैयेदुत्ताल” कहते है। सहस्त्रगीति में श्रीशठकोप स्वामीजी कहते है “अडियॅ चिरिय ज्यानत्तन्, अरितलार्क्कुम् अरियानै – कण्णनै – अडियॅ काण्बान् अलट्रुवन्, इतनिल् मिक्कोर् अयर्वुण्डे” – मैं बहुत अज्ञानी हूँ और बड़े साधुओं को भी उनके दर्शन प्राप्त करना मुश्किल है और भगवान ने कृष्ण का अवतार लिया। मैं उनके दर्शन प्राप्त हेतु रो रहा हूँ। इससे बड़ा मूर्खता का कार्य और क्या है? भगवान और आल्वारों के बीच की ऐसी वार्तालाप को उनके मध्य में बहुत प्रेम ऐसा समझा जाता है। परन्तु हमारे लिये, हमे अपने आप में दोष देखकर भगवान से सम्बन्ध को नहीं तोड़ना है।
  • बिना माता लक्ष्मीजी के पुरुषकार के भगवान के निकट जाना विरोधी है। भगवान स्वतन्त्र है और किसी के नियंत्रण में नहीं है। अगर हम उनके समीप सीधे जाते जैसे श्रीशठकोप स्वामीजी श्रीसहस्त्रगीति में कहते है “एन् पिळैये निनैन्तु अरुळात तिरुमाल्” – केवल मेरे दोष देख भगवान श्रीमन्नारायण मुझ पर कृपा नहीं करते है, भगवान हमारे कर्मानुसार फिर से संसार में डाल देंगे। परन्तु अगर हम माता लक्ष्मीजी के पुरुषकार के साथ जायेंगे तो हमारी इच्छा पूर्ण होगी। पुरुषकार यानि सिफारिश। वो जो हम सब कि माता है चाहती है कि भगवान हम सब कि गलतियों को माफ करें (वैसे हीं एक पिता माँ के कहने पर अपने ब्च्चों को क्षमा कर देता है)। यह पुरुषकार अम्माजी का स्वभाव है और इसका तिरस्कार करना विरोधी है। अनुवादक टिप्पणी: इस संसार में आचार्य अम्माजी को संबोधित करते है और हमें भगवान के निकट ले जाते है।
  • यह सोचना कि भगवान को प्राप्त करना बहुत कठिन है और उनके सम्बन्ध से दूर जाना विरोधी है। अनुवादक टिप्पणी: हालाकि जो स्वयं के बल पर निर्भर रहते है उनको भगवान कि प्राप्ति मुश्किल है परन्तु जिसने आचार्य के माध्यम से पूर्णत: भगवान कि शरणागति कर ली है उसके लिये बहुत आसान हो जाती है।

२९)विश्लेश विरोधी – जीवात्मा के परमात्मा से बिछड़ने में बाधाएं
विश्लेश यानि कोई प्रिय से बिछड़ना। इस व्याख्यान से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि विश्लेश स्वयं बाधा है।

 

श्रीशठकोप स्वामीजी – श्रीरंगम

 

  • अधिक उपासना न करना या जुदाई के समय साधारण रहना विरोधी है। “भक्ति पार्वस्यं” (भगवान के भक्ति में पूर्णत: भिगना) को “परगुणाविश्ता” (भगवान के गुण प्राप्त करना) ऐसा समझा जाता है, श्रीशठकोप स्वामीजी कि पेरिया तिरुवंदादि के ३४वें पाशुर में “काल आलुम नञ्जलियुम” (चरण अपने आप खड़े नहीं होते, हृदय पूर्णत: पिघल जाता है) और श्रीशठकोप स्वामीजी श्रीसहस्त्रगीति में कहते है “कन्गुलुम् पगलुम् कण्तुयिलऱियाळ् कण्ण नीर् कैगळालिरैक्कुम् – एन्गने दरिक्केन् उन्नै विट्टु(श्रीशठकोप स्वामीजी कि माता अपनी पुत्री के बारें में कहती है “मेरी पुत्री दिन रात सो नहीं पाती और निरन्तर रोती हुई यह विचार करती रहती है कि किस तरह बिना श्रीरंगनाथ के रहूँगी”)। बिछड़ने के समय कष्ट भोगने कि परिस्थिती को पार्वस्यं कहते है। भगवान से बिछड़ने के समय बिना कष्ट भोगे साधारण रहना विरोधी है।
  • भगवान श्रीकृष्ण भगवद्गीता (१०.९) में कहते है “मच्चित्ता मद्गत प्राणा बोधयन्तः परस्परम् । कथयन्तश्च माम् नित्यम् तुष्यन्ति च रमन्ति च ॥” – मेरे भक्त निरन्तर मेरा स्मरण करते है, वह मुझे अपना जीवन समझते है और मेरे कार्य को आपस में चर्चा करते है। ऐसी मेरी श्रेष्ठ चर्चा से उन्हें (दोनों बोलनेवाले और सुननेवाले को) बहुत आनन्द और खुशी प्राप्त होती है। यह बटवारे और भगवान के चर्चा के कार्य और स्तुति, संतुष्ट और आनन्दमय रहने को सामान्यत: “बोधयंत: परस्परम” कहते है।
  • यह बहुत अभिलाषी है। ऐसी चर्चा में जो भाग लेते है उन्हें “उचाट तुणै” कहते है। वह सब के हृदय में बिछड़ने का दुख को दूर करेंगे। ऐसे भरोसा रखने वाले मित्र से बिछड़ते समय भगवद विषयम में चर्चा नहीं और दुख बढता है और वह बाधा है। श्रीशठकोप स्वामीजी श्रीसहस्त्रगीति में कहते है “चेन्जुडर्त् तामरैक्कण् चेल्वनुम् वारानाल् – नेन्जिडर् तीर्प्पार् इनियार्? निन्रु उरुगुगिन्रेने” – जब लाल कमल नयन वाले भगवान नहीं आते है तो मैं पूर्णत: बिछड़ने के दुख में पिघल जाता हूँ। कौन मेरे हृदय से दुख को निकालेगा?

अडियेन केशव रामानुज दासन्

आधार: http://ponnadi.blogspot.in/2013/12/virodhi-pariharangal-5.html

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