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श्रीवचन भूषण – अवतारिका – भाग २ 

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचल महामुनये नम:

पूरी श्रृंखला

पूर्व

अवतारिका के अगले भाग में हम अब आगे बड़ते हैं। इस अवतारिका के खंड में श्रीवरवरमुनि स्वामीजी इस प्रबन्ध के लिये दो प्रकार के वर्गीकरण (६ खंड और ९ खंड) बताते हैं। 

श्रीपिळ्ळैलोकाचार्यर्, श्रीवरवरमुनि स्वामीजी – श्रीपेरुम्बुतूर्

पहिले हम देखेंगे कैसे इस प्रबन्ध को ६ खंड में वर्गीकृत किया गया हैं: 

इस प्रबन्ध में “वेदार्थम अऱुदियिडुवदु” से प्रारम्भ कर (सूत्र १) “अत्ताले अदु मुऱपट्टदु” (सूत्र ४) तक प्रमाण (ज्ञान का स्रोत) कि प्रामाणिकता स्थापित हो जाती हैं। इस तरह यह खंड इस प्रबन्ध कि अवतारिका हैं। 

(५ सूत्र) “इतिहास श्रेष्ठ” से (सूत्र २२) “प्रपत्ति उपदेशम पण्णिट्रुम इवळुक्काग” तक पुरुषकार वैभव और उपाय वैभवम कि चर्चा होती हैं। अम्माजी कि भूमिका पुरुषकार का हैं ऐसा समझाया गया हैं – जीवात्मा जो दोषो से भरे हैं उन्हें देखकर अम्माजी निरन्तर भगवान को उनके दया के स्वभाव को स्मरण कराती हैं और जो उनके शरण हुए हैं उनका उद्धार करने को कहती हैं। यह खंड भगवान उपाय हैं यह चर्चा करता हैं जो इतने दयालु हैं और उनकी यह दया पुरुषकार से भी अधीक महिमामय हैं। 

(२३वें सूत्र) से “प्रपत्तिक्कु” से (सूत्र ७९) “एकान्ती व्यपदेष्टव्य” तक प्रपत्ति के स्वभाव पर विस्तार से चर्चा हुई। प्रपत्ति भगवान को उपाय रूप में स्वीकार करना हैं। निम्म पहलू पर चर्चा हुई: 

  • भगवान को उपाय रूप में स्वीकार करने के कार्य के लिये स्थान, समय, विधि, प्रपत्ति करनेवाले कि योग्यता और परिणाम के आधार पर कोई प्रतिबंध नहीं हैं। 
  • जो हमारी प्रपत्ति (जिसके हम शरण होते हैं) को स्वीकार करता हैं वह योग्य होना चाहिए।
  • जो प्रपत्ति का पालन करता हैं ऐसे जनों का तीन भाग किया जाता हैं। 
  • प्रपत्ति को साधन रूप में स्वीकार करने कि सीमाएं (भगवान साधन हैं – प्रपत्ति केवल एक कार्य हैं जो जीवात्मा के स्वभाव के अनुकूल हैं)।
  • प्रपत्ति की प्रकृति और सहायक पहलू की सामूहिक व्याख्या।   

इस प्रकार यह खंड भगवान हीं उपाय हैं और उनकी वैभवता को यह स्थापित करता हैं। इस में (सूत्र ७०) “प्राप्तिक्कु उगप्पानुम् अवनै” तक इस विषय कि जड़ हैं। ७१-७९ पूरक हैं। 

(सूत्र ८०) “उपायत्तुक्कु” से (सूत्र ३०७) “उपेय विरोधिगळुमायिरुक्कुम्” तक प्रपन्न के आचार सहिंता को समझाया गया हैं। यह खंड निम्म पहलू पर चर्चा करता हैं:

  • जीवात्मा के अनिवार्य गुण जो भगवान को उपाय (साधन) और उपेय (लक्ष्य) रूप में स्वीकार करता हैं।
  • अन्य उपायों के प्रति आसक्ति छोड़ने कि आवश्यकता और 
  • ऐसे व्यक्ति के लिये सामान्यता क्या करें और क्या न करें  

सूत्र (३०८) “तान् हितोपदेशम् पण्णुम्पोदु” से (सूत्र ३६५) “उगप्पुम् उपकार स्मृतियुम् नडक्क वेणुम्” तक शिष्य लक्षण (आचार्य के प्रति शिष्य का अभिवृत्ति) विस्तार से समझाया गया हैं। यह खंड निम्म पहलू पर चर्चा करता हैं:

  • सिद्धोंपाय निष्ठा का स्वभाव (वह जो भगवान पर पूर्णत: निर्भर हैं जो स्थापित साधन हैं)
  • सच्चे आचार्य का स्वभाव।  
  • सच्चे शिष्य का स्वभाव और उसका आचार्य पर पूर्णत: निर्भरता।  
  • आचार्य और शिष्य के मध्य में संवाद। 
  • शिष्य का आचार्य के प्रति कृतज्ञता जिन्होंने उसे इस संसार सागर से पार लगाया। 

(सूत्र ३६६) स्वदोषानुसन्धानं भय हेतु से सूत्र (४०६) “निवर्त्यज्ञानं भय हेतु” तक भगवान कि निर्हेतुक कृपा को समझाया गया हैं। भगवान कि इसी निर्हेतुक कृपा के कारण हम विभिन्न पहलुओं तक उन्नति करते हैं – अनन्त कैङ्कर्य करने के लिये चरम लक्ष्य के लिये अद्वेषम (घृणा न होना)। यह स्थापित हो गया हैं कि भगवान की अहैतुकी कृपा को देखने से व्यक्ति को अपने दुखों से छुटकारा मिल जाता हैं जो जीवात्मा के मुक्ति का आश्वासन देता हैं।  

(सूत्र ४०७) स्वतन्त्रनै​ उपायमागत् तान् पट्रिन पोदिऱे से अन्त के (सूत्र ४६३) तक किसी के विश्वास के अन्तिम चरण कि व्याख्या करता हैं अर्थात आचार्य पर पूर्णत: निर्भर होना। यह सिद्धान्त श्रीमधुरकवि स्वामीजी द्वारा कण्णिनिण् चिऱुत्ताम्बु के ९वें पाशुर “मिक्क वेदियर् वेदत्तिन् उट्पोरुळ्” में समझाया गया हैं – वेदों का सच्चा सार जो विशेषज्ञ द्वारा अभ्यास किया जाता हैं।

जैसे कि यह “वेदार्थम् अऱुदियिडुवदु” (शास्त्र का सार स्थापित होता हैं) और “चरम पर्व निष्ठा” (पूर्णत: आचार्य पर निर्भर होना) से समाप्त होता हैं। यह स्पष्ट रूप से स्थापित हैं कि पूर्णत: आचार्य कृपा पर निर्भर होना हीं शास्त्र का सार हैं।  

जैसे चरम श्लोक (सर्व धर्मान परित्यज्य …) श्रीभगवद्गीता का सार हैं वैसे हीं अन्तिम प्रकरणम इस प्रबन्ध का सार हैं। वहाँ (श्रीभगवद्गीता में) भगवान पहिले कई उपाय (कर्म, ज्ञान, भक्ति, आदि) बताते हैं और यह देखते हुए कि अर्जुन सही राह चुनने की स्वतन्त्रता को अपने ऊपर लेने से डरते हैं वें सिद्धोपाय (स्वयं को स्थायी उपाय के रूप में) दिखाते हैं। यह सिद्धोपाय (भगवान को उपाय समान) के वैभव को विस्तार से समझाया गया हैं और भगवान के स्वतन्त्रता (जो अनुकूल या प्रतिकूल कारण बन सकता हैं) के भय को देखते हुए आचार्य पर निर्भर रहने का अन्तिम मार्ग (जो सबसे सुरक्षित साधन हैं) दिखाते हैं।   

इस प्रकार प्रबन्ध के ६ प्रकरण जो ६ तत्त्व को दर्शाता हैं उसको समझाया गया हैं। 

अब हम देखेंगे कैसे यह प्रबन्ध ९ प्रकरण में वर्गीकृत किया गया हैं।

१ से २२ सूत्र में चर्चा किये गए परिचय खंड और पुरुष/उपाय वैभव वही हैं जो पहिले बताये गये हैं। 

इसके बाद (२३वें सूत्र) से प्रारम्भ कर “प्रपत्तिक्कु” और (११४ सूत्र) “विषय प्रवृत्ति सेरुम” के अंत तक – यह खंड भगवान हीं उपाय (जो पहिले प्रकरण में दर्शाया गया हैं) हैं के तत्त्व को विस्तार रूप से समझाता हैं। 

(सूत्र ११५) से “प्रापकान्तर परित्यागत्तुक्कुम्” (सूत्र १४१) “आगैयाले सुखरूपमायिरुक्कुम्” तक प्रपत्ति छोड़ उपाय के दोषो को समझाया गया हैं। प्रपत्ति कि महानता के विषय में इस खंड में सहायक हैं।  

(सूत्र १४२) से इवन अवनैप् पेऱ निनैक्कुम् पोदु(सूत्र २४२) इडैच्सियाय्प् पेट्रुविडुदल् सेय्युम् पड़ियाय इरुक्कुम् तक सिद्धोपाय निष्ठा (जो भगवान को पूर्णत: साधन रूप में स्वीकार करते हैं) के वैभवों को विस्तार से समझाया गया हैं 

(सूत्र २४३) से इपपडि सर्वप्रकारत्तालुम् (सूत्र ३०७) उपेय विरोधिगळुमायिरुक्कुम् तक प्रपन्न के दिनचर्या को समझाता हैं। 

(सूत्र ३०८) से “तान् हितोपदेशम् पण्णुम्पोदु” (सूत्र ३२०) “चेतननुडैय रुचियाले वरुगैयाले” तक सदाचार्य के लक्षण समझाते हैं। 

(सूत्र ३२१) से “शिष्यन् एन्बदु” (सूत्र ३६५) “उपकार स्मृतियुम् नडक्क वेणुम्”  तक सच्चे शिष्य के लक्षण को समझाता हैं। 

(सूत्र ३६६) से “स्वदोषानुसन्धानम्” (सूत्र ४०६) “निवर्त्यज्ञानम भय हेतु” तक भगवान का अपनी अहैतुकी दया से जीवात्मा का पीछा करने का पहलू को समझाया गया हैं। 

(सूत्र ४०७) से “स्वतन्त्रनै” (सूत्र ४६३) अन्त तक आचार्य हीं उपाय और उपेय यह समझाता हैं। 

इन दो प्रकार के वर्गीकरण के अनुसार “पेऱु तरुविक्कुमवळ् तन् पेरुमै” (तनियन ६ खंडो कि व्याख्या करते हैं) और “तिरुमामगळ् तन्” (तनियन ९ खंडो कि व्याख्या करते हैं) इस प्रबन्ध कि महिमा में प्रस्तुत किया गया हैं। इस प्रकार इस प्रबन्ध को दोनों प्रकार के वर्गीकरण में समझना स्वीकार्य हैं। 

इस प्रकार हमने श्रीवरवरमुनि स्वामीजी द्वारा श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी के श्रीवचन भूषण के गौरवपूर्ण परिचय में खंड को देखा हैं जहां इस प्रबन्ध में दो प्रकार के बर्गीकरण को विस्तार से समझाया गया हैं। 

बाद के लेखों में हम श्रीपिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी के श्रीवचन भूषण के लिये श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के इस अद्भुत परिचय कि निरंतरता देखेंगे। 

अडियेन् केशव् रामानुज दास्

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