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विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन) – ३२

श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचलमहामुनये नमः श्रीवादिभीकरमहागुरुवे नमः

“श्रीवैष्णवों को अपने दैनिक जीवन में कैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है इसका उपदेश श्रीरामानुज स्वामीजी ने वंगी पुरत्तु नम्बी को दिया। वंगी पुरत्तु नम्बी ने उसपर व्याख्या करके “विरोधी परिहारंगल (बाधाओं को हटाना)” नामक ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत किया। इस ग्रन्थ पर अंग्रेजी में व्याख्या श्रीमान सारथी तोताद्रीजी ने की है उसके आधार पर हम लोग हिन्दी में व्याख्या को देखेंगे। इस पूर्ण ग्रन्थ की व्याख्या को हम लोग “https://goo.gl/AfGoa9”  पर हिन्दी में देख सकते है।

<– विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन – ३१)

६६) दर्शन (सम्प्रदाय) विरोधी – तत्वज्ञान समझने में बाधाएं
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श्रीरामानुज – श्रीभूतपूरी

सम्प्रदाय का अर्थ है, एक धर्म के दार्शनिक पक्ष। हमारे धर्म को श्रीवैष्णव सम्प्रदाय कहते हैं। क्योंकि श्रीरामानुज स्वामीजी ने इस धर्म का पोषण किया और सभी जगह प्रतिष्ठित किया इसलिये इसे श्रीरामानुज सम्प्रदाय के नाम से भी जानते है। इस धर्म का मुख्य तत्व है- भगवान श्रीमन्नारायण ही श्रेष्ठ अर्चावतार हैं और उनके समान या उनसे श्रेष्ठ और कोई नहीं हैं। यह धर्म परम वेदों पर आधारित है। यह धर्म इस तत्व का परिणाम है कि वेद नित्य और दोषरहित हैं। इस धर्म के अनुयायियों को यह समझना चाहिये कि आल्वारों पर स्वयं भगवान की पूर्ण कृपा थी और उनके दिव्य प्रबन्ध वेदों के समान है। उन्हें दिव्य प्रबन्ध में भी अच्छी जानकारी होनी चाहिये।

अनुवादक टिप्पणी: आगे बढ़ने से पहिले हम हमारे श्रीवैष्णव सम्प्रदाय के बारें में एक प्रस्तावना देखेंगे।

हमारे सत सम्प्रदाय का नाम “श्रीरामानुज सम्प्रदाय” स्वयं भगवान श्रीरंगनाथ ने ही दिया है – यह “उपदेश रत्नमालै” में    ने भी स्पष्ट दर्शाया है। इस सम्प्रदाय को उभय वेदान्त सम्प्रदाय भी कहकर बुलाते हैं। संस्कृत में वेद हैं जिन्हें वेदान्त, स्मृति, इतिहास, पुराण, पञ्चरत्न, आदि का समर्थन प्राप्त हैं। वेद को नित्य, अपौरुषेयम (किसी व्यक्ति द्वारा न रचित – भगवान द्वारा भी नहीं, यह केवल भगवान द्वारा नियत समय में प्रगट होते हैं), निर्दोष (दोषरहित), आदि से भी जाना जाता है। फिर द्राविड वेद है (आल्वारों द्वारा रचित ४००० दिव्य प्रबन्ध पाठ) जिन्हें हमारे पूर्वाचार्यों के व्याख्या का समर्थन प्राप्त है। हालाँकि आल्वारों ने दिव्य प्रबन्ध की रचना की है हमारे पूर्वाचार्य यह समझाते हैं कि यह भी नित्य है और भगवान इन्हें निरन्तर प्रगट करते हैं। अलगिय मणवाल पेरुमाल नायनार इस तत्व को अपने “आचार्य हृदयम” नामक ग्रन्थ में समझाते हैं। क्योंकि दिव्यप्रबन्ध वेद और वेदान्त के तत्वों को दर्शाते हैं – हमारे पूर्वाचार्यों ने बड़े आदर के साथ इनकी स्तुति की है और सम्प्रदाय का श्रेष्ठ प्रमाण माना हैं।

संस्कृत वेद और द्राविड वेद दोनों में श्रीमन्नारायण को ही श्रेष्ठ भगवान ऐसा सिद्ध किया है। श्रीमन्नारायण भगवान के दो प्रमुख गुण हैं – सभी पवित्र गुणों से परिपुर्ण और अपवित्र गुणों के बिल्कुल विरुद्ध है। उनकी स्तुति उभय विभूति (नित्य विभूति और लीला विभूति के स्वामी) नाथ ऐसे भी कि गयी है। श्रीमन्नारायण भगवान में कुछ ऐसे भी अद्भुत गुण देखे गये हैं जो और किसी में नहीं देखे जाते हैं – श्रिय: पतित्वम (श्रीमहालक्ष्मीजी के पति), अनन्तसायित्वम (जो शेषशैय्या में शयन किये हैं), गरुडवाहनत्वम (वह जो गरुडजी की सवारी करते हैं), आदि। इसमें श्रिय: पतित्वम मुख्य गुण हैं – श्रीभक्तिसार स्वामीजी अपने पाशुर में यह घोषित करते हैं कि “तिरुविल्लात तेवरैत् तेरेन्मिन तेवु” – वह जो श्रीमहालक्ष्मी से सम्बंधित नहीं हैं, मैं उन्हें भगवान नहीं मानूँगा। वेद कहते हैं “श्रद्धया देवो देवत्वमश्नुते ” –  श्रीमहालक्ष्मीजी से सम्बन्ध होने के कारण ही भगवान श्रीमन्नारायण को श्रेष्ठता / धार्मिकता प्राप्त है। श्रीमन्नारायण भगवान को पुष्प और श्रीमहालक्ष्मीजी को सुगन्ध ऐसा समझाया गया है। इसलिये किसी भी देवता को श्रेष्ठ और सच्चा भगवान नहीं मान सकते हैं क्योंकि शास्त्रानुसार भगवान श्रीमन्नारायण ही श्रेष्ठ भगवान हैं।

भगवान श्रीमन्नारायण सभी स्थिति में प्रवेश करते है – दोनों स्थिति चित्त और अचित्त। वे अन्तरयामी हैं – सभी के अंत: में उपस्थित। सभी देवताओं को भी भगवान श्रीमन्नारायण ने जीवात्मा की अनुकम्पा के लिये स्थापित किया है जो इन गुणों (सत्व, रजो, तामस) के आधार पर देवता को चुनते हैं। अगर यह देवता न हो तो वें पूरी तरह नास्तिक हो जायेंगे और इस संसार चक्र में भटकते रहेंगे। कम से कम इन देवताओ के समक्ष जाने से वैदिक धर्म के प्रति कुछ विश्वास आयेगा और वें धीरे धीरे ऊपर के चेतना की ओर बढ़ेंगे। अत: इस संसार में देवतान्तर भगवान कि आज्ञा पालन के लिये है, जीवात्मा को सही मार्ग कि ओर ले जाते हैं ताकि वें अन्त में भगवान श्रीमन्नारायण की ओर जा सके। परन्तु देवतान्तर स्वयं विवश जीवात्मा है और अपने स्थान से घबड़ा जाते हैं और कभी कभी भगवान को ललकार देते हैं। इसलिये श्रीवैष्णव कभी भी उनकी पूजा नहीं करते हैं। क्योंकि श्रीवैष्णव सत्व गुण वाले हैं और देवतान्तर सत्व, रजस और तमो गुणों के मिश्रण के हैं – शास्त्र कहता है सत्व गुण निष्ठावाले को रजस और तामस गुणवालों की पूजा नहीं करना चाहिये।

यह हमारे सत सम्प्रदाय के तत्वों का संक्षिप्त में परिचय है। इस परिचय के साथ इस भाग में हम आगे बढ़ते हैं।

  • देवता जैसे ब्रह्मा, रुद्र, आदि की श्रेष्ठता पर शंका करना, त्रिमूर्ति साम्यम (ब्रह्मा, विष्णु और शिव को समान मानना) पर शंका करना, यह शंका करना कि ब्रह्मा, रुद्र, आदि की पूजा कर सकते हैं क्यों कि वे श्रीमन्नारायण के दास हैं बाधा हैं। सामान्यता ३ देवताओं को विशेषकर दर्शाया जाता है – ब्रह्माजी उत्पत्ति के लिये, पोषण के लिये श्रीविष्णु और विनाश के लिये शिवजी। फिर भी तीनों में श्रीविष्णु श्रेष्ठ हैं जो स्वयं भगवान श्रीमन्नारायण है। ब्रह्माजी और शिवजी दोनों को भगवान श्रीमन्नारायण ने ही उत्पन्न किया है और वे दोनों उत्पत्ति और विनाश का कैंकर्य भगवान श्रीमन्नारायण की आज्ञा से करते हैं। इन दोनों की कभी भी भगवान विष्णु से श्रेष्ठ देवता ऐसी तुलना नहीं करनी चाहिये। हालाँकि तीनों को त्रीमूर्ति कहते हैं परंतु समान नहीं हैं। जैसे श्रीभक्तिसार स्वामीजी नांमुगन तिरुवंदादि में कहते है “नान्मुगनै नारायणन पडैत्तान नान्मुगनुम तान मुगमायच्चङ्करनैत्तान पडैत्तान” – भगवान श्रीमन्नारायण ब्रह्मा को उत्पन्न करते हैं और ब्रह्माजी शंकरजी को जन्म देते हैं – इससे हम यह समझ सकते हैं कि भगवान श्रीमन्नारायण जो सभी कारणों के कारण हैं वे ही सर्वश्रेष्ठ परमात्मा हैं। दोनों ब्रह्मा और शिव जीवात्मा हैं जो एक पद पर हैं और एक समय पूरा होने पर प्राण त्याग कर देते है जैसे सामान्य मनुष्य त्याग करते है। क्या एक श्रीवैष्णव यह विचार कर सकता है कि ब्रह्मा/शिव दोनों पूजनीय हैं क्योंकि भगवान श्रीमन्नारायण उनके अन्तरयामी है और वे भी अपनी भक्ति समय समय पर भगवान श्रीमन्नारायण के प्रति प्रगट करते हैं? उत्तर -नहीं। क्युंकि उनके रजो और तमो गुणों के कारण और उनमें जो अभिमान है उन्होंने स्वयं भगवान श्रीमन्नारायण का विरोध कर उनसे युद्ध भी किया है। इसलिये वे श्रीवैष्णवों द्वारा पूजने के योग्य नहीं हैं। अनुवादक टिप्पणी: पेरिय तिरुवन्दादि में ७२वें पाशुर में श्रीशठकोप स्वामीजी बड़ी सुन्दरता से इस तत्व को समझाते हैं। “मुदलाम तिरुवुरुवम मून्रेन्बर ओन्रे मुदल आगुम मून्रूक्कुम एन्बर मुदल्वा निगर इलगु कार उरुवा! निन अगत्तदन्रे पुगर इलगु तामरैयिन पू” – कुछ्लोग कहते हैं कि वे तीनों देवता श्रेष्ठ हैं; दूसरे कहते हैं इन्हें छोड़ इनसे भी श्रेष्ठ एक और देवता है; है श्रेष्ठ कारणों के कारण जिनके पास सुन्दर मेघ के समान पवित्र रामवर्ण रूप है! आपकी पवित्र नाभ कमल पुष्प की जड़ है (जहां से ब्रह्माजी का जन्म हुआ – जो भगवान श्रीमन्नारायण के श्रेष्ठता को स्थापित करता है)। यही तत्व श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी “श्रीरंगराज स्तव” पूर्व शतकम के ११६वें श्लोक में समझाते हैं। इन संकेतों से हम यह समझ सकते हैं कि भगवान श्रीमन्नारायण हीं सभी के लिये श्रेष्ठ कारण हैं। श्रीवैष्णवों को केवल भगवान श्रीमन्नारायण और उनके भक्तों की ही पूजा करनी चाहिये। उनके भक्त का अर्थ है वह जो उनके प्रति विश्वास रखता हो और जिसमें स्पष्ट रूप से रजो तमो गुण न हो। एक बात हमें स्पष्ट रूप से समझना चाहिये कि ब्रह्मा, रुद्र, आदि जो उत्पत्ति, विनाश, आदि के स्वामी हैं एक विशेष पद के लिये ही हैं। जीवात्मा अपने कर्मानुसार उस दशा को प्राप्त करता है – जिसने कठोर तपस्या किया हो वह ब्रह्म, शिव, आदि का जन्म प्राप्त करता है। परन्तु विष्णु ऐसा कोई पद है हीं नहीं – वह स्वयं ही भगवान श्रीमन्नारायण हैं। श्रीरंगराज स्तव पूर्व शतकम के ५२वें श्लोक में श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी समझाते हैं कि अपनी निर्हेतुक कृपा से भगवान श्रीमन्नारायण इस संसार में अवतार लेते हैं और अपने आपको दोनों देवता के मध्य में रखते हैं। हालाँकि ब्रह्माजी, शिवजी, आदि ने यह समझ लिया है कि भगवान श्रीमन्नारायण के कारण ही उन्हें इस संसार में यह उच्च पद प्राप्त हुआ है। पर उन्हें अभिमान भी हुआ और वे अपने सच्चे स्वभाव को भूल गये हैं। इस परिस्थिति में वें स्वयं भगवान से ही विरोध कर लेते हैं। कृष्णावतार में ब्रह्माजी भगवान की गायों को चुरा लेते हैं और फिर भगवान कृष्ण उन्हें सबक सिखाते हैं। कठोर चेतावनी के पश्चात ही ब्रह्माजी को अपनी गलती का अहसास होता है और भगवान से क्षमा की भीख माँगते हैं। उसी तरह शिवजी भी बाणासुर की रक्षा हेतु भगवान कृष्ण से लड़ाई कर बैठे। अन्त में उन्हें भी अपनी गलती का अहसास हुआ और भगवान कृष्ण की स्तुति किये। श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र में श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी भगवद अपचार के विषय में विस्तार से समझाए हैं। इसमें सबसे पहली गलती यह है कि इन देवतान्तरों को भगवान श्रीमन्नारायण के समान मानना। अत: थोड़ा भी यह संशय होना कि यह देवतान्तर भगवान श्रीमन्नारायण के समान हैं यह बाधा है। अत: श्रीवैष्णवों को यह पूर्ण विश्वास होना चाहिये कि भगवान श्रीमन्नारायण ही श्रेष्ठ हैं।
  • बाह्य (जो वेद को सर्वश्रेष्ठ नहीं मानते) और कुदृष्टियों (जो वेद को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं परन्तु अपने अनुकूल व्याख्या करते हैं) जैसे बौद्ध, शैव, मायावादी, आदि के समझाने और तत्वों से अस्त व्यस्त (भ्रमित) होना बाधा है। बुद्ध के अनुयायी को बौद्ध कहते हैं। जैन भी थोड़े उनके जैसे हैं। यह दोनों पूर्णत: वेद की महानता का तिरस्कार करते हैं। शैव पशुपत ऐसे जाने जाते हैं और शिवजी को श्रेष्ठ मानते हैं। उनके लिये शैव आगम परम है। मायावादी वे हैं जो सम्पूर्ण उत्पत्ति को माया मानते हैं और केवल ब्रह्म ही सत्य है और ऐसे ब्रह्म का कोई नाम, आकार, गुण, आदि नहीं होता है। हमें यह समझना चाहिये कि ये तत्व व्यर्थ हैं और इन तत्वों से दूर रहना चाहिये। तिरुमालै के ७वें पाशुर में श्रीभक्तांघ्रिरेणु स्वामीजी कहते हैं “पुलै अरम आगि निन्र पुत्तोडुशमणम एल्लाम कलै अरक्कट मांदर काण्बरो केटपरो ताम” – जब कोई वेद शास्त्र का ज्ञानी हो तो क्या वह दूसरे तर्क शास्त्र जैसे बौद्ध, जैन, आदि का अभ्यास करेगा? अनुवादक टिप्पणी: हालाँकि हम यह देखते हैं कि बौद्ध गौतम बुद्ध से सम्बंधित है (जो इतिहासकारों के अनुसार २५०० वर्ष पुराना है), व्यास मुनि ने स्वयं यह स्थापित किया कि वेद ही बौद्ध, जैन, आदि धर्म से श्रेष्ठ हैं। यह समझाया गया है कि भगवान स्वयं जो बुद्ध का अवतार लेकर असुर जो वेदों में सुशिक्षीत हैं उनके धर्म को नीचा दिखाते हैं। उन्हें भ्रमित करने हेतु उन्हें शून्यवाद सिखाया और उनका शास्त्र में विश्वास पराजित किया। श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी श्रीसहस्रगीति के पाशुर के लिये ईडु व्याख्या में विस्तार से समझाते हैं – “कल्ल वेदत्तै कोंणडु पोय…”। इस पाशुर में बुद्ध को रामवर्णवाला सुन्दर और बलवान शरीरवाला, लम्बे कान और हाथों में ग्रन्थ ऐसी कल्पना की गई है। उनका रूप इतना सुन्दर है कि सभी जन वे जो कहेंगे उस पर विश्वास कर लेंगे। वे अहिंसा ही उच्च तत्व ऐसा कहते हैं और लोग आसानी से उनके और उनके तत्व के प्रति प्रेम आदर भाव रखते है। इस तरह उन्होंने असुरों का धोखे से वेदों के प्रति विश्वास कम किया और अन्त में उन्हें मार दिया। यहाँ एक बहुत मुख्य विषय को समझना है। हालाँकि बौद्ध तत्व का उपदेश भी स्वयं भगवान ने ही दिया परन्तु वेदों ने उन तत्वों को स्वीकार नहीं किया (यह समझकर कि वे दूसरों के लिये है)। अगर भगवान भी वेदों के विरुद्ध कुछ कहते हैं तो भी महान सन्त उसे अस्वीकार कर देते हैं। “आचार्य हृदय” में अलगिय मणवाल पेरुमाल नायनार यह दर्शाते है, श्रीसहस्रागीति जो तमिल भाषा में हैं उसकी स्तुति करने हेतु इस विषय को समझाते हैं। वे कहते हैं कि अगर केवल भाषा के आधार पर हमें कोई साहित्य को स्वीकार करना हो तो हमें बौद्ध साहित्य को स्वीकार करना चाहिए क्योंकि वह संस्कृत में है और स्वयं भगवान द्वारा इसका प्रयोग किया गया है। क्योंकि यह वेद के विपरित है इसलिये महान वेदों के तत्व ज्ञानियों ने इसे अस्वीकार किया है।
  • सामान्य शास्त्र (वर्णाश्रम धर्म) पर केन्द्रीत होना और विशेष शास्त्र (वैष्णव धर्म) को नजर अंदाज करना बाधा है। सामान्य शास्त्र अर्थात दैनिक जीवन के लिये सामान्य दिशा निर्देश। इसका भी पालन करना आवश्यक है। परन्तु इससे भी अधिक कुछ और है जिसे विशेष शास्त्र कहते हैं। विशेष धर्मानुसार भगवद/भागवत कैंकर्य ही सर्वोंपरी हैं। यही अन्तिम लक्ष्य हैं। जो भगवान को उपाय और उपेय मानता है, जो भगवान के ही शरण होता है और जिसकी उत्पत्ति केवल भगवान के आनन्द के लिये हुई हो उसे परमैकान्तिक कहते हैं। ऐसे महान जन, सामान्य धर्म का पालन पवित्र हृदय के साथ करते हैं और इस समझ के साथ कि वे भी भगवदाराधन का एक हिस्सा बन सकें जैसे श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी मुमुक्षुपडि में समझाते हैं कि “कर्मम कैंकर्यत्तिल पुगुम”। यह हो सकता है कि विशेष धर्म का पालन करते समय सामान्य धर्म को त्याग करें या उसे बाद में भी कर सकते हैं। हमें यह दृढ़ विश्वास होना चाहिये कि भगवद / भागवत कैंकर्य करते समय सामान्य धर्म का पालन को बाद में / छोड़ कर करना कोई पाप नहीं है। “आचार्य हृदय” में अलगिय मणवाल पेरुमाल नायनार (और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी अपने व्याख्या में) यह दर्शाते हैं कि विल्लीपुत्तुर पगवर (एक तपस्वी) एक बार घाट पर स्नान के लिये गये। कुछ ब्राह्मणों (बिना भागवत धर्म को समझे जो केवल वर्णाश्रम पर केन्द्रीत थे) को देखकर वह घाट से बाहर आकर कहने लगा “आप केवल वर्ण धर्मी हो परन्तु हम तो भगवान के दास हैं। हम किसी से आसानी से नहीं घुल मिल सकते हैं”। इस विषय में जो हमारे पूर्वाचार्यों ने पालन किया है हमें उसका ही पालन करना चाहिये। यद्यपि वर्णाश्रम धर्म का पालन न करना पाप है लेकिन जब हम विशेष धर्म का कैंकर्य कर रहे हो वर्णाश्रम धर्म को बाद में करना / छोड़ना कोई पाप नहीं है।
  • केवल बाह्य स्वरुप, आभूषण और वैष्णव दास नाम होना और भागवतों का अपचार करना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र में श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी बड़ी सुन्दरता से इस तत्व को १९९ और २०० सूत्र में समझाते हैं। वह “आरुड पतितन” – उन्नत स्थान से गिरना – इस पद का प्रयोग कर समझाते हैं। एक भागवत होना अर्थात एक उच्च स्थान पर पहुँचना। परन्तु उच्च स्थान पर पहुँचकर भागवत अपचार करना अर्थात उस उच्च स्थान से नीचे गिरना है। अगर हम ऊपर से गिरेंगे तो हमें अधिक चोट लगेगी। इसलिये हमें कभी भी भागवतों से मधुर शब्दों से बात करनी चाहिये।
  • सच्चे आचार्य की शरणागति को स्वीकार न करना बाधा है। हमें एक सच्चे आचार्य के शरण होना चाहिये और वैष्णव बनने हेतु उनसे पञ्च संस्कार ग्रहण करना चाहिये। समाश्रयण स्वीकार करना साधारण संस्कार जो होते है उनसे रुकता नहीं है। जैसे श्रीसहस्रगीति में बताया गया है “चंथंगल आयिरमुम अरियक कर्रु वल्लार वैत्ट्टणवर” जिसने श्रीसहस्रगीति का अध्ययन किया हो, जिसने उसके अर्थ को सही समझा हो और उसे अपने दैनिक जीवन में अनुकरण करता हो वही सच्चा श्रीवैष्णव होने योग्य है। अनुवादक टिप्पणी: कई जन पञ्च संस्कार को अन्तिम या लक्ष्य मानते हैं। परन्तु यह वैष्णव यात्रा का प्रारम्भ है। हमें पूर्ण निष्ठा से आचार्य के समर्पित होना, पूरे तत्वों को सीखना और एक श्रीवैष्णव जैसे आचरण करना चाहिये। अगर कोई पञ्च संस्कार ग्रहण कर संसारी जैसे जीवन व्यतित करता है तो पञ्च संस्कार स्वीकार करना व्यर्थ है। यहाँ आचार्य का कार्य सर्व मुख्य हैं। श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र में श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी आचार्य का वैभव अन्त में समझाते हैं। वे आचार्य के माध्यम से भगवान को पाने का उद्देश इस अंश में बड़ी सुन्दरता से समझाते हैं।
  • श्रीवैष्णव लक्षण न होना बाधा है। श्रीवैष्णव लक्षणम में दो पहलू हैं – बाह्य और आंतरिक। बाह्य – भुजाओं पर शंख चक्र धारण करना, १२ स्थान पर ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक, तुलसी / कमल की माला और प्राकृतिक बदलाव जैसे रोमांच, नेत्रों में आँसु, आदि, जो निरन्तर भगवद / भागवत अनुभव में लगने से होता है। आंतरीक – पवित्र हृदय होना, ज्ञान, भक्ति, वैराग्य, दूसरों के लिये दर्द, सभी के लिये अच्छा सोचना, आदि। दोनों मुख्य हैं।
  • द्वयाधिकारी (द्वय महा मन्त्र के योग्य पुरुष) न होना बाधा है। नाच्चियार तिरुमोझी में श्रीगोदम्बाजी कहती है “मेय्म्मैप पेरु वार्त्तै विष्णुचित्तर केट्टिरुप्पर” – श्रीविष्णुचित्त स्वामीजी चरम श्लोक को पूरी तरह समझे हैं (भगवद्गीता के ६६वें श्लोक – सर्व धर्मान …) और उसका पालन करते हैं। जैसे कहा गया है हमें रहस्य त्रय (तिरुमन्त्र, द्वयम, चरम श्लोक) को समझना चाहिये और विश्वास से पालन करना चाहिये। इन तीनों में क्योंकि द्वय महा मन्त्र की स्तुति मन्त्र रत्न ऐसी होती है उस पर अधिक प्रभाव होता है। शरणागति गद्य में श्रीरामानुज स्वामीजी को श्रीरंगनाथ भगवान यह निर्देश देते हैं कि “द्वयम अर्थानुसंधानेन सह यावच्चरिरपादम अथरैव श्रीरंगे सुकमास्व” – द्वय महामन्त्र का निरन्तर अर्थानुसन्धान करने से आप श्रीरंगम में आनन्द से रह सकेंगे। द्वय महामन्त्र का अर्थ पूर्णत: श्रीसहस्रागीति में प्रगट किया गया है। आचार्य हृदय में अलगिय मणवाल पेरुमाल नायनार ने २१०वें चूर्णिकै में “द्वयार्थम धीर्ग शरणागति एंरथु सार संग्रहत्तिले” दर्शाया है – यह श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी द्वारा रचित सार संग्रह में स्थापित हो गया है कि श्रीसहस्रागीति द्वय महामन्त्र का अर्थ समझाता है। अनुवादक टिप्पणी: मुमुक्षुपड्डी में द्वय प्रकाशन के प्रारम्भ में श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी पहले सूत्र में ही श्रीवैष्णव के गुण को विस्तार से समझाते हैं। अगले कुछ सूत्रों में द्वय महामन्त्र को समझाने से पहले ऐसे श्रीवैष्णवों के गुण को सुन्दरता से समझाया गया है। श्री शैलेश स्वामीजी के निर्देशानुसार श्रीवरवरमुनि स्वामीजी श्रीभाष्य का एक बार अध्यन करते हैं और अपना पूर्ण जीवन श्रीसहस्रागीति (जो द्वय महामन्त्र के पवित्र अर्थों से भरा है) के प्रचार में लगा देते हैं। यद्यपि वे वेदान्तम में निपुण थे, वे वेदान्त को आल्वारों के मधुर शब्दों से समझाते थे। श्रीएरुम्बी अप्पा स्वामीजी श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के दिनचर्या में यह दर्शाते हैं कि श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के होठ निरन्तर द्वय महामन्त्र का अनुसन्धान करते हैं और उनका मन पूर्णत: निरन्तर द्वय महामन्त्र का सुन्दर अर्थानुसन्धान करता है।
  • दिव्य प्रबन्ध में शामिल न होना बाधा है। श्रीवैष्णवों की विशेषतः उभय वेदान्त ऐसी स्तुति होती है। श्रीसहस्रागीति को तमिल वेद कहा गया है और अन्य दिव्य प्रबन्धों को अंग/उपांग कहा गया है। यह सब संस्कृत वेद और स्मृति, इतिहास और पुराण जैसे अच्छे विशेषज्ञ हैं। हमें एक आचार्य से दिव्य प्रबन्ध को अर्थ सहित सीखना चाहिये और उसमें समझाये हुए तत्वों पर चलना चाहिये। यह हमें वैष्णव कहलाने की पूर्ण योग्यता प्रदान करता है। अनुवादक टिप्पणी: इसे श्रीसहस्रागीति के आधार पर पहले ही समझाया गया है “चंथंगल आयिरमुम अरियक कर्रु वल्लार वैट्टणवर”। वार्तामाला में श्रीपेरियावाचन पिल्लै एक सुन्दर बात बताते है। वे कहते हैं “मुलैगलिलैयान युवतियैप्पोले काणुम, उमैयल्लात वैष्णवन अरुलिच्चेयलिले अंवयियाथोलिगै” – यदि एक श्रीवैष्णव गूंगा नहीं है और दिव्य प्रबन्ध, आदि का गान नहीं करता है वह ऐसा ही है जैसे बिना स्तन की एक लड़की। जैसे बिना स्तन की लड़की, लड़की होने की योग्य नहीं है वैसे ही एक श्रीवैष्णव बिना दिव्य प्रबन्ध पठन के एक श्रीवैष्णव होने के योग्य नहीं है।
  • रहस्य ग्रन्थों और उनके मुख्य तत्वों में सही शिक्षा न मिलना बाधा है। तत्व अर्थात चित्त, अचित्त और ईश्वर को अच्छी तरह समझना। रहस्य ग्रन्थ गोपनीय साहित्य हैं। श्रीरामानुज स्वामीजी के समय मे इन तत्वों को मुखाग्र पढ़ाया / प्रचारित किया जाता था। परन्तु श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी जो स्वयं देव पेरुमाल (श्रीवरदराज भगवान) के अपरावतार हैं इन सभी को १८ ग्रन्थों में लिखकर रखे जिन्हें अष्ठादश रहस्य ग्रन्थ से जाना जाने लगा। अनुवादक टिप्पणी: हमें सत सम्प्रदाय के अंतरंग महत्त्वपूर्ण तत्वों में सही तरीके से शिक्षित होना चाहिये। यहाँ “शिक्षयी” शब्द का प्रयोग हुआ है। शिक्षयी का अर्थ केवल पढ़ना लिखना नहीं हैं। इसका अर्थ “पूर्ण सुधार या कठोर सुधार” – अगर शिष्य कोई तत्व नहीं समझता है तो उस शिष्य को समझे ऐसे आचार्य उस तत्व को समझाना चाहिये और शिष्य को उसका पालन कर उसका लाभ भी लेना चाहिये।
  • शिष्टाचार में विश्वास न रखना और उसका पालन न करना बाधा है। शिष्टाचार का अर्थ अपने बड़ों की आदते। “धर्मग्य समयम प्रमाणम वेदास च” जिसका अर्थ “महान जन जो शास्त्र पढ़े हैं उनकी आदतों का पालन करना आधिकारिक है, वेद भी आधिकारिक है” – यह एक स्थापित वाक्य है। तिरुप्पावै के २६वें पाशुर में श्रीआण्डाल कहती हैं “मेलैयार शेय्वनहल्” – वह जो पूर्वजों द्वारा अभ्यास किया गया है। वह दूसरे पाशुर में भी कहती हैं कि “चेय्यातन चेय्योम” – हम वह नहीं करेंगे जो हमारे पूर्वजों ने नहीं किया है। हमें अपने पूर्वजों के अनुष्ठान में पूर्ण विश्वास होना चाहिये।  अनुवादक टिप्पणी: यहाँ एक मुख्य तत्व को समझना चाहिये। श्रीएरुम्बी अप्पा अपने “विलक्ष्ण मोक्ष अधिकारी निर्णय” में इस मुख्य तत्व को स्थापित करते हैं। वें दर्शाते हैं कि “पूर्वज” का अर्थ “पूर्वाचार्य” है और हमें अपने पूर्वाचार्यों के पत (मार्ग) पर चलना चाहिये। कभी कभी हम देखते हैं कि कुछ गलत चलन (प्रथायें) जैसे देवतान्तर, व्रत करना, सांसारिक सुख के लिये पूजा करना या दुखों का निवारण, आदि में श्रीवैष्णवों के परिवार भी उलझे हैं। एक बार सही आचार्य से ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात ऐसे विषम दस्तूर को उसी क्षण छोड़ देना चाहिये क्योंकि यह हमारे परिवार में कई परिस्थितियों में आगयी होगी जैसे अज्ञान। हम हर बार यह नहीं कह सकते कि हमारे पूर्वज इसका पालन करते थे।
  • ज्ञान, भक्ति और वैराग्य न होना बाधा है। यहाँ ज्ञान का अर्थ है अर्थ पञ्चक का ज्ञान। हमें परमात्मा और जीवात्मा के स्वभाव और उनके मध्य में सम्बन्ध को समझना चाहिये अर्थात स्वामी–दास भाव, उपाय, पुरुषार्थ और बाधाएं जो हमें हमारे लक्ष्य को पाने में बाधक हैं। भक्ति का अर्थ भगवान के प्रति दृढ़ निष्ठा। वैराग्य का अर्थ त्याग। हमें देवतान्तर के प्रति लगाव से बचना चाहिये। और हमें विषयान्तर से भी दूर रहना चाहिये। विषयान्तर का अर्थ जो भगवद भागवत विषय से बाहर हो। स्वयं श्रीरंगनाथ भगवान द्वारा श्रीवरवरमुनि स्वामीजी के स्तुति में जो तनियन प्रस्तुत किया है “धीभक्त्यादि गुणार्णवम” वह महत्त्वपूर्ण है। यहाँ धी का अर्थ ज्ञान, भक्ति का अर्थ पूजा है और आदि वैराग्य को दर्शाता है। श्रीरंगनाथ भगवान कहते हैं कि श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ऐसे सुन्दर अद्भुत गुणों के समुद्र हैं।
  • एक अच्छे शिक्षित श्रीवैष्णव के चरणों में शरण न लेना बाधा है। हमें एक आचार्य के शरण होना चाहिये जो शिष्य को गोपनीय बातों का भी निर्देश देंगे। भागवतों को भी अच्छा आचार्य माना गया है। हमें यह दृढ़ विश्वास होना चाहिये कि इनके शरण होने से हमारा उद्धार होगा। अनुवादक टिप्पणी: श्रीरामानुज स्वामीजी अपने अन्तिम दिनों में ६ उपदेश देते हैं – हमें श्रीभाष्य सीखना और सिखाना चाहिये। अगर यह न हो सके तो दिव्य प्रबन्ध को सीखना और सिखाना चाहिये। अगर यह भी न हो सके तो दिव्य देशों में कैंकर्य करना चाहिये। अगर यह भी न हो सके तो तिरुनारायणपुरम में एक तिरुमाली बनाकरा वहीं पर निवास करना चाहिये। अगर यह भी न हो सके तो निरन्तर द्वय महामन्त्र का अर्थानुसन्धान करना चाहिये। और अगर यह भी न हो सके तो हमें एक श्रीवैष्णव की शरण हो जाना चाहिये और उनकी पूर्णत: देख रेख करना चाहिये। यहाँ यह समझना आवश्यक है कि यदि कोई किसी श्रीवैष्णव की शरण में जाता है तो वह पूर्व में दर्शाये गये पाँच उपदेशों में अपने आप ही स्थित हो जाता है। श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी इसी विषय को मुमुक्षुप्पड़ी के ११६वें सूत्र में श्रीवैष्णव लक्षणम को समझाते समय कहते है। वे इस सूत्र में १० विषय पहचानते हैं। ६ विषय है “इप्पडि इरुक्कुम श्रीवैष्णवर्गल एर्ट्रमरिण्तु उगंतिरुक्कैयुम” – श्रीवैष्णव जिनके पास ऐसे सुन्दर अद्भुत गुण है उनके स्तुति को समझना और उनके प्रति बड़ी भक्ति और आदर रखना। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कहते हैं इस गुण को प्राप्त करना बड़ा कठिन है। यहाँ दसवें विषय में यह ज़ोर देकर कहा गया है कि हमें ऐसे श्रीवैष्णवों की संगत में रहना चाहिये जो शान्त चित्त व शांति से परिपूर्ण हो। इस तरह हम हमेशा श्रीवैष्णवों के संगत का महत्त्व समझ सकते हैं और उनका मार्ग दर्शन पा सकें।
  • जो श्रीरामानुज सम्प्रदाय से वैर करें उनसे मित्रता करना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: कृपाहीन जनों से मित्रता करने से बचना चाहिये। ऐसी मित्रता हमारे मन पर तीव्र धक्का पहूंचाता है और हमें नीचे गिरा देता है। सभी सांसारिक पदार्थ में ऐसी शक्ति होती है – जब हम सांसारिक कार्य की ओर बढ़ते है तो हम आध्यात्मिक वस्तु से दूर हो जाते हैं।

-अडियेन केशव रामानुज दासन्

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