Category Archives: charamopAya nirNaya

चरमोपाय निर्णय – निर्णय का प्रतिपादन

॥ श्री: ॥

॥ श्रीमते रामानुजाय नमः ॥
॥ श्रीमद्वरवरमुनयेनमः ॥
॥ श्रीवानाचलमहामुनयेनमः ॥
॥ श्रीवादिभीकरमहागुरुवेनमः ॥

 

यह अंतिम सारांश भाग रामानुज नुट्रन्दादी के पाशुरों पर आधारीत है । यह दिव्यप्रबंध ४000 दिव्यप्रबंधों में से एक है, जिसे श्रीरंगम में सवारी के समय भगवान ने स्वयं आज्ञा देकर इसका निवेदन करने के लिए कहा ।  रामानुज स्वामीजी के प्रति श्रीरंगामृत कवि की निष्ठा अति विशेष है और भावों से युक्त है जिसे हम पाशुरों मेँ अनुभव कर सकते है। इस दिव्यप्रबंध को “ प्रपन्न गायत्री ” भी कहते है । जैसे गायत्री मंत्र का जाप ब्राम्हण, क्षत्रिय, वैश्य के लिए हर दिन जरूरी है, वैसे ही प्रपन्न श्रीवैष्णवों के लिए इसका अनुसंधान प्रतिदिन जरूरी है ।

 

श्री रामानुज स्वामीजी को हर एक व्यक्ति उद्धारक आचार्य के रूप में स्वीकार कर सकता है, इनका अवतार और वैभव अति विशेष है। जो श्रीवैष्णव पूर्ण रूप से आचार्य निष्ठा में विश्वास रखते है अर्थात जिन लोगों ने श्रीरामानुज स्वामीजी का आश्रय लिया है और जिनके लिये रामानुज स्वामीजी ही उपाय और उपेय है, उनके लिये –

 

श्रीरंगामृतकवि और उनके आचार्य कुरेश स्वामीजी ( श्रीरंगम )

 

  • निवास स्थान वही हैं जहाँ पर श्रीवैष्णव जन श्रीरामानुज स्वामीजी का अनुभव करते हुये विराजते हैं, इसको

१०५ वें पाशुर में कहते है “ ……… निरामानुजनै त्तोलूम पेरियोर् एलून्दिरै त्ताडूमिडम अडीयेनु क्किरूप्पिडमे ” श्री रामानुज स्वामीजी के भक्त महात्मा लोग जिस स्थल में आनंद से निवास करते है वही मेरा निवास स्थान होगा ।

 

  • नित्य अनुभव की चीज वही हैं कि इस संसार में रहते हुये श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्य गुणों का निरंतर ध्यान करते रहना, इसको

९४ वें पाशुर में कहते है “……….. उवन्दरून्देन अवन शीरन्नी यानोन्नु मुलुमहिलन्दे ”,मुझे रामानुज स्वामीजी के गुणानुभव को छोड़कर दूसरे किसी वस्तु में आनंद नहीं आता। संसार में रहते हुये रामानुज स्वामीजी के गुणानुभव में ही निरत रहना । इसे दूसरे पाशुर में भी कहते है “……….. रामानुजन मिक्क शीलमल्लाल् उल्लादेन्नेन्जु ….”,चरमोपाय निष्ठ श्री वैष्णवों को अनुभव के लिए रामानुज स्वामीजी के वैभव, गुण आदि है । वे दूसरे किसी वस्तु का चिंतन नहीं करते है ।

 

  • त्याज वही हैं कि जो लोग श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्य गुणों का अनुभव नहीं करते उन लोगों का सहवास नहीं करना, इसको

१५ वें पाशुर में कहते है “………..त्तिरामानुजन् तन् पिरंगीय शीर शारा मनिशरै च्चेरेन एनक्केन्न तालूविनिये ”

जिनका संबंध रामानुज स्वामीजी के साथ नहीं है और जो उनका गुणानुभव नहीं करते वैसे लोगो के साथ में नहीं रहना चाहता हूँ । ऐसे कहने में मुझे कोइ संकोच महसूस नहीं होता है । क्योंकि जिनका संबंध रामानुज स्वामीजी के साथ नहीं है वैसे लोगो के साथ संपर्क रखना ही स्वरूप विरुद्ध है । अन्य लोगों का संपर्क होने से रामानुज स्वामीजी का संपर्क होने पर भी स्वरूप नाश हो जाता है ।

 

  • वाणी से कहने और अनुसंधान योग्य श्रीरामानुज स्वामीजी का वैभव ही हैं, इसको

२८ वें पाशुर में कहते है “……….. विरामानुजन पुहलन्नी येन्वाय कोच्चि प्परवहिल्लादु ”

मेरी वाणी से रामानुज स्वामीजी के वैभव को ही प्रकट करना चाहता हूँ, अन्य चीजों के संपर्क से दूर रहना आवश्यक है ।

 

  • ध्यान करने योग्य श्रीरामानुज के श्रीचरण कमल ही है, इसको

३५ वें पाशुर में कहते है “……….. मिरामान्नुजन मन्नू मामलर्ताल अयरेन ”

मैं किसी देव का भक्त नहीं बनूगाँ, सदैव श्री रंग शब्द सुनते ही व्यामोहित होनेवाले श्रीरामानुज स्वामीजी के चरणारविन्दो का ही स्मरण करता हूँ, उनको भूलूँगा नहीं । इसी पाशूर में आगे कहते हैं “………… अरूविन्नै येन्नै येव्वारि अड़र्प्पदुवे ”अर्थात रामानुज स्वामीजी के चरणारविन्दो का कभी निरंतर ध्यान करने से मेरे सभी पाप नष्ट हो जायेगें । इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि श्रीरामानुज स्वामीजी के चरणारविन्दों का कभी विस्मरण नहीं होना चाहीये ।

 

  • यही स्वरूप है कि रामानुज स्वामीजी में निष्ठा रखनेवाले भागवतों का निरंतर प्रेममय कैंकर्य करते रहे, इसको

१०७ वें पाशुर में कहते है “……….. उनतोन्डर्हट्के अंबुत्तिरुक्कुम्बडि एन्नेयाक्कि अंगाट्पडुत्ते ”

इस संसार से भयभीत होकर मोक्ष नहीं माँगुंगा, जो श्रीवैष्णव रामानुज स्वामीजी के चरणों का आश्रय  लिए हैं , वैसे श्रीवैष्णवों का दास बनकर उनकी सेवा करना चाहता हूँ ।

 

  • श्री रामानुज स्वामीजी के दिव्य मंगल विग्रह के दिव्य गुणों के अनुभव के सहारे जीना, इसको

१०४ वें पाशुर में कहते है “……….. उनतन मेय्यिल पिरंगीय शीरन्नी वेन्डिलन यान, निरय त्तोय्यिल किड्क्किलूम शोदिविण शेरीलूम इव्वरूलूनी शेय्यिल धरप्पिन, इरामानुजन एन शेलुम कोण्डले ”

आपके दिव्य मंगल विग्रह का दर्शन देते रहना, मैं संसार की किसी भी वस्तु पर आसक्त नहीं होऊंगा । अगर दर्शन दे दिया तो मैं इस संसार में रहकर भी शांत रहुगाँ, दर्शन नहीं हुये तो परमपद जाने पर भी मुझे शांति नहीं मिलेगी । दर्शन किये बिना मेरा जीना कठिन हो जायेगा ।

 

  • मन, वचन और कार्य से अपचार न करते हुये रामानुज स्वामीजी के दिव्य नामों में निष्ठा रखनेवाले श्रीवैष्णवों की सर्वदेश, सर्वावस्था और सर्वकाल में मन, वचन और कार्य से सेवा करूगाँ, इसको
  • वें पाशुर में कहते है “……….. तिरामानुजन, तिरुनामम नम्ब वल्लार तीरतै मरवादवर्हल यवर ……… ”

 

 

जिन्हें श्रीरामानुज स्वामीजी के दिव्य नामों में निष्ठा ( विश्वास ) नहीं है, वे लोग इस संसार में अत्यंत दुखी रहते है और मोक्ष के अधिकारी भी नहीं बनते हैं, इसको ४४ वें पाशुर में कहते है “……….. मीरामानुजन्तिरुनामम् नम्बी कल्ला रहलीडत्तोर, एदू पेरेन्नु कामिप्परे ”

 

 

श्रीरंगामृत कवि ने श्री रामानुज स्वामीजी कि उपस्थिती में इन पाशुरों को निवेदन किया। श्रीरंगनाथ भगवान और रामानुज स्वामीजी ने इन सभी पशुरों को अपने सहृदय से अपनाया है ।

 

“ सत्यम सत्यम पुन सत्यम यतिराजों जगतगुरु

स एव सर्वलोकानाम उद्धार्थ नार्थसंशय ”

मैं तीन बार वचन लेता हूँ कि यतिराज ही पूर्ण जगत के आचार्य है, यतिराज ही सभी लोगो का उद्धार करनेवाले है, इसमे कोइ संशय नहीं है । प्रपन्न जनों को रामानुज स्वामीजी के चरणारविन्द ही रक्षक है और सद्गति देनेवाले है ।

 

६२ वें पाशुर में कहते है “……….. येम्मीरामानुजन, मन्नू मामलर्ताल पोरुन्दा निलैयूडे प्पून्मेनिय्यो र्क्कोन्नुम नन्मै पेरुन्देवरै प्परवुम , पेरियोरतम कलल पीड़ित्ते ” जो बड़भागी जीव रामानुज स्वामीजी के श्रीचरणों का आश्रय नहीं ले सके वे भाग्यहीन है, वे इस संसार में भटकते ही रहेगें ।

 

यहाँ पर चरमोपाय निर्णय ग्रंथ के व्याख्यान का समापन होता है ।

 

श्रीनायनाराचान  पिल्लै तिरुवडिगले शरणम

श्रीपेरियावाचन पिल्लै तिरुवडिगले शरणम

आलवार येम्पेरूमानार जीयर तिरुवडिगले शरणम

जीयर तिरुवडिगले शरणम

आचार्य तिरुवडिगले शरणम

 

– अडियेन सम्पत रामानुजदास,

– अडियेन श्रीराम रामानुज श्रीवैष्णवदास

SOURCE : http://ponnadi.blogspot.in/2012/12/charamopaya-nirnayam-conclusion.html