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लोकाचार्य स्वामीजी की दिव्य श्रीसूक्तियां – निष्कर्ष

श्री: श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नम: श्रीमते वरवरमुनये नमः श्रीवानाचलमहामुनये नमः

लोकाचार्य की श्रीसूक्ति

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पेरिय पेरुमाळ् (श्रीरंङ्गगनाथ जी)
प्रपन्न जन कूटस्तर – नम्माऴ्वार् (श्री शठकोप स्वामी)
जगदाचार्य – एम्पेरुमानार् (स्वामी रामानुज)

पहले के विषय में हमने नम्पिळ्ळै के ईडु महाव्याख्यानम् से उनके रहस्योद्धघाटन का आनंद लिया है। तिरुवाय्मोऴि के लिए नम्पिळ्ळै और उनके ईडु व्याख्यानम् की महिमा अच्छी तरह से प्रस्तुत की है। नम्पिळ्ळै नञ्जीयर् के दिव्य करुणा का लक्ष्य थे। नञ्जीयर् के सानिध्य में नम्पिळ्ळै ने हमारे सत् संप्रदाय के सभी आवश्यक सिद्धांतों का अध्ययन किया। नञ्जीयर् और नम्पिळ्ळै के बीच संबंध और वार्तालाप सबसे आकर्षक हैं। कई घटनाओं में, नञ्जीयर् (आचार्य होते हुए भी) अपने शिष्य नम्पिळ्ळै का पासुरों के अर्थ समझाने की विधि की सुंदरता को महिमामंडन करते हैं। संस्कृत साहित्य और तमिऴ् साहित्य में नम्पिळ्ळै की विशेषज्ञता अद्वितीय है। वे विभिन्न साहित्यों के वर्णन में महारथी थे। और वे श्रीरामायण की कई घटनाओं को तिरुवाय्मोऴि में बताए गए सिद्धांतों के साथ जोड़ने में सक्षम थे। जबकि श्रीरामायण सामान्यतः स्वीकृत प्रमाणों (मान्य संदर्भ) में से एक था, हमारे पूर्वाचार्य सदैव पासुरों को समझाने के लिए श्रीरामायण के उदाहरणों को उद्धृत करते थे।

नञ्जीयर् – नम्पिळ्ळै

नम्माऴ्वार् की तिरुवाय्मोऴि के लिए नम्पिळ्ळै का ईडु व्याख्यानम्, हमारे पूर्वाचार्यों का सबसे विख्यात रचना है। द्वय महा मंत्र हमारे पूर्वाचार्यों को सबसे प्रिय है। तिरुवाय्मोऴि को द्वय महामंत्र के दिव्य अर्थ के रूप में समझाया गया है। इस प्रकार तिरुवाय्मोऴि के दिव्य अर्थों पर चिंतन के साथ द्वय महा मंत्र अनुसन्धान स्वाभाविक रूप से हमारे आचार्यों के लिए सुखदायी था।

नम्पिळळै कालक्षेप गोष्ठी

नम्पिळ्ळै पेरिय पेरुमाळ् की सन्निधि के पूर्वी क्षेत्र में श्रीरंगम पेरिय कोइल में नियमित रूप से व्याख्यान दे रहे थे। उनके व्याख्यान इतने मंत्रमुग्ध करने वाले थे कि पेरिय पेरुमाळ् स्वयं नम्पिळ्ळै के व्याख्यान को देखने और व्याख्यान सुनने के लिए शयनावस्था छोड़ कर ऊपर चढ़ जाते थे। वडक्कु तिरुवीधि पिळ्ळै ने नम्पिळ्ळै के उपन्यासम् (व्याख्यान) को वैसे ही लिखित प्रमाणों के रूप में प्रस्तुत किया और पांडुलिपियाँ उनके तिरुवाराधनम (दैनिक पूजा) में रखा करते थे। एक बार, संयोगवश नम्पिळ्ळै उन पांडुलिपियों को देखते हैं और जिस तरह से व्याख्यानों का दस्तावेजीकरण किया गया था, उससे प्रसन्नता से अभिभूत हो जाते हैं। फिर भी, वह इस बात से नाराज़ हैं कि वडक्कु तिरुवीधि पिळ्ळै ने उनकी अनुमति के बिना इसे संकलित किया था। वह उन पांडुलिपियों को ले जाते हैं और उन्हें ईयुण्णि माधव पेरुमाळ् को दे देते हैं। उनसे इसे केवल सबसे योग्य शिष्यों को सिखाने के लिए कहते हैं। वह यह भी बताते हैं कि यह व्याख्यानम् एक महान व्यक्तित्व द्वारा उचित समय पर समस्त विश्व के सामने प्रकट किया जाएगा। ईयुण्णि माधव पेरुमाळ् से यह तिरुवाय्मोऴि पिळ्ळै तक प्रसारित होता है (जिस तरह से इसे प्रसारित किया गया वह ईयुण्णि माधव पेरुमाळ् के चरित्र में बताया गया है)। मामुनिगळ् (श्रीवरवरमुनि) तिरुवाय्मोऴि पिळ्ळै से वही सीखते हैं और उसे पूर्ण स्मरण करते हैं। वह अपने शिष्यों को नियमित रूप से उसी पर व्याख्यान देना आरंभ कर देते हैं।

मामुनिगळ् ईडु कालक्षेप गोष्ठी – श्रीशैलेश दयापात्रम् तनियन्

पेरिय पेरुमाळ् मानते हैं कि ईडु व्याख्यानम् के दिव्य अर्थों को प्रकट करने का सही समय आ गया है और निर्णय लेते हैं कि ऐसा करने के लिए सबसे योग्य ज्ञानी मामुनिगळ् हैं। वह मामुनिगळ् (श्रीवरवरमुनि स्वामी जी) को ईडु व्याख्यानम् (तिरुवाय्मोऴि के अन्य व्याख्यानों के साथ) पर उनके सन्निधि ठीक बाहर व्याख्यान देने का आदेश देते हैं। मामुनिगळ् बहुत सम्मानित अनुभूति कर रहे हैं और बड़ी विनम्रता के साथ, व्याख्यान श्रृंखला आरम्भ करते हैं और नम्पेरुमाळ् अपनी दिव्य पत्नियों के साथ आऴ्वारों/आचार्यों के साथ अन्य सभी उत्सवों को रोककर पूरे एक वर्ष तक कालक्षेपम् सुनते हैं। आनि (ज्येष्ठ मास) तिरुमूलम् (मूल नक्षत्र) के समापन के दिन, भगवान एक छोटे बालक का रूप लेते हैं, “श्रीशैलेश दयापात्रम्” यह तनियन् (महिमापूर्ण छंद) मामुनिगळ् (श्रीवरवरमुनि) स्वामी जी को प्रस्तुत करते हैं और उन्हें अपने आचार्य के रूप में स्वीकार करते हैं।

नम्पिळ्ळै – वडक्कु तिरुवीधि पिळ्ळै – पिळ्ळै लोकाचार्य – नायनार्

वडक्कु तिरुवीधि पिळ्ळै अपने दिव्य पुत्रों पिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी और अऴगिय मणवाळ् पेरुमाळ् नायनार् को ईडु व्याख्यानम् के सिद्धांतों को विस्तार से समझाते हैं। नम्पिळ्ळै को लोकाचार्य नाम कन्दाडै तोऴप्पर द्वारा दिया गया था (नम्पिळ्ळै वैभवम में समझाया गया है)। नम्पिळ्ळै ने वडक्कु तिरुवीधि पिळ्ळै को एक दिव्य पुत्र का आशीर्वाद दिया और कृतज्ञतावश वडक्कु तिरुवीधि पिळ्ळै ने अपने आचार्य (नम्पिळ्ळै लोकाचार्य) की स्मृति में अपने पुत्र का नाम “पिळ्ळै लोकाचार्य” रखा। पिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी श्रीवचन भूषणम् नामक एक दिव्य रहस्य ग्रंथ लिखते हैं। यह ग्रंथ आळ्वारों/आचार्यों के पूर्णतः शब्दों का उपयोग करके संकलित किया गया है। इसीलिए इसका नाम इस प्रकार रखा गया – श्रीवचनम् का अर्थ है पूर्वाचार्यों के शब्द और भूषणम् का अर्थ है आभूषण। यह ग्रन्थ पूर्वाचार्यों के शब्दों से बना एक दिव्य आभूषण है। यह ग्रंथ नम्पिळ्ळै के ईडु व्याख्यानम् के आवश्यक सिद्धांतों को दर्शाता है। अऴगिय मणवाळ् पेरुमाळ् नायनार् (जो वडक्कु तिरुवीधि पिळ्ळै के दूसरे पुत्र हैं, जो श्रीरङ्गनाथ भगवान के आशीर्वाद से पैदा हुए हैं) ने आचार्य हृदयम् का संकलन किया है जो उन्हीं सिद्धांतों को सबसे सुंदर विधि से समझाया है। मामुनिगळ् (श्रीवरवरमुनि) जी ने इन रहस्य ग्रंथों के लिए सुंदर टिप्पणियाँ लिखी हैं। जैसा कि हमने लेखों की श्रृंखला में पहले ही देखा है – हम देख सकते हैं नम्पिळ्ळै का प्रत्येक शब्द पिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी और नायनार् के शब्दों में प्रतिबिंबित होता है उनको मामुनिगळ् (श्रीवरवरमुनि) ने उत्कृष्टता से अलङ्कृत कर समझाया है।

इस प्रकार, हम यह समझ सकते हैं कि:

  • भगवान ने तिरुवाय्मोऴि के रूप में नम्माऴ्वार् के माध्यम से शास्त्र के सबसे आवश्यक सिद्धांतों को प्रकट किया
  • नम्पिळ्ळै को तिरुवाय्मोऴि के दिव्य अर्थ आचार्य परम्परा से प्राप्त हुए। नम्माऴ्वार्–> नाथमुनिगळ् –> आळवन्दार् –> एम्पेरुमानार् –> भट्टर् –> नञ्जीयर्।
  • नम्पिळ्ळै ने अपने ईडु व्याख्यानम् में तिरुवाय्मोळि के अर्थों को वडक्कु तिरुवीधि पिळ्ळै के द्वारा पूरी तरह से समझाया है।
  • ईडु व्याख्यानम् के सिद्धांतों का अध्ययन पिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी और नायनार् द्वारा किया जाता है। इन दोनों ने रहस्य ग्रंथ के रूप में नम्माऴ्वार् और नम्पिळ्ळै के सिद्धांतों को सबसे सटीक रूप से प्रमाणित किया।

मामुनिगळ् इन रहस्य ग्रंथों के लिए अद्भुत टिप्पणियाँ लिखते हैं जो हमारे सत् सम्प्रदाय के दिव्य और सबसे गूढ़ सिद्धांतों की व्याख्या करते हैं। इतना ही नहीं वह ऐसा जीवन जीते हैं जो इन उच्च सिद्धांतों को सबसे सम्मानजनक रूप से प्रदर्शित करता है।
मामुनिगळ् पूरे एक वर्ष तक पेरिय कोयिल् (श्रीरंगम) में नम्पेरुमाळ् और उनकी नाचियारों और आळ्वारों/आचार्यों के सामने विस्तृत व्याख्यानम् देते हैं ।
श्रीरङ्गनाथ, सबसे करुणामय भगवान, स्वयं मामुनि स्वामी जी (सबसे दयालु आचार्य) के शिष्य बन जाते हैं और ओराण् वऴि आचार्य परंपरा को पूर्ण करते हैं।

हम बहुत भाग्यशाली हैं कि हमारे सत् सम्प्रदाय में ऐसा गौरवशाली साहित्य है। यह अमृत का सागर है। यदि हमारे पास इस अमृत का स्वाद है तो हम पूर्णतः अमृत के इस सागर में डूब सकते हैं और भगवत् अनुभव में पूर्णतः सम्मिलित हो सकते हैं। जितना अधिक हम अपने पूर्वाचार्य के कार्यों का अध्ययन करेंगे, उतना ही यह भगवान, भागवतों और आचार्य के प्रति हमारे कैंकर्य को बढ़ाएगा। तो, आइए हम जितना संभव हो सके एक साथ मिलकर अपने पूर्वाचार्यों के कार्यों का अध्ययन करने में संलग्न रहें। न केवल हमारे पूर्वाचार्यों ने भविष्य की पीढ़ियों के लिए दिव्य सिद्धांतों को समझने और उनका पालन करने के लिए इन ग्रंथों का लिपिबद्ध किया, बल्कि उन्होंने पूरी तरह से एक ऐसा जीवन जिया जो दिव्य सिद्धांतों के अनुरूप है जो भगवान को सबसे अधिक प्रसन्न करता है।

कोयिल् विद्वान श्री उ .वे नरसिम्हाचार्यर् स्वामीजी

अडियेन् इस अवसर का लाभ उठाते हुए श्री उ.वे. गोपाकृष्ण दास्य (कोनार) और कोयिल् विद्वान श्री उ .वे नरसिम्हाचार्यर् स्वामीजी को नम्पिळ्ळै के इन दिव्य शब्दों को प्रलेखन के लिए अडियेन् की ओर से सच्चे हृदय से प्रणाम करता है। अडियेन् गोमठम् श्री उ.वे. संपतकुमाराचार्य स्वामीजी को अर्थ सहित भगवद् विषय कालक्षेपम् और नम्पिळ्ळै कार्यों और पिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी और नायनार् के कार्यों के बीच अद्भुत संबंध को समझाने के लिए सादर आभार प्रकट करता है। अडियेन् श्री उ. वे.वेलक्कुडि कृष्णन स्वामी जी का कई वर्षों से पूर्वाचार्य ग्रन्थों को समझाने के लिए भी आभारी है।

अडियेन् दिव्य दम्पति के चरण कमलों में, आऴ्वारों / आचार्यों और अस्मदाचार्य (श्रीमद्परमहंस इत्यादि पट्टर् पिरान् वानमामलै रामानुज जीयर्) के चरणकमलों में प्रार्थना करता है कि वे अडियेन् को यथासंभव हमारे पूर्वाचार्यों के गौरवशाली साहित्य का अध्ययन, प्रलेखन और अनुसरण करने के लिए ऐसे और अधिक समृद्ध कैंकर्यों में संलग्न करें।

आऴ्वार् एम्पेरुमानार् जीयर् तिरुवडिगळे शरणम्
जीयर् तिरुवडिगळे शरणम।
आचार्यन् तिरुवडिगळे शरणम्।

अडियेन् अमिता रामानुजदासी।

आधार – https://ponnadi.blogspot.com/2013/10/divine-revelations-of-lokacharya-conclusion.html

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