लोकाचार्य स्वामीजी की दिव्य श्रीसूक्तियां – १६

 श्री: श्रीमते शठकोपाय नम: श्रीमते रामानुजाय नम: श्रीमद् वरवरमुनये नमः श्री वानाचलमहामुनये नमः

लोकाचार्य स्वामीजी की दिव्य-श्रीसूक्तियाँ

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१५१ – शेषिक्कु अतिसयत्तै विळैक्कैये शेषवस्तुवुक्कु स्वरूपम्।

शेषी-स्वामी/आदि, शेष वस्तु – दास/द्वितीय। एम्पेरुमान् सर्वोच्च स्वामी परमपिता परमात्मा हैं और जीवात्मा नित्य दास है। जीवात्मा की स्वाभाविक क्रिया भगवान की स्तुति करना है

एम्पेरुमानार् (श्रीरामानुजाचार्य) जो  श्रीआदिशेष जी के अवतार हैं -श्रीमन्नारायण के अनन्य दास हैं।

अनुवादक टिप्पणी – एम्पेरुमानार् (श्रीरामानुजाचार्य) स्वामी जी ने शेष/शेषी सम्बन्ध को वेदार्थ संग्रहम् में अद्भुत वर्णन किया है। वह कहते हैं “परगत अतिसय आदान इच्छया उपादेयत्वम् एव यस्य स्वरूपम् स शेष:,पर: शेषी” – वह सत्त्व जो पूर्णतः किसी अन्य सत्व पर निर्भर है और जो पूरी तरह से उस सत्त्व के आनंद में और उसकी स्तुति करने में एकचित्त है, वह सत्त्व शेष कहलाता है और वह अन्य सत्त्व शेषि।

पिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी मुमुक्षुप्पडि सूत्रम् १७७ में उसी सिद्धान्त को प्रकाशित करते हैं। आइये मामुनिगळ् (श्रीवरवरमुनि)की अद्भुत व्याख्यानम् के आधार पर जानते हैं।

शेषिक्कु अतिसयत्तै विळैक्कै शेषभूतनुक्कु स्वरूपलाभमुम् प्राप्यमुम्।

स्वामी/भगवान की स्तुति करना दास का यथार्थ स्वरूप है, दास के लिए चरमोपाय भी यही है।

जब सेवक अपने स्वामी को अपने कार्यों से प्रसन्न नहीं कर पाता, तो वह सच्चा सेवक नहीं है। इसलिए उसे अपनी अच्छे सेवक होने की पहचान बनाने के लिए अपने स्वामी को प्रसन्न करना है। सेवक अपनी पूर्ण सेवा से अपने स्वामी की सुश्रुषा करनी होती है जिससे उसके स्वामी का और अधिक सम्मान बढ़े।

१५२- इङ्गुळ्ळार् अङ्गुप्पोवदु मेन्मैये अनुभविक्क, अङ्गुळ्ळार् इङ्गु वरुवदु सीलगुणानुभवम् पण्णुगैक्कु।

जीवात्मा संसार (भौतिक जगत) में भगवान की सर्वोच्चता का आनन्द लेने के लिए परमपदम् पहुँचने की इच्छा रखते हैं। परमपदम् में रहने वाले नित्यसूरी भगवान की सरलता/उदारता का आनन्द लेने के लिए संसार में आते हैं।

अनुवादक टिप्पणी – भगवान परमपदम् में अपनी सर्वोच्चता को प्रकट करते हैं। परमपदम् में प्रत्येक (नित्य और मुक्त) को पूर्णतया बोध है, वे एम्पेरुमान् की सर्वोच्चता को स्वीकारते हैं। जब एम्पेरुमान् इस संसार में अवतरित होते हैं, तब संसारी लोग उनका विरोध करते हैं और उनकी सर्वश्रेष्ठता को नहीं स्वीकारते। श्रीमद्भगवद्गीता में कण्णन् एम्पेरुमान् (श्रीकृष्ण भगवान) ने स्वयं उन लोगों की निन्दा की है जो भगवान की सर्वोच्च सत्ता को स्वीकार नहीं करते। इसलिए मुमुक्षु (वे जो मोक्ष प्राप्ति की इच्छा रखते हैं) परमपदम् पहुँचना चाहते हैं और भगवान की सर्वोच्चता का आनन्द लेना चाहते हैं।

तिरुवेङ्कटमुडैयान् (तिरुपति बालाजी) तिरुमलै में अपने कल्याण गुणों को प्रकट करते हैं।

भगवान के सौशील्य और सौलभ्य कल्याण गुण का इस संसार में पूर्णतः प्राकट्य है। ओऴिविल् कालम् पदिगम (दशक) में नम्माऴ्वार् एम्पेरुमान् (श्रीमन्नारायण) के लिए कैङ्कर्य करने के लिए तत्पर होते हैं। एम्पेरुमान् उसी समय कहते हैं, “आऴ्वार्, यहाँ तक कि नित्यसूरी भी नीचे संसार में मेरे सौशील्य (उदारता) का आनन्द लेने आते हैं। तब आप यहां आकर मेरे लिए कैङ्कर्य क्यों नहीं करते?” नम्माऴ्वार् इसे समझते हैं और पूर्ण श्रद्धा से तिरुवेङ्कटमुडैयान् की स्तुति करते हैं और तिरुवेङ्कटमुडैयान् के लिए वाचिक (वाणी से) कैङ्कर्य करते हैं।

१५३ – तिरुवनन्ताऴ्वान् मडियिले पेरियपिराट्टियारोडे एऴुन्दरुळियिरुक्कक् कण्डनुभविक्कैयिऱे मुक्तप्राप्य भोगन्तान्।

नित्यमुक्त भगवान जो आदिशेष की गोद में  महालक्ष्मीदेवी के साथ बैठे हैं के दिव्य दर्शन का परमानन्द लेते हैं। 

अनुवादक टिप्पणी – विस्तार से १४१ सूक्ति देखें।

१५४- ज्ञानानन्दङ्गळन्ऱु वस्तुवुक्कु निरूपकम्, शेषत्वमॆङ्गै,  ज्ञानानन्दङ्गळिलुम् अन्तरङ्गम् भगवच्छेषत्वमॆङ्गै।

जीवात्मा की पहचान उसके ज्ञान (चेतना) और आनन्द (उल्लास) से होती है। फिर भी ये गुण जीवात्मा के यथार्थ स्वरूप को प्रकट नहीं करते। शेषत्वम् (भगवान का दास होना) वह है जो जीवात्मा के यथार्थ स्वरूप को उजागर करता है। शेषत्वम् की ज्ञान और आनन्द से अधिक महत्ता है।

तिरुक्कोष्टियूर् नम्बि – एम्पेरुमानार् – आऴ्वान्

अनुवादक टिप्पणी – सामान्यतः यह कहा गया है कि जीवात्मा की स्पष्टतः पहचान उसके ज्ञान और आनन्द से होती है। परन्तु इससे भी अधिक जीवात्मा की पहचान भगवान के प्रति उसके दास्य भाव से ज्ञात होती है।

तिरुवाय्मोऴि ८.८ कण्गळ् सिवन्तु पदिगम, एम्पेरुमान् पहले ढाई पासुरों में स्वयं के वास्तविक स्वरूप को प्रकट करते हैं। शेष साढ़े सात पासुरों में जीवात्मा के वास्तविक स्वरूप का उल्लेख किया है। दूसरे पासुर में नम्माऴ्वार कहते हैं “अडियेन् उळ्ळान् उडल् उळ्ळान्”– अर्थात् भगवान इस आत्मा और शरीर में विद्यमान हैं। आत्मा की पहचान के लिए आऴ्वार् अडियेन् शब्द का प्रयोग करते हैं, अडियेन् अर्थात् दासन् (दास) न कि “मैं”। इस पासुर को ईडु व्याख्यानम् में नम्पिळ्ळै ने इस सुंदर घटना का वर्णन किया है। जब एम्पेरुमानार् (श्रीरामानुजाचार्य) अपने शिष्यों को जीवात्मा का वास्तविक स्वरूप की व्याख्या कर रहे होते हैं तब जीवात्मा के वास्तविक स्वरूप का एक प्रश्न आ गया। एम्पेरुमानार् तिरुकोष्टियूर् नम्बि (अपने आचार्यों में से एक) (गोष्ठीपूर्ण स्वामी जी) के शब्दों के माध्यम से सत्य प्रमाणित करना चाहते हैं। इसके लिए आळ्वान् (कूरताळ्वान्/कुरेश स्वामी जी) को जाने के लिए कहते हैं और तिरुकोष्टियूर् नम्बि से जीवात्मा का वास्तविक स्वरूप पूछने के लिए कहते हैं। आळ्वान् तिरुकोष्टियूर् जाते हैं और धैर्यपूर्वक तिरुकोष्टियूर् नम्बि की सेवा करते हैं। अंत में छ: महीने बीत जाने पर नम्बि आळ्वान् से आने का कारण पूछते हैं। आळ्वान् प्रश्न बताते हैं और तिरुकोष्टियूर् नम्बि स्वामी जी उसी क्षण कहते हैं “आऴ्वार कहते हैं ‘अडियेन्  उळ्ळान्’” आऴ्वान् शीघ्र ही उसका अर्थ समझ जाते हैं और वापिस एम्पेरुमानार् और श्रीवैष्णव  गोष्ठी को बताने के लिए आते हैं। इसीलिए अडियेन् (दास होना) जीवात्मा की प्राथमिक पहचान है। 

पिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी ने मुमुक्षुप्पडि तिरुमन्त्रम् प्रकरणम् में सूत्रों की सूची में यह उल्लेख किया है कि शेषत्व जीवात्मा के लिए विशिष्ट कारक है और जीवात्मा का वास्तविक स्वरूप है। मामुनिगळ् (श्रीमद् वरवरमुनि) ने शास्त्र से बहुत प्रमाण उद्धृत किए हैं “आत्म दास्यम् हरेस् स्वाम्यम् स्वभावम् च सदास्मर”, आदि 

१५५ -चेतननुक्कु भगवत्स्वरूपत्तिलुम् दिव्य मङ्गळ विग्रहमे उद्देश्यमानाप्पोले, ईश्वरनुक्कुम् आऴ्वार् स्वरूपत्तिलुम् अवर् कऴिक्किऱ सरीरम् उद्देश्यमाय्त् तोट्रुम्। चेरुक्कर् अभिमत विषयत्तिल् अऴुक्कु उगक्कुमापोले।

जीवात्मा के लिए भगवान के स्वरूप से अधिक, भगवान का दिव्य मङ्गळ रूप आनन्ददाता है। उसी प्रकार, भगवान के लिए नम्माऴ्वार् (जीवात्मा) के वास्तविक स्वरूप की अपेक्षा दिव्य रूप अधिक आनन्ददायक है, चाहे आऴ्वार् स्वयं अपने शरीर को त्याग कर परमपद जाना चाहते हों। उदाहरणतः एक अभिमानी मनुष्य अपने प्रिय सहभागी की गंदगी/स्वेद में आनन्दित होता है, एम्पेरुमान् (श्रीमन्नारायण)/जीवात्मा एक दूसरे के शरीर (दिव्य रूप) का आनन्द लेते हैं।

कळ्ळऴगर् नम्माऴ्वार् के दिव्य मङ्गल रूप में संलग्न

अनुवादक टिप्पणी-हमारे पूर्वाचार्यों को एम्पेरुमान् (श्रीमन्नारायण) के दिव्य मङ्गल विग्रह के प्रति आसक्ति रही है। उन्होंने एम्पेरुमान् के वास्तविक स्वरूप की अपेक्षा दिव्य स्वरूप को अधिक महत्व दिया। नम्माऴ्वार् (श्रीशठकोप स्वामी जी) अपने पहले पासुर में परिचित कराते हैं कि एम्पेरुमान् सगुण ब्रह्म हैं। 

इसलिए एम्पेरुमान् नम्माऴ्वार् (और अन्य आऴ्वार्) का दिव्य मङ्गळ रूप के प्रति आसक्त हैं। कारणस्वरूप, तिरुवाय्मोऴि के अन्तिम १०.७ “चेञ्जोऱ् कविगाळ्) पदिगम में नम्माऴ्वार् (श्रीशठकोप स्वामी जी) ने तिरुमालिरुञ्जोलै एम्पेरुमान् को आऴ्वार् के दिव्य विग्रह/देह के प्रति आसक्ति को त्यागने के लिए बलपूर्वक आग्रह करते हैं, क्योंकि यह दिव्य देह को इस भौतिक जगत में त्यागना है- परन्तु एम्पेरुमान् आऴ्वार् के दिव्य रूप या देह को पीछे छोड़ना नहीं चाहते, इसकी अपेक्षा आऴ्वार् को उनके दिव्य सदेह परमपद में लाना चाहते हैं।

इस प्रमाण या सिद्धांत को श्रीमद्रामायण में अद्भुत सुन्दरता से वर्णित किया है जिसको पिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी और श्रीमद्वरवरमुनि जी ने अद्भुत बुद्धिमत्ता से श्रीवचनभूषणम् दिव्य शास्त्र के १६६ सूत्र में वर्णित है।

‘स्नानम् रोष जनकम्’ एन्गिऱ वार्त्तैयै स्मरिप्पदु।

श्रीरामजी ने रावण पर विजय प्राप्त करने के पश्चात् सीता पिराट्टि (माता) का अवलोकन वैसा ही करना चाहते थे जैसे वे उस समय थीं -श्रीरामजी सीता माता को गन्दगी के आवरण में ही निहारना चाहते थे। परन्तु विभीषण सीता माता को श्रीराम जी के पास ले जाने से पहले स्नान करने, और पवित्र होने के लिए आग्रह करते हैं (एम्पेरुमान् की अभिलाषा को बिना समझे)। जब पिराट्टि (माता) स्नान/पवित्र होकर श्रीराम जी से भेंट करने पहुंचती हैं, उनकी अभिलाषा पूर्ण न होने के कारण वे उद्विग्न हो जाते हैं। वास्तविक रूप में इस लीला को प्रस्तुत करना कठिन है परन्तु मामुनिगळ्(श्रीवरवरमुनि स्वामी जी)ने इस लीला के वर्णन से उत्पन्न प्रश्नों का अद्भुत्  उत्तर वर्णन किया है। आइए श्रीवरवरमुनि स्वामी जी की प्रतिभाका अवलोकन करें और समझें:-

  • प्रथम, श्रीराम जी ने स्वयं विभीषणाळ्वान् को निर्देश दिया कि सीता माता को स्नानदि कराकर और पवित्र करके लाइये, परन्तु ऐसा उन्होंने केवल मङ्गल शब्दों के प्रयोग मात्र के लिए कहा(मिट्टी के आवरण सहित ले आओ यह कहने की अपेक्षा)
  • विभीषणाळ्वान् एम्पेरुमान् की रुचि को बिना समझे ही पिराट्टि ( माता)के पास  जाकर स्वयं को स्नान और पवित्र होने के लिए कहते हैं।
  • पहले पिराट्टि मना करती हैं परन्तु विभीषणाळ्वान् के आग्रह को मान  कलेती हैं , श्रीवरवरमुनि स्वामी जी स्पष्टीकरण करते हैं कि पिराट्टि श्रीराम जी की जिज्ञासा को जानते हुए भी , उपेक्षा करती हैं।
  • वास्तव में, श्रीराम जी माता को उसी स्वरूप में अवलोकित करना चाहते थे। इसी कारण वे क्रोधित हुए क्योंकि अभिलाषा पूर्ण नहीं हुई और उनका क्रोधित होना न्यायसङ्गत है।

१५६ – जीवपरभेदमुम् जीवर्गळुक्कु परस्पर भेदमुम् शेषशेषी सम्बन्धमुम् परमार्थम्।

जीवात्मा और परमात्मा में अन्तर है। प्रत्येक जीवात्मा एक दूसरे से भी भिन्न है। एम्पेरुमान् (श्रीमन्नारायण) स्वामी हैं और आत्मा दास हैं। यह मुख्य सिद्धांत है।

अनुवादक टिप्पणी – यहाँ समझने के लिए महत्वपूर्ण सिद्धांत हैं, जिनमें निम्नलिखित सम्मिलित हैं:-

  • आत्मा और परमात्मा का अस्तित्व भिन्न-भिन्न है, वे एक नहीं हैं।
  • एक दूसरे से भिन्न असंख्य आत्माएँ हैं (परन्तु उनका  लक्षण एक है)
  • सभी जीवात्मा सदैव परमात्मा के परतन्त्र सेवक हैं। जीवात्मा के अस्तित्व का उद्देश्य भगवान का मुखोल्लास करना है जो उनके स्वामी हैं।

कण्णन् (श्रीकृष्ण) युद्ध स्थल में अर्जुन को दिव्य वार्तालाप में संलग्न करते हैं। इस दिव्य वार्तालाप का शुभपरिणाम अतुलनीय दिव्य गीता शास्त्र है। जबकि अर्जुन युद्ध स्थल में अपने बंधु बांधवों को विपक्ष में खड़े देखा तो वह एम्पेरुमान् (श्रीमन्नारायण) (श्रीकृष्ण) के पूर्ण शरणागत हो गया और मार्ग दर्शन करने के लिए प्रार्थना करने लगा। श्री कृष्ण ने यथार्थ सत्य के बारे में अपना कथन आरम्भ किया और पहले श्लोक में हमारे सत्सम्प्रदाय के सबसे महत्वपूर्ण सिद्धांत को समझाते हैं।

भगवत् गीता-१२ -न त्वेवाहम् जातु नासम् न त्वं नेमे जनाधिपाः।

न चैव न भविष्याम: सर्वे वयमत: परम्।।

सरलार्थ – ऐसा कोई भी समय नहीं था जब मैं विद्यमान नहीं था, न तो तुम और न ही ये राजा विद्यमान नहीं थे। ऐसा कोई समय नहीं आएगा जब मैं, तुम और ये राजा नहीं रहेंगे।

एम्पेरुमानार् अपने गीता भाष्य में एक सामान्य श्लोक में एम्पेरुमान् की महत्ता को बहुत अद्भुत सौन्दर्य से प्रस्तुत करने के लिए अतिमहत्वपूर्ण सिद्धान्तों को प्रकट करते हैं।

  • प्रथम, स्वयं और अर्जुन (मैं -तुम) के बीच अंतर करके, भगवान यह परिभाषित करते हैं कि जीवात्मा परमात्मा से भिन्न है।
  • अर्जुन और सभी राजाओं को भिन्न-भिन्न परिभाषित करते हुए यह बताया कि यहाँ कई आत्माएँ हैं और वे एक-दूसरे से भिन्न हैं।
  • तुम और राजा पहले भी अस्तित्व में थे और बाद में भी रहेंगे -इस प्रकार कहकर- उन्होंने प्रमाणित किया कि प्रत्येक आत्मा का वर्तमान शरीर अस्थाई है और आत्मा स्थाई है। शरीर का तो अन्त विनाश हो जाता है, यह एक सर्वविदित तथ्य है (इसे समझने के लिए शास्त्र की आवश्यकता नहीं है -प्रत्यक्ष ही पर्याप्त है,) शरीर की पहचान सदा अस्तित्व में रहना नहीं है। इसलिए आत्मा का चिर स्थाई स्वरूप ही प्रकाशित होता है।
  • एक आचार्य होने का पद ग्रहण करके, वह(भगवान) यह दर्शाते हैं कि जीवात्मा उसके परतन्त्र है। पश्चात् विराट आदि रूप में प्रकट होकर अपनी सर्वोच्चता प्रदर्शित करते हैं।

१५७- इल्लैयल्लराय् उळराय् इरुप्पर् आश्रितर्क्कु, इल्लैयागिये उळराय् इरुप्पर् अनाश्रितर्क्कु।

अपने दासों के लिए (जो उनको स्वीकारते हैं और उसके शरणागत हैं), एम्पेरुमान् (श्रीमन्नारायण) स्वयं को प्रकट करते हैं और “अस्ति“ (अस्तित्व) का अर्थ प्रमाणित करते हैं। वह जो भगवान की सेवा नहीं करते वे कहते हैं कि भगवान का कोई अस्तित्व नहीं है। इन लोगों के लिए भगवान स्वयं प्रकट होते हैं और “नास्ति”(अविद्यमान) ,का अर्थ बतलाते हैं।

अनुवादक टिप्पणी – तिरुवाय्मोऴि में १.१.९ पासुरम् में,नम्माऴ्वार् ने बहुत सुन्दर तथ्य प्रस्तुत किए हैं

आइए यहां देखें।

उळन् एनिल् उळन् अवन् उरुवम् इव्वुरुवुगळ्
उलन् अलन् एनिल् अवन् अरुवम् इव्वरुवुगळ्
उळन् एन इलन् एन इवै गुणम् उडैमैयिल्
उळनिरु तगैमैयोडु ओऴिविलन् परन्दे

सरल व्याख्या – (वादिकेसरि अऴगिय मणवाळ् जीयर् की १२००० पडि के व्याख्यान के प्रत्येक शब्द का अनुकरण पर आधारित) आऴ्वार् का अपना दृष्टिकोण (शास्त्र के अनुसार भगवान की कृपा आऴवार् को दिव्य निष्कलङ्क ज्ञान के लिए) है कि “भगवान का अस्तित्व है” और अवैधिक यह मानते हैं कि “भगवान का अस्तित्व नहीं है”। परन्तु दोनों मत में, भगवान का अस्तित्व है या नहीं, यह प्रमाणित करने के लिए हमें स्वीकारना होगा कि एक सर्वोच्च सत्ता है (यदि किसी को यह कहने की आवश्यकता है कि श्रीकृष्ण का अस्तित्व नहीं है, तब श्रीकृष्ण नामक वस्तु को समझाया जाए है तो ही उसकी अस्तित्व न होने की बात प्रमाणित हो सकती है)। इसलिए भगवान सर्वत्र व्याप्त हैं, (सर्वव्यापक) इस गुण के आधार पर भगवान को व्यक्त और अव्यक्त स्वरूप (साकार और निराकार) में समझाया जा सकता है। वे सभी वस्तुओं के केन्द्र बिन्दु होने के कारण, उनके साकार या निराकार स्वरूप केवल भगवान‌ के सर्वव्यापक गुण के आधार पर ही समझा सकते हैं।

पिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी सर्वान्तर्यामित्व सिद्धांत (सर्वव्यापक भगवान) तत्वत्रयम् – ईश्वर प्रकरणम् (भगवान के स्वरूप और वैभव की व्याख्या करने वाला भाग) में वर्णन करते हैं। यहाँ १९८ और १९९ सूत्रम् में, भगवान का सर्वान्तर्यामित्व जो दो प्रकार से है, प्रस्तुत किया है।

  • एम्पेरुमान् (श्रीमन्नारायण) प्रत्येक वस्तु के अन्दर ऐसी अवस्था में विद्यमान हैं, जिसे हम इन इन्द्रियों से प्रत्यक्ष नहीं देख सकते।
  • एम्पेरुमान् योगियों के हृदय में दिव्य स्वरूप में विराजते हैं – जिससे  योगी एकाग्रचित्त होकर उपासना (ध्यानम्) करते हैं।

१५८- “नमः” शब्दुत्तुक्कु शाब्दमान अर्थम् “नान् एनक्कुरियेनल्लेन्”

तिरुमन्त्रम् में “नम:” की व्याख्या की है कि जीवात्मा यह स्वीकारता है कि “मैं स्वयं का नहीं हूँ” जिसका अर्थ हुआ कि (मैं भगवान का हूँ।)

अनुवादक टिप्पणी   जब नमः शब्द को दो भागों में विभाजित करते हैं – तब न और म: ये दो अक्षर सामने आते हैं – यहाँ म: का अर्थ है “मेरे लिए” जबकि न “इसे नकारता है”, इसका अर्थ है “मेरे लिए नहीं”। पिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी बहुत ही महिमा से “नम:” शब्द को मुमुक्षुप्पडि में समझाया है। मामुनिगळ् (श्रीवरवरमुनि) स्वामी जी की सटीक टीका को दिव्य व्याख्या के मुख्य अंशों में देखते हैं।

  • सूत्रम् ७९- :’ एन्गिऱ इत्ताल्, ‘तनक्कु उरियन्’ एन्गिऱतु, ‘न’ एन्ऱु अत्तैत् तविर्क्किरदु – म: अर्थात् “मेरे लिए “(संस्कृतम् का छठा कारक) जो स्वयं के प्रति दासता दिखलाता है, संस्कृतम् में न का प्रयोग सामान्यतया निषेध के लिए किया जाता है – इसलिए यह  एकदा स्वयं के लिए दासत्व को हटा देता है।
  •  सूत्रम् ८०- आग ‘नम:’ एन्गिर इत्ताल्, तनक्कु उरियनन्ऱु एन्गिऱदु – इस प्रकार नमः के आधार पर यह ज्ञात होता है कि जीवात्मा स्वयं के लिए नहीं है।
  • सूत्रम् ८१- पिऱर्क्कु उरियनान अन्ऱु तन् वैलक्षण्यत्तैक् काट्टि मीट्कलाम्। तनक्केन्नुमन्ऱु योग्यतैयुम् कूड अऴियुम्। यहाँ एक महत्वपूर्ण तथ्य की चर्चा की गई है। यहाँ नमः में इस बात की महत्ता दिखाई गई है कि “कोई स्वयं का सेवक नहीं है” (जीवात्मा भगवान के अतिरिक्त किसी के दासता करने का सुस्पष्ट उल्लेख नहीं है)। भगवान के अतिरिक्त जीवात्मा किसी अन्य की सेवा करता है तो उसे भगवान की सर्वोच्च सत्ता आदि के बारे में जानकारी दी जा सकती, है भगवान की पूर्ण उपासना में संलग्न किया जा सकता है। परन्तु वह केवल स्वयं पर केंद्रित है (पूर्ण स्वार्थ) तो वह भगवान की सेवा के योग्य नहीं है इसलिए स्वयं सेवी न होने पर ध्यान देना चाहिए।

१५९-  ओरु कन्निकैयानाल् ओरुवनुक्केयायिरुक्कैयुम् तान् तनक्कुरियळ् अन्ऱिक्केयिऱुक्कैयुमिऱे स्वरूपम्।

नम्माऴ्वार् मायाप्पिरान् (कुट्टनाट्टु तिरुप्पुलियूर्) के प्रति अनन्यार्ह शेषत्वम् को प्रकट कर रहे हैं।

एक स्त्री एक ही पुरुष के साथ विवाह के लिए तैयार होती है। वह न तो दूसरों से संबद्ध होती है न ही अपने साथ। यही यथार्थ स्वरूप है। जीवात्मा की स्थिति ऐसी है -वह केवल भगवान से संबद्ध है किसी और से नहीं (स्वसहित)।

अनुवादक टिप्पणी – प्रणवम् में उकारम् अनन्यार्ह शेषत्वम् (जीवात्मा केवल भगवान ( श्रीमन्नारायण) का दास है)। पिळ्ळै लोकाचार्य स्वामीजी ने मुमुक्षुप्पडि- तिरुमन्त्रम् प्रकरणम् में “नम:” शब्द का बहुत अद्भुत वर्णन किया है (तिरुमन्त्रम् में नमः, प्रणवम् में उकारम् का विस्तृत रूप है)।

  • सूत्रम् ९१-  ईश्वरन् तनक्केयायिरुक्कुम्, अचित्तुप् पिऱर्क्केयायिरुक्कुम्, आत्मा तनक्कुम् पिऱर्क्कुम् पोदुवायिरुक्कुम्’ एन्ऱु मुऱ्-पट्ट निनैवु,अङ्गनन्ऱिक्के अचित्तैप्पोले तनक्केयाग एनैक्कोळ्ळ वेणुमेन्गिरदु नमस्साल्। जब प्रणवम् (अकारम्-आय -उकारम्-मकारम्) को ऊपर-ऊपर से समझा जाता है -प्रत्येक यह सोचेगा कि भगवान सम्पूर्ण स्वतन्त्र है (वह अपने हित के लिए ही सदा देखेंगे), वस्तु (अज्ञानी) सदा भगवान के‌ लिए उपस्थित है और जीवात्मा स्वयं के उपकार (ज्ञानी होने के कारण) के साथ भगवान की इच्छाओं (दास्य भाव होने के कारण) के लिए उपस्थित रहता है। परन्तु एक बार जब नमः का गहन अर्थ ज्ञात हो जाने पर, जीवात्मा पूर्णतः सहमत हो जाता है कि उसे भी केवल पदार्थ की भांति होना है, अर्थात् स्वार्थ त्याग कर केवल भगवान की इच्छाओं पर केंद्रित रहे।
  • सूत्रम् ९२-  अदावदु भोग दशैयिल् ईश्वरन् अऴिक्कुम्पोदु नोक्कवेणुमेन्ऱु अऴियातोऴिगै– अर्थात् जब भगवान जीवात्मा को स्वीकारते हैं और अति प्रेम से जीवात्मा का आनन्द लेना चाहते हैं, तब जीवात्मा को पूर्णतया सहमत होना चाहिए – भले ही भगवान जीवात्मा को अपने लिए श्रेष्ठ बनाना चाहते हैं और स्वयं को जीवात्मा से छोटा बना लेते हैं (जिस प्रकार पिता अपनी संतान को उठाकर अतिस्नेह से अपने शीर्ष पर बैठा देता है), जीवात्मा को इसका विरोध नहीं करना चाहिए कि “आप (भगवान) ऐसा नहीं कर सकते यह मेरे दास्यता के विरुद्ध है” -उसे भगवान को सरलता से अनुमति देनी चाहिए कि जो वे चाहते हैं करें।

नम्माऴ्वार् तिरुवाय्मोऴि में एम्पेरुमान् के प्रति पूर्ण परतन्त्रता (शरणागत) प्रकट करते हैं –एम्मा वीट्टुत् तिऱमुम्” (२.९) और “करुमाणिक्क मलै मेल्” (८.९)  पदिगम (दशकों)।

१६०- नारायण शब्दत्तुक्कु अर्थम् स्वामित्व, वात्सल्य, उपायत्व, व्यापक्त्वम् इत्यादियिऱे। चतुर्थिक्कु अर्थम् कैङ्कर्य प्रार्थनैयिऱे।  

तिरुमन्त्रम् में, नारायणाय का सन्धि विच्छेद है नारायण और आय। नारायण स्वामित्व को प्रकट करता है (सभी जीवत्माओं और अचेतनम् पर स्वामित्व), वात्सल्यम् (सभी जीवत्माओं पर मातृत्व से सहनशीलता दिखाना और उनको दोषसहित सहृदय स्वीकार करना), उपायत्वम् (वह साधन है जिससे चरम लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है), व्यापक्त्वम् (सर्वव्यापक) इत्यादि। आय (संस्कृत व्याकरण का चतुर्थ कारक) भगवान के कैङ्कर्य में संलग्न होने के लिए प्रार्थना को उजागर करना।

श्रीमन्नारायण – सर्वोच्च भगवान और सबके स्वामी

अनुवादक टिप्पणी -नारायण शब्द के दो अर्थ हैं:

  • प्रत्येक वस्तु (चित्त और अचित्त) भगवान पर आश्रित हैं – आधारत्वम् (प्रत्येक वस्तु का निवास स्थान)- यह उनके (भगवान के) परत्वम् (सर्वोच्चता) को स्पष्ट करता है। यह उस गुण को दर्शाता है कि वे केवल एक ही ऐसा तत्व है जो प्रत्येक वस्तु में सहज रूप से विद्यमान है। इसीलिए यह सिद्ध होता है कि भगवान प्रत्येक वस्तु के स्वामी हैं।
  • भगवान प्रत्येक वस्तु (चित्त और अचित्त) में हैं- अन्तर्यामित्व (सर्वव्यापकता)- यह भगवान के सौलभ्यता (आसानी से प्राप्त होना) को दर्शाता है -जब कि भगवान प्रत्येक वस्तु के नियंत्रक हैं फिर भी करुणावश प्रत्येक वस्तु में विद्यमान हैं और प्रत्येक क्षण जीवात्मा का पथ प्रदर्शन करते हैं। इस प्रकार यह उनके वात्सल्यम् (मातृत्व सहनशीलता) को भी प्रकट करते हैं।

‘आय’ एम्पेरुमान् के प्रति की गई उस प्रार्थना को प्रकट करता है जो उसे सभी कैङ्कर्य में संलग्न करें, जैसे आदिशेष प्रत्येक क्षण प्रत्येक संभव प्रयत्न से भगवान की सेवा कर रहे हैं।

अडियेन् रामानुजदासी अमिता 

आधार – https://ponnadi.blogspot.com/2013/09/divine-revelations-of-lokacharya-16.html

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