श्री वैष्णव लक्षण – ५

श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवर मुनये नमः
श्री वानाचल महामुनये नमः

श्री वैष्णव लक्षण

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श्रीवैष्णवों के आंतरिक गुण

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अब तक हमने श्रीवैष्णवों के बाह्य स्वरूप, पञ्च संस्कार के बारे में जाना है जिससे एक श्रीवैष्णव के जीवन का प्रारंभ होता है और आचार्यशिष्य के रिश्तो के बारे में जाना है। अब हम और एक मुख्य विषय – आंतरिक स्वरूप के तरफ ध्यान देंगे जो कि एक श्रीवैष्णव को पूरी तरह श्रीवैष्णव कहलाने के योग्य दिलाता है। यह सब अपने पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों में अच्छी तरह समझाया जा गया है, लेकिन इनका मूलभूत मुमुक्षुपडी के द्वय प्रकरनम के पहले सूत्र में समझाया गया है।

मुमुक्षुपडी और उसके लेखख के बारे में थोडी सी जान पहचान:

पञ्च संस्कार का एक भाग होने के कारण आचार्य अपने शिष्य को रहस्यत्रय (मूलमंत्र, द्वयमंत्र, चरममंत्र) के बारें में सिखाते हैं। रहस्यत्रय का मूल उद्देश अर्थपञ्चक सिखाना हैस्वस्वरूप, परस्वरूप, पुरूषार्थस्वरूप, उपाय स्वरूप, विरोधी स्वरुप। अपने पूर्वाचार्य इसी दृढता के साथ शास्त्र के आधार पर यही कहते थे कि अर्थपञ्चक का ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है बाकि सब अज्ञान है। यह ग्रन्थ को तीन भाग में बांटा गया है – मूलमंत्र, द्वयमंत्र, चरममंत्र तीनों के लिये एक एक भाग। मूलमंत्र अर्थपञ्चक के मूल तत्त्व का मतलब समझाता है द्वयमंत्र अपने दो भागों में नम: और नारायण के बारें में विस्तार से समझाता है, जो आगे भी चरमश्लोक के दोनों भागों में समझाया गया है। पिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी, जो भगवान के विशेष अवतार हैं, अपने निर्हेतुक कृपा से रहस्यत्रय के बारें में बहुत ही साधारण भाषा में समझाये हैं ताकि सभी लोग इस ज्ञान को समझ सके और प्राप्त कर सके। वरवरमुनि स्वामीजी ने इस ग्रन्थ की अनंत गौरव को अत्यन्त सुन्दर टीका में समझाया है।

एक श्रीवैष्णव अधिकारी बनने के गुण:

रहस्यत्रय के तीन भागों में, मूलमंत्र को मंत्र रहस्य कहते हैं, द्वयमंत्र को अनुसन्धान रहस्य कहते हैंइस मंत्र को किसी भी समय और किसी भी अवस्था में अनुसन्धान करते रहना चाहिए और चरममंत्र को विधी रहस्य भी कहते हैं और जो हमें आज्ञा करता है कि हमें क्या नहीं करना चाहिए और क्या करना चाहिए। हमारे पूर्वाचार्यों द्वयमंत्र का बहुत आदर करते थें और श्रीशठकोप स्वामीजी श्रीसहस्त्रगीति में द्वयमंत्र के बारे में पूर्ण तरह से समझाया है। यह द्वय मंत्र की शुरुवात है, पिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी ने उन श्रीवैष्णवों के विशिष्ट लक्षण के बारे में चर्चा की है जो द्वयमंत्र का अनुसन्धान कर सके।

इसको हम अब एकएक करके चर्चा करेंगे:

  • पुरमबुंदान पट्रकल अढैया वासनैयोड़े विदुगैयुम – हमें सिर्फ भगवतभागवत विषय में रूची रखना चाहिए, इतर सांसारिक वासनाओं से लगाव हटाना चाहीए। जब हम भगवान में रूची भाव बढायेंगे तब अपने आप सांसारिक वासनाओं से दूर होते जायेंगे। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी इसे श्री भगवान कृष्ण द्वारा कहे गये चरम श्लोक, “ सर्वधर्मान परित्यज्य” से संबंधित करते हैं।

  • “सिर्फ भगवान ही रक्षक हैं किसी भी परिस्थिती में उनके सिवा दुसरा कोई रक्षा करने के योग्य नहीं” – इस बात पर सभी को पूर्ण विस्वास होना चाहिए। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी इसे चरम श्लोक के “मम” पद से जोडते हैं जिसका मतलब कोई अन्य हमारी रक्षा नहीं कर सकते हैं। एम्पेरुमानैए तंजम एंड्रू पतृगैयुम – इस स्लोक में “एम्पेरुमानैए” का अर्थ चरम स्लोक के “एकं” शब्द से जुड़ता है, “तंजम” का अर्थ चरम स्लोक के “शरणमं” शब्द से जुड़ता है और “पतृगैयुम” का अर्थ चरम स्लोक के “व्रज” शब्द से जुड़ता है।

  • पेरू तप्पादु एन्ड्रू तुनिन्दुिरुक्कैयुम – हर एक को भगवान में यह पूर्ण विश्वास रखना चाहिए कि अंतिम फल यानि मोक्ष तो भगवान श्रीमन्नारायण ही देंगे। हमारे मन में तीन शंखा आ सकती है ) ब्रह्मा आदि देवताओं को भी भगवान नहीं मिलते फिर हम साधारण मनुष्य को कैसे प्राप्त होंगे? ) कैसे एक छोटी सी प्रपत्ती हमें भगवान से मिला सकती है? ) कैसे हम जैसे अति कठोर और निचले वर्णवालों को भगवान मोक्ष दे सकते हैं? परन्तु हमें सिर्फ इस विशय में स्थिर रहना चाहिए कि भगवान ही हमारे स्वामी हैं और हम उनकी संपत्ति हैं और यह दृढ विश्वास रखना चाहिए कि वह हमें मोक्ष अवश्य हीं प्रदान करेंगे। हमारे पूर्वाचार्य हमें उपर के लिखे तीनों प्रश्नों का पर्याप्त उत्तर देते हैं। १)ब्रह्मा आदि देवता सोचते हैं कि वे स्वतंत्र हैं और भगवान हमें उनको उनके खुद के बल से मिल जायेंगे परन्तु प्रपन्न यह सोचते हैं कि हम भगवान के परतंत्र हैं और भगवान ही हमें मोक्ष दे सकते हैं। २)हमारी प्रपत्ती हमें यह स्वीकार कराती हैं कि भगवान हीं हमारे स्वामी हैं और हम उनके हीं संपत्ति हैं, यह कोई उपाय नहीं हैं । ३) हमारी वर्ण जाती जो भी हो , भगवान तो कृपालु हैं, अगर हम अपनी गलतियाँ देखते हैं तो मोक्ष तो असम्भव हैं, अगर हम भगवान की कृपा को देखें तो यह सभी सम्भव है।

  • पेत्रुक्कु द्वरिककैय्युं – हम लोगों को ऎसे भी संतुष्ट नहीं रहना चाहिए और यह नहीं कहना चाहिए कि जब भगवान ही उपाय है तो हमें कुछ भी करने की ज़रुरत नहीं है और हम ८० साल ख़ुशी से बीतकर , धन दौलत इकट्टा करके उसकी पूरी तरह से आनंद लेकर, संतति वृद्धि में समय व्रय करके अंत में मोक्ष को भी प्राप्त कर सकते हैं। जिस तरह श्रीशठकोप स्वामीजी कई बार रोते हुए भगवान से विनती करते रहतें हैं, “मुझे परमपद कब ले जाओगे? यहाँ हर एक क्षण भी रहना नामुमकिन है” उसी तरह हमें भी  हर वक्त अपने अतिंम परिणाम के बारें में सोचना चाहिए, यानि मोक्ष।

  • इरुक्कुम नाल उगंदरुलिन निलंगलिले प्रवणनाय गुणानुभव कैंकर्यांगले पोलुधुपोक्काकुगैयुम – हालाकि हम यह निरंतर विचार करते रहना चाहिए कि कैसे हम परमपद पहुँचे, जब तक इस संसार में हैं तब तक हमें दिव्यदेशों के भगवान के बारें में ध्यान देना चाहिए। उगंदरुलिन निलंगल का मतलब है भगवान इस संसार में अनेकों मंदिर, मठ, घर में रहते हैं और यही इच्छा के साथ आते हैं , इसी आशा के साथ कि उन्हें कोई भक्त मिलेगा और उसको वे परमपद ले जा सके। इसलिए यह एक मुख्य बात है कि हम भगवान की इच्छाओं को जान सके और उन्हीं के गुनानुभव में लगे रहें। भगवान के गुनानुभव को जानने का यह परिणाम है कि हम भगवान की कैंकर्य में लगे रहेंगे। यही बात श्रीगोदम्बाजी ने तिरुप्पावै के २ पाशुर में कहा है “वैय्यथ्थु वाल्वीर्गाल” –  “इस संसार में रहते हुए भी हमें एक सुन्दर जीवन भगवान के गुनानुभव और कैंकर्य से प्राप्त हो जायेगा”।

  • इप्पड़ी इरुक्कुम श्रीवैष्णवर्गाल येत्रम अरिन्दु उगन्दु इरुक्कैयुम – एक बार उपर के पाँच गुण अगर हम अच्छी तरह समझ जायेंगे तो हम अपने आप ही एसे गुणों से भरपूर श्रीवैष्णवों को ढूंढेंगे। हमारे पूर्वाचार्य कहते हैं कि जब हम उन्हें मिलेंगे तो हमें इतनी खुशी होनी चाहिए जैसे हम एक चंद्रमा (सभी को बचप्पन से ही चंद्रमा देखने की इच्छा होती है), थंडी हवा, चंदन की लकडी की लेई को देखा है। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी कहते हैं कि, “अगर इस संसार में रहकर हमें ऎसे भी कोई मिल जाए तो वो एक कमल के पुष्प भट्टी में खिलने की समान है (जो कि नामुमकिन है)। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी आगे कहते हैं कि शायद हमें यह पहले के पाँच गुण मिल भी जाये तो भी आखिरी गुण मिलना बहुत ही कठिन है परन्तु हमारे सभी पूर्वाचार्य दूसरे श्रीवैष्णवों के स्तुति करते थे और इसी तरह एक उदाहरणात्मक जीवन व्यतित करते थे।

  • तिरुमंतिरत्तिलुम द्वयत्तिलुम नियतनाकैयूम – हमें यह जानाना जरूरी है कि हमें क्या ग्रहण करना है और क्या त्यागना है और यह पूरी तरह रहस्यत्रय में समझाया गया है और हमें उस पर पूर्ण तरह विश्वास भी रखना चाहिए। श्रीपराशरभट्टर स्वामीजी मूलमंत्र के जरिये (अष्टश्लोकी के ४ श्लोक में) हमें इसी विषय को समझा रहे हैं और हमारी पूरी गलत फेमी दूर कर रहे हैं।

  • प्रणव महा मंत्र के “मकार” को देखकर हमें यह समझना चाहिए कि “मकार” शब्द का अर्थ यह है कि यह देह हमारा नहीं है, हम इस शरीर से अलग हैं और “म ” का अर्थ चेतनम है।

  • अकार” शब्द का अर्थ यह है कि भगवान श्रीमन्नारायण स्वतंत्र हैं और हम सब उन्हीं के हैं।

  • उकार” शब्द का अर्थ यह है कि हम जीवात्मा भगवान श्रीमन्नारायण के ही हैं और किसी के नहीं।

  • नम:” शब्द का अर्थ यह है कि श्रीपति के सिवाय और कोई भी हमारी रक्षा नहीं कर सकते हैं।

  • नारायण” शब्द का अर्थ यह है कि भगवान ही जीवात्मा के सच्चे बन्धु हैं बाकि और कोई नहीं, शारीरिक सम्बंदियों सभी आभास बंधू हैं। नारायण शब्द का मतलब है, वह जो सभी को पकडकर अपने में रखें।

  • नारायणाय में “आय” शब्द यह कहता है कि हमें भगवान के प्रति लगाव बढाना चाहिए और सांसारिक वस्तुओं से दूर रहना चाहिए।

द्वयमंत्र भी इसे आगे और भी अच्छी तरह समझाता है कि केवल श्रीपति ही भगवान हैं। हमें और किसी मंत्र के अनुसन्धान के बारें में कभी सोचना भी नहीं चाहिए और यहीं मंत्र पूर्ण मंत्र हैं जिसे अपने पूर्वाचार्यों ने हमें दिया हैं।

  • आचार्य प्रेमै गणत्तिरुक्कैयुम – आचार्य हमारे लिये और कोई नहीं भगवान के ही रुप हैं और उन्हीं के उपदेशो के कारण हम उपर लिखे गुणों पर पूर्ण विश्वास करते हैं। हमें अपने आचार्य से प्रेम भाव रखना चाहिए और उनके प्रति जो भी सेवा हम करते हैं प्रेमपूर्वक करना चाहिए। शास्त्र में यह भी कहा गया है कि हमें अपने आचार्य की प्रशंसा सभी के सामने करना चाहिए और ऎसा करने का एक भी मौका हमें नहीं छोडना चाहिए ।

  • आचार्यं पक्कलिलुम एम्बेरुमान पक्कलिलुम कृतज्ञनाय पोरुकैयुम – हमें अपने आचार्य और भगवान दोनों का कृतज्ञ होना चाहिए। आचार्य वों हैं जो हम जैसे नित्य संसारियों (जन्म होते ही इस संसार में लग जाते हैं ) को उपदेश देकर भगवान के नजदीक लाते हैं। भगवान हमारा हमेशा भला चाहते हैं और हमें आचार्य के नजदीक लाकर आचार्य और शिष्य का रिश्ता कायम करते हैं। इसलिये हमें उन दोनों का हमेशा कृतज्ञ रहना चाहिए।

  • हमें हमेशा उन श्रीवैष्णवों के साथ रहना चाहिए जिनको अर्थपञ्चक का पूर्ण ज्ञान हो, जो इस संसार के बन्धन से अलगाव हो और जिनमे तनिक भी यह अभिमान न हो कि उनमे ये सारे गन निर्भर हैं। ऎसे श्रीवैष्णव यह निश्चित करेंगे कि अजब हम इस संसार से घबरा जायेंगे, तब वे ही हमें अच्छे और बुरे के बीच अंतर समझाएंगे। आ) और वे अपने गुण हमको धीरे मगर निश्चित हीं देंगे। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी श्री उपदेश रत्नमाला में अंत में भी यहीं बात कहते हैं कि अगर हम अच्छे लोगों के सात रहेंगे तो हममे भी उनके अच्छे गुण आयेंगे और अगर हम बुरे दिमाग वालों के सात रहेंगे तो हममे भी उन्हीं के गुण आयेंगे।

अंत में श्री पिळ्ळैलोकाचार्य स्वामीजी कहते हैं कि यही वे गुण हैं जो एक वैष्णव अधिकारी में होना जरूरी है और कम से कम हमें उन गुणों को प्राप्त करने की कोशिश करनी चाहिए।

अपने पूर्वाचार्यों के कार्य के बिना यह सब प्राप्त करना असम्भव है। जब भी हम उनके कार्य के बारें में सोचते हैं तो, हमें उनका शुक्रगुजार करना चाहिए और कम से कम उनके लिये हमें यह सब अपने जीवन में एक अंश मात्र भी उतारना चाहिए।

हमें यह जानना बहुत ही ज़रूरी है कि हम दूसरे श्रीवैष्णवों के सात किस तरह से व्यवहार करना चाहिए और किन अपचारों से बचना चाहिए | हमारे पूर्वाचार्यों ने अनेक रूप के अपचारों के बारे में बहुत ही विस्तार रूप से समझाया है | हमारे अगले आलेख में हम उन अपचारों के बारे में जानेंगे|

अडियेंन  केशव रामानुज दासन

पुनर्प्रकाशित : अडियेंन जानकी  रामानुज दासी

संग्रहीत : https://srivaishnavagranthamshindi.wordpress.com

आधार: http://ponnadi.blogspot.in/2012/08/srivaishnava-lakshanam-5.html

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