Author Archives: Janaki

श्री वैष्णव लक्षण – १३

श्री:
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद्वरवरमुनये नमः
श्री वानाचल महामुनये नमः

श्री वैष्णव लक्षण

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निष्कर्ष

mamunigal-srirangam श्रीवरवरमुनि स्वामीजी

पिछले लेख में हमने देखा कि श्री वरवरमुनि स्वामीजी एक आदर्श आचार्य थे जिनमे वे सभी गुण भरपूर थे जो एक श्रेष्ठ श्रीवैष्णव में होना चाहिए । अब हम उनके गौरवशालि के बारे में और कुछ देखकर इस श्रृंख्ला को समाप्त करेंगे |   “मधुरेण समाप्येत: ” के अनुसार, पेरियजीयर, स्वामी मनवाल मामुनिगल के बारे में चर्चा करते हुए इस लेख को समाप्त करने से भी अधिक मधुर और क्या हो सकता है? यह तो परमात्मा श्रीमन नारायण की दिव्य योजना ही तो है कि यह श्रृंख्ला मामुनिगल की अनुभव के साथ समाप्त हो रहा है |

श्रीवचनभूषण दिव्य शास्त्र के सूत्र २२१ में यह कहा गया है – ” वेदग पोन पोले इवर्गलोट्टै सम्बन्ध ” – इसके टीका में स्वामी यतीन्द्रप्रणवर समझाते हैं कि श्रीवैष्णवों के सम्बन्ध हमें शुद्ध बनाता है – बिलकुल रसायनशास्त्र के समान – जिस प्रकार एक रासायनिक संयोजन, लोहे को सोना बना देता है उसी प्रकार श्रीवैष्णव सम्बन्ध हमें शुद्ध बना देता है | पेरिय तिरुमोळि में कलियन स्वामी बताते हैं – ” तम्मैये नालुम वनंगि तोलुवारक्कु तम्मैयेयोक्क अरुल सेय्वार ” – जो भी निरन्तर एम्पेरुमान श्रीमन नारायण की प्रार्थना करता रहता है वो एम्पेरुमान के समान बन जाता है – अर्थात एम्पेरुमान के कृपा पात्र बनकर उनके तरह आठ गुण प्राप्त होता है ( अपहतापापमा आदि) | मगर श्रीवैष्णवों और एम्पेरुमान के बीच अंतर यह है कि एक शुद्ध श्रीवैष्णव बनने के लिए श्रीवैष्णव सम्बन्ध काफी है मगर एम्पेरुमान के समान बनने के लिए हमेशा २४ घंटे ३६५ दिन उनकी पूजा करते रहना चाहिए |

 इस विषय को हम अपने पूर्वाचार्यों के जीवन से देख सकते हैं – स्वामी एम्पेरुमानार सभी लोगों के जीवन को अच्छे मार्ग में परिवर्तित किया है | उनके शिष्य भी उनकी तरह अतुल्य ही थे – कूरत्ताळ्वान् , मुदलियान्डान् , एम्बार् , अरुळाळ पेरुमाळ् एम्पेरुमानार् आदि सभी स्वामी एम्पेरुमानार के तरह महान होने पर भी अपने आप को हमेशा एम्पेरुमानार के अधीन मानते थे|

उसी प्रकार स्वामी मामुनिगल के शिष्य थे – पोन्नडिक्काल् जीयर् , कोयिल् कन्दाडै अण्णन् , प्रतिवादि भयंकरम अण्णन् , पत्तन्गि परवस्तु पट्टर्पिरान् जीयर् , अप्पन् तिरुवेंकट रामानुज एम्बार् जीयर् , एऱुम्बि अप्पा , अप्पिळ्ळै , अप्पिळ्ळार् , कोयिल् कन्दाडै अप्पन् आदि जो सभी स्वामी मामुनिगल के तरह ही गौरवशाली थे परन्तु वे सभी अपने आप को मामुनिगल के अधीन मानते थे | इस विचार को हम उपदेश रत्न माला के ५५ पाशुर के व्याख्यान से समझ सकते हैं – पिळ्ळै लोकम् जीयर् – जो कि इस व्याख्यान के टीकाकार हैं – पहले यह कहते हैं कि ” पेरिय जीयर एक ही हैं जिनको ओरोरुवर माना जा सकता है ” और फिर आगे कहते हैं कि प्रतिवादि भयंकरम अण्णन्  , पत्तन्गि परवस्तु पट्टर्पिरान् जीयर् आदि भी ओरोरुवर कहने के योग्य हैं |

इस लेख का सारांश फिरसे आपके लिए:

अतः अगर हम इन सरल सिद्धांतों को पालन करने कि कोशिश करें तो धीरे धीरे मगर व्यवस्थित रुप से हम उन सभी श्रीवैष्णव लक्षण को हासिल कर सकते हैं जिनके बारे में हमारे पूर्वाचार्यों ने विस्तार रूप से समझाया और अनुशासन भी किया था | वे सिध्दान्त कुछ इस प्रकार हैं :-
१) पूर्वाचार्यों के जीवन और अनुदेशों पर पूर्ण भरोसा |
२) एम्पेरुमान और आचार्यों के प्रति उपकारक स्मृति ( कृतज्ञता ) प्रकट करना |
३) भगवद – भागवद विषयों में तल्लीन रहना और सभी अन्य विषयों में निरपेक्ष रहना |
४) देवतांतर भजन को टालना |
५) नैच्यानुसंधानम का पालन करना – हमेशा खुद को दुसरे श्रीवैष्णवों से नीच मानना |
६) उचित आहार नियमम का पालन करना |

इसके साथ अडियेन इस श्रृंख्ला को समाप्त करना चाहता हूँ |

जबकि अडियेन पूर्वाचार्य ग्रंथों से बहुत सारे बहुमूल्य विषयों कि जानकारी की है , यह बहुत आवश्यक है कि हम एक उचित आचार्य के माध्यम से हमारे पूर्वाचार्यों के ज्ञान और अनुष्ठान के बारे में सही रूप से सीखें | विद्वानों से सीखे बिना सिर्फ पुस्तकों को पढ़कर इन अनुकरणीय और गहरे अर्थों को समझना नामुमकिन है |

अडियेन श्रीय:पति, आलवारों ओर आचार्यों पर आभारी हूँ जिनके निर्हेतुक कृपा से अडियेन इस श्रृंख्ला को लिख सका | उन स्वामियों को अडियेन प्रणाम करता हूँ जिनसे अडियेन कालक्षेप के द्वारा कई मूल्य अर्थों को समझ सका | अगर इस श्रृंख्ला के द्वारा कोई भी भलाई हो तो वो सिर्फ उन आचार्यों, स्वामियों के चरण कमलों को और गुरु परंपरा को समर्पित है | अडियेन की इतनी सी प्रर्तना है कि इस श्रृंख्ला में जो भी गलती अडियेन के द्वारा हुआ हो उसे क्षमा करें और सिर्फ इन लेखों के तत्वों को मन में लें |

श्रीमते रम्यजामात्रु मुनींद्राय महात्मने |
श्रीरंगवासिने भूयात नित्यश्री: नित्य मंगलम ||

अडियेंन जानकी रामानुज दासी

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