लोकाचार्य स्वामीजी की दिव्य-श्रीसूक्तियां – १

श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनये नमः
श्री वानाचलमहामुनये नमः

लोकाचार्य स्वामीजी की दिव्य-श्रीसूक्तियां

नम्पिळ्ळै 

 1) स्वपक्षत्तै स्थापिक्कवे परपक्षम् निरस्ततमामिरे | नेर्चेय्यप्पुत्तेयुमापोळे |

 जैसे चावल को उत्थित कर पीटने से, स्वत: अपतृण विनष्ट हो जाते है, उसी प्रकार जब स्वयं का मत स्थापित हो, अन्य मत स्वत: निरस्त हो जाते है |

२) स्वरूपानुसन्धानत्तुक्क इडायिरुक्किर तिरुमन्त्रत्तिनुडैय अर्थानुसन्धानम् मोक्ष साधनम् |

तिरुमन्त्र जीवात्मा का निज स्वभाव को प्रकाशित करता है, जैसे मै (जीवात्मा), (जो) भगवान् श्रीमन्नारायण का नित्य दास है, (को) बिना किसी स्वाभीमान एवं व्यक्तिगत इच्छा से (यानी स्वार्थ रहित), भगवान् श्रीवल्लभ ही मेरे शरण्य है, ऐसा मानना चाहिये | मुझे ऐसे सर्वेश्वर श्रीवल्लभ, श्रीमन्नारायण (जो सभी के प्रभु है) की सेवा सभी प्रकार से करना चाहिये | (यह स्वामी पिळ्ळै लोकाचार्य जी के मुमुक्षुप्पडि ग्रन्थ के ११५ सूत्र का सारांश है ) | ऐसे वेदरूपी मन्त्र का अर्थानुसन्धान करते हुए, प्रत्येक शरणागत जीव आत्म ज्ञान मे स्थित रहकर, मोक्ष का अधिकारि बनता है |

३) चक्कर्वरत्ति तिरुमगन् अवतरित्त पिन्बु वानरजाति विरुपेत्ताप् (विरुपेट्राप्) पोले काणुम् आळ्वार्गळ् अवतरित्तु तिर्यक् जाति विरुपेट्रतु (विरुपेत्ततु)

श्रीराम भगवान् श्रीहनुमानजी को आलिङ्गन करते हुए
तिरुमुळिक्कळतान् भगवान् के लिये, श्री शठकोप स्वामीजी का पक्षी दूत द्वारा संदेश

जिस प्रकार भगवान् श्रीराम के आविर्भाव के तत्पश्चात (जो दशरथ चक्रवर्ती के पुत्र है), वानर जाति प्रख्यात हुई (क्योंकि उनको भगवान् श्रीरामचंद्र का साङ्गत्य प्राप्त हुआ और उनको युध्द मे सहयोग दिया) | ठीक उसी प्रकार, आळ्वारों के आविर्भाव के बाद, तिर्यक (पक्षी) जाति प्रख्यात हुई क्योंकि इन पक्षियों से ही आळ्वारों  ने निवेदन किया कि वे दूत बने और भगवान् को उनके विरह भाव बतावें |

अनुवादक टिप्पणी : उपरोक्त आळ्वार तूडु (आळ्वार संदेश) इस लिंक पर देखिये |

४) घटकरुडैय आत्मगुणत्तोपाधि रूप गुणमुम् उद्देश्यम्

 

आचार्य घटक की उपाधि से अभिज्ञात है अर्थात् जो दो व्यक्तित्वों को जोडते है | एक शिष्य के लिये उसके आचार्य के आत्म गुण जैसे कृपा, कारुण्य इत्यादि और रूपगुण जैसे सौन्दर्य, मार्दव(मृदु स्वभाव) इत्यादि सदा प्रशंनीय है |

५) ईश्वरन् आश्रित स्पर्शमुळ्ळ द्रव्यत्ताल्लदु धरियान्

भगवान् श्रीमन्नारायण (जो सभी के नियन्त्रक एवं नित्य निवास स्थान है) वह अपने भक्तों से सम्बन्धित वस्तुओं से कदाचित भी अलग/दूर नही रह सकते और उनके बिना जीवित नही रह सकते |

अनुवाद टिप्पणी : उदाहरण के तौर पर, भगवान् श्रीकृष्ण मक्खन के लिये सदैव इच्छुक थे क्योंकि यह मक्खन वृन्दावन के गोपिकाओं ने अपने हाथों से बनाया था जो श्रीकृष्ण के प्रति आसक्त थे |

६) योग्यनुक्कु अयोग्यतै सम्पादिक्क वेण्डा ; अयोग्यनुक्कु योग्यतै सम्पादिक्क वेण्डा ; आगैयाल् ईश्वरोपायम् सर्वाधिकारम् |

विभीषण की शरणागति भगवान् श्रीराम के प्रति
(उन्होने यह नही सोचा की मुझे पहले शुद्धि (स्नान) कर भगवद् शरणगति करना है)

वह जो योग्य है उसको अपनी योग्यता छोडने की जरूरत नही है भगवान का सान्निध्य प्राप्त करने के लिये  और वह जो अयोग्य है उसको विशेष रूप से योग्यता प्राप्त करने की जरूरत नही है भगवान को पाने के लिये | अत: ईश्वर का उपायोपेय (आश्रय) होना सभी के लिये स्वाभिक है और भगवान् का शरणागत होना सभी का विशेषाधिकार है  |

७) नाम् आळ्वारै अनुभवैक्कुम्पोतु चेरुप्पु वैत्तुत् तिरुवडि तोळप्पुक्काप्पोले पोगवोण्णतु

एक बार, एक व्यक्ति ने अपने पादुकों को मन्दिर के बाहर छोड़कर भगवद् सेवार्थ मन्दिर मे प्रवेश किया। भगवद् सेवा मे तल्लीन होते हुए भी उसका मन बाहर छोड़े पादुकों पर था यानि पूरा ध्यान पादुकों पर था।  ऐसा भाव भगवद् सेवा मे अहितकारी है। इसी प्रकार, जब हम आल्वार की उपासना कर रहे हैं तब हमे पूर्णतः आल्वार पर ही केंद्रित होना चाहिए और अन्य विषयांतरों (जैसे भौतिक इच्छा, इन्द्रिय तृप्ति) पर नही।

८) अवन् विदुवतु बुद्धि पूर्वम् प्रातिकूल्यम् पण्णिनारै; कैक्कोल्लुगैक्कु मित्र बावमे अमैयुम्।

भगवान् उस जीव का त्याग कर, (उस को) दण्ड भी देते है, जो स्वेच्छा से भगवान के इच्छा के प्रतिकूल बर्ताव करता है। पर वह ऐसे जीव को स्वीकारते है और आशीर्वाद देते है जो केवल सुहृद होने का छल करता है।

अनुवादक टिप्पणी : हमारे पूर्वाचार्य कहते है, दानवेन्द्र हिरण्यकशिपु का वध करते समय भगवान् नृसिंह दैत्य राजा के हृदय मे देखते है कि शायद कहीं उनको तनिक समान हितोद्देश्य मिले पर केवल द्वेष और द्वेष ही मिलता है। सीता अम्मा जी भी दैत्य नृप रावण को केवल श्रीरामचन्द्र का मित्र बनने का सदुपदेश देती है ताकि भगवान् श्रीरामचन्द्र उसे माफ़ कर दें। सीता अम्मा जी कहती हैं उसे भगवान् श्रीरामचन्द्र का शरणागत होने की कोई जरूरत नहीं पर केवल थोड़ा मैत्री एवं प्रेम भाव से व्यवहार करे ताकि भगवान् उसे माफ़ कर स्वीकार करें।

९. आश्रितरिले ओरुवनुक्कुच् चेय्ततुम् तनक्कुच् चेय्ततुम् निनैत्तिरातपोतु भगवद् सम्बन्धमिल्लै 

आळ्वार मानते थे कि गज राज (गजेन्द्र) के प्रति भगवान् की सहायता, उनके (प्रति) की गई थी.

भावार्थ : जब किसी भी श्रीवैष्णव पर किये गये भगवदानुग्रह पर हमारा मन प्रफुल्लित हो, हमें आनन्द की प्राप्ति हो, और इस भाव “भगवान् की महती कृपा हम पर भी हुई अर्थात् भगवान् ने हमारी भी सहायता की है” से पोषित है तो वस्तुतः आपने (भगवद्-सम्बन्ध के यथार्थ भाव समझ लिया है. अगर किसी भी कारणार्थ आप मे ऐसा भाव नही है तो भगवद्-सम्बन्ध का(भगवान् जो सभी के स्वामी है) यथार्थ भाव आप समझे नही |

१०. अम्मि तुणैयाग आरिऴिगैयिरे, इवनै वित्तु उपायान्तरत्तैप् पत्तुगै (पत्त्रुगै)

अम्मि — पाषाण पत्थर (जो बहुत भारी होता है), भगवान् श्रीमन्नारायण को उपायोपेय न मानकर (सर्व शरण्य), अन्योपायों के साधन बलों की सहायता से भगवान् को पाना, भारी पत्थर से बन्धा हुआ व्यक्ति का सागर मे कूदने के तुल्य है | क्योंकि भारी पेषण प्रस्तर (पत्थर) स्वयं भी सागर मे डूबेगा और साथ मे हमें भी ले डूबेगा|

अतः शरणागत प्रपन्न को भगवान् के अलावा अन्य आत्मघातक साधन (जैसे कर्म, ज्ञान,योग, भक्ति) अपनाना नही चाहिए |

आधार: http://ponnadi.blogspot.in/2013/07/divine-revelations-of-lokacharya-1.html

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