विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन) – ४४

श्रीः श्रीमते शठकोपाय नमः श्रीमते रामानुजाय नमः श्रीमद्वरवरमुनये नमः श्रीवानाचलमहामुनये नमः श्रीवादिभीकरमहागुरुवे नमः

“श्रीवैष्णवों को अपने दैनिक जीवन में कैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है इसका उपदेश श्रीरामानुज स्वामीजी ने वंगी पुरत्तु नम्बी को दिया। वंगी पुरत्तु नम्बी ने उसपर व्याख्या करके “विरोधी परिहारंगल (बाधाओं को हटाना)” नामक ग्रन्थ के रूप में प्रस्तुत किया। इस ग्रन्थ पर अंग्रेजी में व्याख्या श्रीमान सारथी तोताद्रीजी ने की है उसके आधार पर हम लोग हिन्दी में व्याख्या को देखेंगे। इस पूर्ण ग्रन्थ की व्याख्या को हम लोग “https://goo.gl/AfGoa9”  पर हिन्दी में देख सकते है।

<– विरोधी परिहारंगल (बाधाओं का निष्कासन – ४३)

७४) अन्तिम दशा विरोधीअंतिम क्षणों में बाधाएं

वराह भगवान (तिरुविदवेंतै के दर्शन) – वह जिन्होने अपने भक्तों को मोक्ष प्रदान करने का वचन दिया

अंतिम दशा यानि मृत्यु शैया पर अंतिम समय। जब मृत्यु निकट आती है तो कई जन अपनी स्मृति खो देते हैं। कई जन को पूर्ण ध्यान रहता है और अंतिम क्षणों में होश में भी रहते हैं। हमारे आचार्यों ने “’पेरु तप्पाटु’ एनरु तुण्नितिरुक्कैयूम, पेट्रुक्कु त्वरिक्कैयुम श्रीवैष्णवाधिकारिक्कु अवस्यापेक्षितम” में दो मुख्य पहलू को दर्शाया है – एक योग्यता प्राप्त श्रीवैष्णव को अपना अंतिम लक्ष्य प्राप्त करने में पूर्ण विश्वासी होना चाहिये और उसे प्राप्त करने की उत्कृष्ठ लालसा भी होनी चाहिये। यह पूर्ण विषय इन्हीं दो पहलुओं पर आधारीत है। यहाँ ‘पेरु’ अर्थात अंतिम लक्ष्य श्रीवैकुण्ठ पहुँचकर भगवान के मुखोल्लास के लिये स्वयं को नित्य कैंकर्य में रखना हैं। अनुवादक टिप्पणी: शास्त्रों में अंतिम स्मृति को बहुत महत्वपूर्ण बताया गया है। भगवद्गीता के ८.६ में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि “यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् । तं तमेवैति कौंतेय सदा तद्भावभावित: ॥” – हे कुन्तीपुत्र! शरीर त्यागते समय मनुष्य जिस जिस भाव का स्मरण करता है, वह उस उस भाव को निश्चित रूप से प्राप्त करता है। इसलिये भगवद नामस्मरण, स्वरूप और लीलाओं पर ध्यान देने को अधीक महत्वपूर्ण बताया गया हैं। परन्तु यह सब मनुष्य के अंतिम दशा / अवस्था पर ही सम्भव होना है। यदि कोई उस समय अचेत अवस्था में है तो उस समय वह भगवान का ध्यान नहीं कर पायेगा। और स्वयं के सांसारिक लगाव के कारण वह उस समय सांसारिक पहलुओं के विषय पर सोचेगा। यहाँ तक महान राजऋषि भरत जो ज्ञान योग में कुशलता प्राप्त किये थे वें भी हिरण के प्रति लगव के जाल में फँस गये और उस हिरण का ध्यान करने लग गये। इसका परिणाम स्वरूप अगले जन्म में उन्हें हिरण रूप में पैदा होना पड़ा। परन्तु यह सब उपासक या कर्म/ज्ञान/भक्ति योग निष्ठावालों के लिये है। प्रपन्नों के लिये यह आवश्यक नहीं है। एक शरणागत पूर्णत: भगवान के नियन्त्रण और ज़िम्मेदारी में है चाहे वह अंतिम समय भगवान का नामस्मरण करें या नहीं उसे परमपदधाम की प्राप्ति अवश्य होगी। जब श्रीरामानुज स्वामीजी कुछ शंकाओं का निवारण करना चाहते थे तो वें श्रीकाञ्चीपूर्ण स्वामीजी के निकट गये जो गुप्त रूप से भगवान कि निजी सेवा करते थे तब श्रीरामानुज स्वामीजी उनसे निवेदन किया कि वे भगवान कि राय इन शंकाओं के विषय में लेवें। श्रीकाञ्चीपूर्ण स्वामीजी श्रीवरदराज भगवान से श्रीरामानुज स्वामीजी कि परिस्थिति के विषय में निवेदन करते हैं और श्रीवरदराज भगवान श्रीकाञ्चीपूर्ण स्वामीजी से ६ वार्ता कहकर आर्शिवाद प्रदान कर कहते हैं इनका उद्देश श्रीरामानुज स्वामीजी कि दुविधा स्पष्ट करना हैं। यहाँ यह समझना आवश्यक है कि न तो श्रीरामानुज स्वामीजी ने अपनी शंकाएं श्रीकाञ्चीपूर्ण स्वामीजी को बातया और न ही श्रीवरदराज भगवान ने श्रीकाञ्चीपूर्ण स्वामीजी से इन शंकाओं के विषय में पूछा। श्रीवरदराज भगवान ने श्रीरामानुज स्वामीजी के मन कि बात जानकर सीधे श्रीकाञ्चीपूर्ण स्वामीजी से यह उत्तर दे दिये। यह ६ वाक्य हैं – “मैं, श्रीमन्नारायण श्रेष्ठ हूँ”, “व्दिविधता ही वास्तव में सत्य है”, “प्रपत्ति हीं उपाय है”, “अंतिम स्मृति कि कोई आवश्यकता नहीं है”, “प्रपन्नों को मोक्ष जीवन के अन्त मे स्वयं हीं प्राप्त हो जाता है” और “श्रीमहापूर्ण स्वामीजी को अपने आचार्य रूप में स्वीकार करों”। यह विशेषकर प्रपन्नों के लिये अंतिम स्मृति की आवश्यकता को स्वयं भगवान नकारते हैं। वराह चरम श्लोक का भी यह मुख्य अभिप्राय है – जहाँ भगवान वराह विशेषकर कहते हैं कि जो उनके अनन्य भक्त हैं यहाँ तक कि वें सम्पूर्ण अचेत अवस्था में हैं तो भी वे उसे स्मरण कर उसे परमपद तक पहुँचायेंगे। हम अपने पूर्वाचार्यों के जीवनी में  देख सकते हैं कि वें अपने अंतिम क्षणों में भगवान का ध्यान न करके स्वयं के आचार्य का ध्यान किया। अब हम इस विषय कि चर्चा करेंगे।

  • यह चिन्ता करना कि मृत्यु के पश्चात घर, जमीन, बच्चे, पत्नी, सांसारिक धन, आदि जिनसे हमें लगाव है यहीं रह जायेंगे – यह बाधा है। प्रावण्यम – लगाव। मनुष्य कुछ वस्तु के लिये रोना प्रारम्भ करता है जब वे पिछे रह जाते हैं जैसे घर, खेती योग्य जमीन, पत्नी, बच्चे, आदि। यह अज्ञानतावश होता है। अनुवादक टिप्पणी: श्रीविष्णुचित्त स्वामीजी हर मनुष्य के चित्त की हालत जब वह मृत्युशैया पर अंतिम क्षणों में रहता है विस्तृत जानकारी पेरियालवार तिरुमोझी के पादिगम जो “तुप्पुडैयारै…” से प्रारम्भ होता हैं उसमें बताते है। इस पादिगम में वें पहिले भगवान को सूचित करते हैं कि भगवान का ध्यान करने के लिये उनका मन स्थिर नहीं हैं और भगवान से विनंती करते हैं कि उनके अभी कि शरण हुये स्थिति को स्मरण कर और जीवन के अंत समय में मोक्ष प्रदान करें। १० पाशुरों में वें विस्तृत रूप से समझाते हैं कि मनुष्य को अंतिम क्षणों में कितना कष्ट होत है। मनुष्य जब मृत्यु शैया पर रहता है तब उसके सम्बन्धी उसे घेरे हुये रहते हैं जो ज़ोर ज़ोर रो रो कर उसकी घबड़ाट को ओर अधीक बढ़ाते हैं। शरीर त्यागने से पहिले वें सभी रिश्तेदार उससे अधीक धन लेने कि कोशिश करते हैं। इसके बावजूद उसे स्वयं पर दया आती है क्योंकि वह अपने पिछे अपने बच्चे, पत्नी, धन, दौलत, आदि छोड़कर जा रहा है। परन्तु जब हमें यह अहसास हो जाता हैं कि वे जीवात्मा है और वें तो केवल इस शरीर का त्याग कर रहे हैं तब उन्हें यह तकलीफों से गुजरना नहीं पड़ता हैं। यह अनुभव करना प्रपन्नों का स्वाभाविक गुण है। यह कहा जाता हैं कि प्रपन्न जन आतुरता से मृत्यु देव (मृत्यु) का इंतजार करते हैं जैसे कोई अपने प्रिय अतीथि के आने का करता है। यह इसलिये होता हैं कि प्रपन्नों को मृत्यु के पश्चात स्वयं भगवन बिरजा के तट (परमपदधाम और संसार के मध्य) तक ले जाते हैं। वें अर्चिरादि मार्ग से बिरजा नदी को पार करते हैं और अन्त में भगवान श्रीमन्नारायण के दिव्य महल तक पहुँचते हैं जहाँ पर नित्यसूरिगण व मुक्तात्मा उसका स्वागत करते हैं। तब वह शेष परयंकम (सिंहासन) पर चढ़ता है जहाँ भगवान विराजमान हैं और भगवन का आलिंगन करता है। उसके पश्चात भगवन उसे नित्य कैंकर्य प्रदान करते हैं और वह वहाँ अनंतकाल तक आनंदपूर्वक निवास करता है। अत: मृत्यु के पश्चात जो प्रशंसनीय जीवन है यह देख प्रपन्न शरीर त्याग करने में कभी नहीं चिंता करते है। परन्तु सामान्य जन जिन्हें यह दार्शनिक समझ नहीं हैं उन्हें मृत्यु के समय बहुत तकलीफ उठानी पड़ती है।
  • जैसे “क्षेत्राणी मित्राणी” में समझाया गया है ऐसे लगावों को असहायक पहलू की तरह मानना चाहिये। ऐसे न होना ही स्वयं बाधा है। क्षेत्राणी मित्राणी – लगाव जैसे मेरी संपत्ति, मेरे मित्र। यह सब दासत्व के कारण हैं और परमपदधाम पहुँचने में बाधक है और इस तरह इन्हें प्रतिकूलम के रूप में दर्शाया गया है। अनुवादक टिप्पणी: श्रीरामानुज स्वामीजी पूर्ण श्लोक को शरणागति गध्यम में कहते है। श्लोक और उसका अर्थ इस तरह है। “पितरं मातरं दारान् पुत्रान्बन्धून्सखीन्गुरून् । रत्नानि धनधान्यानि क्षेत्राणि च गृहणि च ॥ सर्वधर्मांश्च संत्यज्य सर्वकामांश्च साक्षरान् । लोकविक्रान्तचरणौ शरणं तेsव्रजं विभो ॥” – हे भगवान (विभो)! मैंने अपने माता, पिता, पत्नी, बच्चे, सम्बन्धी, मित्र, शिक्षक, रत्न भूषण, धन, धान्य, खेती कि जमीन, घर, आपको पाने के सभी साधन, आदि सभी के प्रति लगाव का त्याग कर दिया है और आपके चरण कमलों के शरण हो गया हूँ। इस श्लोक का बहुत गुणगान किया जाता है क्योंकि स्पष्ट रूप से यह प्रतिपादित करता है कि इन सब के प्रति जो लगाव है उसे तिरस्कृत करने के पश्चात हमारे उत्थान का एक मात्र उपाय भगवान के श्रीचरण कमल ही हैं।
  • हमारे अंतिम लक्ष्य परमपदधाम के प्रति लगाव नहीं होना जैसे श्रीसहस्रगीति में बताया गया है “माग वैकुंठम काणबतर्कु एनमनम एकमेण्णुं” बाधा है। हमें परमपद में पहुँचकर और वहाँ भगवान के दर्शन कि तीव्र लालसा होनी चाहिये। श्रीसहस्रगीति में मालाधर स्वामीजी कहते हैं कि आल्वार को इन संसार में रखने के लिये बहुत दुख होता है। अनुवादक टिप्पणी: इस श्रीसहस्रगीति के पाशुर के लिये श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी कि इडु व्याख्या स्पष्ट और सुन्दर है। वें श्रीशठकोप स्वामीजी की अवस्था के विषय में समझाते हैं कि आल्वार निरन्तर श्रीवैकुण्ठ जो भगवान नरसिंह का दिव्य धाम है का निरन्तर ध्यान करके मग्न रहते हैं। आल्वार कहते हैं चाहे दिन हो या रात मेरा मन निरन्तर वैकुण्ठ के बारे में हीं सोचता हैं। श्रीकलिवैरिदास स्वामीजी सामान्य जनों के लिये दर्शाते हैं कि उनके लिये दिन और रात्री कि क्रियाएं भिन्न भिन्न रहती हैं – परन्तु आल्वार के लिये समान है – निरन्तर भगवान का स्मरण करना है।
  • इस संसार को जिसे हमें त्यागना है से घृणा नहीं करना जैसे कि श्रीसहस्रगीति में बताया गया है “कोडुवुलगम काट्टेले” बाधा है। श्रीशठकोप स्वामीजी इस लौकिक संसार में इन सांसारियों के मध्य में अपनी उपस्थिती को “कोडुवुलगम” देखते हैं – कठोर दुनिया और कहते हैं “मैं इसे और देखना नहीं चाहता हूँ”। अनुवादक टिप्पणी: जैसे स्वयं के विषय में सही ज्ञान प्राप्त होना प्रारम्भ होना हैं जीवात्मा इस संसार में जो निरन्तर कैंकर्य में व्यस्त रहने के लायक नहीं है, में बहुत सुलभ रूप से रहना प्रारम्भ कर देता है। श्रीशठकोप स्वामीजी तिरुविरुत्तम  प्रबन्ध के पहिले पाशुर में बहुत दु:ख दर्शाते है “पोय निन्र ज्ञानमुम … इनियाम उरामै” – मैं इस संसार में जो अज्ञानता से भरा हुआ है रहना सहन नहीं कर सकता हूँ। श्रीशठकोप स्वामीजी के लिये इस संसार में रहना जैसे कि गरम रेती पर नंगे पाँव चलना – जिसे कुछ क्षणों के लिये भी सहन करना मुश्किल है। जब तक इस भौतिक संसार से वैराग्य उत्पन्न नहीं होता है अपने अंतिम क्षणों में इन भौतिक वस्तुओं के प्रति लगाव को त्यागना बहुत ही मुश्किल है।
  • श्रीसहस्रगीति के पाशुर में जैसे कहा गया है “पिन्नुमाक्कै विडुम्पोलुतेण्णे” की अपना शरीर त्यागने की तीव्र लालसा न होना बाधा है। हमें अपने इस नश्वर शरीर छोड़ने की आतुरता होनी चाहिये। जैसे श्रीसहस्रगीति में समझाया गया है कि “कूविक्कोल्लुम कालम इननुम कुरुगातो?”, हमें अपने मृत्यु के दिन का आतुरता पूर्वक प्रतिक्षा करनी चाहिये ताकि हम उस दिव्य धाम को जा सकें। अनुवादक टिप्पणी: आचार्य हृदयम के २२९ चूर्णिकै में श्रीअलगिय मणवाल पेरुमाल नायनार समझाते हैं कि भगवान बड़े आतुरता से श्रीशठकोप स्वामीजी का इंतजार किये और पूरे ४ प्रबन्धों में २० बार स्मरण कर उन्हें दिव्य धाम परमपद बुलाने के लिये कहा हैं। श्रीनायनार समझाते हैं कि भगवान कई कारणों से उनका इंतजार किये परन्तु मुख्यत: श्रीशठकोप स्वामीजी कि परमपदधाम पहुँचने कि आतुरता और मुमुक्षु कहलाने के लिये पूर्ण रूप से अधिकारी बन जावें। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी ने अपने व्याख्यानों में ऐसे २० स्थानों की सूची बताई है जहाँ पर श्रीशठकोप स्वामीजी भगवान को बुलाते हैं और अपने व्याख्यानों में आगे समझाते हैं कि जो एक बार शरणागत हो गया है उसमें श्रीभगवान के साथ परमपद में अनंतकाल तक रहने की सर्वोच्च लालसा होनी चाहिये और ऐसी सर्वोच्च इच्छा शरणागति से पूर्ण होती है अन्यता शरणागति को अधूरी और ऊपरी माना जायेगा।
  • श्रीसहस्रगीति के पाशुरों में जैसे कहा गया है “उन्नै एन्नाळ् वन्दु कूडुवन्” परमपद में बिना भगवान के दर्शन किये रह सकना वह भी भगवान के मिलने की पूर्ण इच्छा होते हुये भी – यह बाधा है। कब मैं स्वयं परमपदधाम आकर भगवान के दिव्य रूप का दर्शन करूँगा? ऐसे भगवान का कब में अनुभव करूँगा? यह सभी श्रीशठकोप स्वामीजी के मार्मिक अनुभव थे जो स्वाभाविक अनुभव की तरह ही था। यह वह अवस्था है जहाँ किसी की इच्छाएं परमपद में भगवान के परत्व स्वरूप की ओर जुड़ना हैं। भक्ति की इस परिपक्व अवस्था को परम भक्ति कहते हैं। अनुवादक टिप्पणी: जैसे कि पहिले समझाया गया कि किसी का लगाव भगवान के प्रति परिपक्व होकर उसकी अंतिम अवस्था होनी चाहिये। भक्ति तीन स्तर की हैं – पर भक्ति, पर ज्ञान और परम भक्ति। पर भक्ति भगवान के पूर्ण ज्ञान की दशा है – इस स्तर में भगवान के साथ रहना आनन्द प्रदान करता हैं और और भगवान के बिछुड़ना दु:ख प्रदान करता है। परम ज्ञान कि अवस्था यानि भगवान का पूर्ण स्वभाव, नाम, रूप, आदि को देखना। परम भक्ति वह अवस्था है जिसमें भगवान के लिये पूर्णत: भावुक होना है और स्वयं भगवान के बिना रह सकने योग्य नही रहेगा। श्रीनायनारजी आचार्य हृदयम के २३३ चूर्णिकै में इसे दर्शाते हैं और श्रीवरवरमुनि स्वामीजी बड़ी सुन्दरता से विस्तृत रूप से समझाते हैं।
  • अर्चावतार भगवान के प्रति लगाव जैसे श्रीसहस्रगीति में बताया गया “मरुलोली नी” बाधा है। श्रीशठकोप स्वामीजी श्रीसहस्रगीति में कहते हैं कि भगवान हमारे इच्छानुसार हमें अंतिम तिरुमाली परमपदधाम में स्थान देते हैं। इस संसार के अर्चावतार भगवान के प्रति हम इतने जुड़ गये हैं वे उससे अधिक परमपद में भगवान के प्रति अनुभव करने की हमारी इच्छा को उत्तेजित करते हैं। इसलिये श्रीसहस्रगीति के अन्त में जब वें आते हैं तो परमपदधाम के निकट आ जाते है और वें अर्चावतार भगवान के लिये “मरुल” (भ्रम) कहते हैं क्योंकि यह अर्चावतार अनुभव इस लौकिक संसार के लिये हैं। परन्तु यही आल्वार सुलवीसुम्बणीमुगिल पादिगम में जहाँ वे अर्चिरादि मार्ग (परमपदधाम कि ओर जाने वाला मार्ग) का अनुभव करते हैं तो वें तिरुक्कुदंतै के आरवमुधन भगवान के प्रति लगाव दिखाते हुये कहते हैं कि “कुदंदै एन कोवलन कुडीयडीयार्क्के”। इस तरह हम समझ सकते हैं कि अर्चावतार भगवान के प्रति अपना लगाव प्राकृतिक स्वभाव के विपरीत नहीं हैं। श्रीपरकाल स्वामीजी भी अपने अन्त क्षणों में तिरुनेडुन्दाण्गम के २९वें पाशुर में “तण कुडन्दैक्किडन्द मालै नेडियानै अडि नायेन निनैन्दिट्टेने” गायन करते समय यह दर्शाते हैं। अनुवादक टिप्पणी: श्रीवैष्णवों के लिये अर्चावतार भगवान के प्रति लगाव होना स्वाभाविक है। क्योंकि वें अपना पूर्ण जीवन अर्चावतार भगवान कि सेवा करने में बिताते हैं और वें इसके बाहर कुछ सोच भी नहीं सकते हैं। हम यह भी सुनते हैं श्रीपराशर भट्टर स्वामीजी अपने अंतिम दिनों में कहते है “अगर मैं परमपदधाम में श्रीरंगनाथ भगवान के दर्शन नहीं करूँगा तो मैं परमपदधाम कि दीवार में एक छेद कर वहाँ से छलांग लगाकर पुन: श्रीरंगम आजाऊंगा”। फिर भी हमें नित्य परमपदधाम में जाकर भगवान कि सेवा करने की लगाव को त्यागना नहीं चाहिये। श्रीवैष्णवों के लिये यहाँ पर दिव्यदेश और परमपद के अनुभव में कोई अन्तर नहीं रहता है फिर भी तकनीकि अन्तर है – इस संसार में दिव्यदेशों के कैंकर्य में विराम होता है जब मंदिर के पट बंद होकर भक्त गण घर जाकर विश्राम कर रहे हो। परन्तु परमपद में निरंतर सेवा कैंकर्य हैं, बुढ़ापा, बीमारी, आदि कोई प्रभाव नहीं है। इस लिये जब समय आता है तब श्रीवैष्णवों को चाहिये कि वे इस संसार के अर्चावतार भगवान के प्रति लगाव छोड़कर स्वयं परमपद कि ओर प्रस्थान करने कि तैयारी करें।
  • अंतिम समय में यह विचार करना कि “अब मेरा सहारा क्या है?” इस समर्पण भाव को “भगवान के प्रति हमारा समर्पण जो सहारा है” यही सच्चा सहारा है इसे न मानना बाधा है। जैसे पेरिया तिरुमोझी में समझाया गया हैं कि “उन मनत्ताल एन निनैन्तीरुंताय” – आप मुझे कैसे सुरक्षित रखने की सोच रहे हो?, हमें मोक्ष देना भगवान की ज़िम्मेदारी और इच्छा है। ऐसी इच्छा हमेशा भगवान के हृदय में रहती है। इसलिये हमें स्वयं को कभी भी रक्षक नहीं समझना और स्वतन्त्रता रूप से कार्य नहीं करना चाहिये। स्वतन्त्रता से सोचना “मैं स्वयं को कैसे मुक्त करूँगा?” यह बाधा है। श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र के ६९वें सूत्र में “‘अंतिम कालत्तूक्कू तंजम, इप्पोतु तंजमेन एंगीर नीनैवु कुलैगै ‘ एनरु जीयर अरुलिच्चेयवर” – श्रीवेदान्ति स्वामीजी कहते अन्तिम क्षणों का हमारा सहारा है “स्वयं को रक्षक मानने का त्यागना और भगवान को ही पूर्णत: रक्षक मानना”। अनुवादक टिप्पणी: श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र के दूसरे प्रकरण में श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी प्रपत्ति (पूर्णत: भगवान के शरण होना) कि महिमा समझाते है। इस विभाग में ६०वें सूत्र से प्रारम्भ कर श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी समझाते हैं कि प्रपत्ति भी – किसी के समर्पण कि क्रिया उपाय नहीं है और केवल भगवान हीं एक मात्र उपाय हैं। वे प्रमाणित करते हैं कि समर्पण की क्रिया भगवान को रक्षक मानना स्वाभाविक रूप से प्रगट होता है। ६३वें सूत्र में वे समझाते हैं कि जब भगवान जीवात्मा की रक्षा करते हैं तो भगवान जीवात्मा से यहीं आशा करते हैं कि वें भगवान को जीवात्मा की रक्षा करने उन्हें दें। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी व्याख्यानों में समझाते हैं कि जीवात्मा को भगवान द्वारा रक्षा करवाने की इच्छा रहती है और भगवान को रक्षा करने की अनुमती देना सिर्फ निर्देशात्मक है। ६६वें सूत्र में श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी समझाते हैं कि भगवान की इच्छा ही जीवात्मा के रक्षा की चाबी है। अगले सूत्र में वें कहते हैं कि भगवान जीवात्मा की रक्षा के लिये निरन्तर इच्छा और कोशिश करते हैं। ६८वें सूत्र में वें कहते हैं कि जब जीवात्मा परिवर्तित होता है तब ऐसी रक्षा मूर्तरूप लेती है। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी बड़ी सुन्दरता से यहाँ दर्शाते हैं कि “इच्छा में परिवर्तन” यानि “स्वयं की रक्षा को स्वयं करने के रवैया को भगवान पर पूर्ण रूप से आधारित होने में परिवर्तित करना”। ६९वें सूत्र में यह श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी श्रीवेदांति स्वामीजी के शब्दों द्वारा स्थापित किये हैं। इस सूत्र में श्रीवेदांति स्वामीजी श्रीवैष्णव को समझाते हैं जो बिमार है और वह श्रीवेदांति स्वामीजी से पूछता हैं कि इस क्षण में उसका रक्षक कौन है। श्रीवेदांति स्वामीजी कहते हैं कि स्वयं की स्वतन्त्रता और स्वयं की रक्षा करने को त्यागकर भगवान ही एक मात्र रक्षक हैं और इसे स्वीकार करना ही एक मात्र राह है। अत: हम समझ सकते हैं कि भगवान को जीवात्मा द्वारा उसके रक्षा की अनुमती देना उसका स्वाभाविक गुण है और और भगवान की इच्छा का दास बनकर रहना जैसे “अधिकारी विशेषणम” में समझाया गया है – शरण हुये व्यक्ति का स्वाभाविक गुण और यह उसके मोक्ष के लिये उपाय हो जाता है। इस सिद्धान्त के विषय में ओर अधिक जानकारी हम विद्वानों के मार्गदर्शन में सुन सकते हैं।
  • पत्थर या लकड़ी के तरह होश/ज्ञान आदि बिना प्रगट किये बिना रहना बाधा है। श्रीवराह भगवान समझाते है “तटस्थम म्रियमाणन्तु काष्ठपाषाण सन्निबम अहम स्मरामी मद भक्तम”, हमें पत्थर या लकड़ी की तरह रहना चाहिये जिसे स्वयं को स्वतन्त्र रूप से स्वयं की रक्षा करने में रूचि न हो। ऐसे व्यक्ति जो मुझ पर पूर्णत: निर्भर हैं मैं उनके विषय में सोचूंगा और उन्हें मोक्ष दूँगा। अनुवादक टिप्पणी: श्रीवैष्णव सम्प्रदाय में ३ चरम श्लोकों की स्तुति बहुत होती है। चरम श्लोक यानि वह जो अंतिम सर्वश्रेष्ठ तत्त्वों को बताता है। वराह चरम श्लोक हैं जो “स्थिते मनसी … ” से प्रारम्भ होता है। श्रीराम चरम श्लोक है जो “सकृतेव प्रपन्नाय …” से प्रारम्भ होता है। श्रीकृष्ण चरम श्लोक है जो “सर्वधर्मान परित्यज …” से प्रारम्भ होता है। यह सभी चरम श्लोक भगवान कि प्रतिज्ञा को दर्शाते है कि अपने भक्तों के लिये वें हीं एक मात्र अंतिम रक्षक हैं। हमारा कर्तव्य है कि हमें भगवान की पूर्ण रक्षा को स्वीकार करना चाहिये और उनकी इच्छाओं का पालन करना चाहिये।
  • हमारे अंतिम क्षणों में अपने मोक्ष के लिये कोई विशेष आवश्यकता हमारे सिद्ध साधनम (भगवान) हमारे रक्षक हैं को भंग करता है। यह न जानना बाधा है। सिद्ध साधना निष्ठा यानि भगवान पर पूर्ण निष्ठा रखना जो उपाय और उपेय दोनों हैं। कोई आवश्यकता जो स्वयं की मेहनत पर आधारित है हमारे विश्वास को नष्ट कर देता है। अनुवादक टिप्पणी: जब किसी के अंतिम क्षणों में सोचने की प्रक्रिया कि कोई विशेष आवश्यकता होती है तब वह हमें स्वतन्त्र रूप से सोचने को बाध्य करती है और कुछ वस्तु को स्वतन्त्र रूप से कार्य करने का विचार करती है। परन्तु ऐसे व्यवहार जो किसी की स्वतन्त्रता को प्रगट कराते हैं वे जीवात्मा के सही स्वभाव के विपरीत है – जीवात्मा हमेशा पूर्ण रूप से भगवान पर आश्रित है। इस तरह प्रपन्नों के लिये ऐसे तत्त्व त्यज्य हैं जो सिद्धान्त पूर्ण रूपसे उनके सही लक्षणों को सम्पादित करते हैं। परन्तु भक्ति योग निष्ठा और अन्य उपासकों के लिये जैसे कि श्रीमद्भगवत्गीता आदि में समझाया गया है उनके अंतिम क्षणों में ऐसे हालत अस्तित्व में रहते हैं और उनका अगला जन्म इन हालत पर निर्भर करता है।
  • अंतिम क्षणों में किसी के मन में पवित्र विचार आते हैं जिससे भगवान का मुखोल्लास होता है जो हमारे अंतिम लक्ष्य का अंश है – यह न जानना बाधा है। हम इस भाग को जिसमें भगवान की इच्छा किसी को मोक्ष देना या ऐसा कोई स्वयं के प्रयास को ज़ोर देकर समझाते हैं बाधा है। हमें यह जानना चाहिये कि अन्य न छोड़नेवाले भगवान के विचार जो किसी के सही लक्षणों से उत्पन्न होते (निरन्तर भगवद्विषय में रहना) हैं वे हमारे अंतिम परिणाम हो जाते हैं। अनुवादक टिप्पणी: एक सच्चा प्रपन्न जब होश में रहता है तब अंतिम समय में भगवान का विचार करता है। किसी अन्य वस्तु कि प्राप्ति के लिये इसे उपाय समझने की गलती नहीं करनी चाहिये। भगवत विषय में निरन्तर व्यस्त रहने का और स्वयं भगवान की दिव्य इच्छा ही इनका परिणाम है। हमारे पूर्वाचार्यों के जीवन में हम देख सकते हैं कि आचार्यों का अंतिम समय बहुत ही सुखद होता है क्योंकि भगवान का उनके हृदय में पूर्ण आर्विभाव होता है। हमारे आचार्य भी अपने अंतिम क्षणों में अपने आचार्य का पूरी तरह ध्यान करते हैं और बहुत सुखद अनुभव करते हैं। यह सभी भगवान के परमपद में निरन्तर कैंकर्य के चरम परिणाम का एक अंश है।
  • अपने अंतिम क्षणों में यह विचार करना कि अपने आचार्य का नामस्मरण करना आवश्यक है – यह बाधा है। यहाँ से प्रारम्भ कर आचार्य के महत्व पर ज़ोर दिया गया है। अपने अंतिम क्षणों में आचार्य का नामस्मरण उपाय रूप में नहीं करना चाहिये। अनुवादक टिप्पणी: भगवान कि कृपा से उस क्षण में जो भी होता है उसे स्वीकार करना चाहिये। पहिले कहा जाता था कि ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे उपाय की तरह करना चाहिये।
  • अपने आचार्य के निरन्तर संग में रहने से अपने आचार्य के प्रति स्वाभाविक विचार हमारी परमपदधाम यात्रा के दौरान उपयोगी रहेगी और आवश्यक है। यह न समझना बाधा है। यदि कोई स्वयं के आचार्य को स्मरण करता हैं तो यह उत्तम है। प्रयाणपाधेयम – जब हम लम्बी यात्रा के लिये जाते हैं तो अपने साथ प्रसाद भी लेकर जाते हैं। उसी तरह अर्चिरादि मार्ग से होते हुये परमपद की हमारी यात्रा के समय आचार्य के विचार ही हमारे उस राह के लिये हमारा भोजन है। अनुवादक टिप्पणी: सामान्यता यह कहा गया है कि “पाधेयम पुण्डरीकाक्ष नाम संकीर्तनम” – यात्रा के समय हमें जीवित रखने के लिये भगवान का नामस्मरण संकीर्तन ही भोजन है। उसी तरह यहाँ आचार्य कि स्तुति करना हीं अंतिम यात्रा के समय हमारा भोजन है।
  • यह मानना कि अपने आचार्य के प्रति ऐसे विचार जो उनसे मिलने के पहिले उपाय की तरह मानते है – बाधा है। कुछ प्राप्त करने के लिये यह उपाय नहीं हो सकता है। अनुवादक टिप्पणी: जैसे कि पहिले समझाया गया है पहिले के मिलने के कारण यह एक केवल संयोग मात्र होगा और इसे अंतिम यात्रा का एक हिस्सा मानना चाहिये।
  • “वह” जो सही माने में हमारे हितेशी है जो हमारे इस यात्रा के मार्ग दर्शक है यह न समझना बाधा है। हमें यह जानना चाहिये कि हमारे आचार्य जो सही माने में हमारे हितेशी है वो हीं इस यात्रा में हामारा मार्ग दर्शन करेंगे। अनुवादक टिप्पणी: सामान्यतया भगवान की “मार्गबन्धु” ऐसी स्तुति करते हैं – वह जो सही रूप में हमारे यात्रा के साथी हैं। यहाँ पर आचार्य को भी कह सकते हैं। यह तत्व दोनों आचार्य और भगवान पर लागू हैं। तिरुमोगूर के कालमेघ भगवान कि स्तुति वलित तुणऐ/मार्ग बंधु ऐसे कि गई है। श्रीरामानुज स्वामीजी कि स्तुति “विष्णुलोक मणिमण्डप मार्गदायी” – ऐसे कि गई है – वह जो हमें परमपद का मार्ग दिखाते हैं। इसलिये यह दोनों आचार्य और भगवान को लागू है जो दोनों हमारे हितेशी हैं।
  • अनिष्ट निवृत्ति (अनावश्यक पहलू – अज्ञानता, आदि को मिटाना) और इष्ट प्राप्ति (इच्छाओं को प्राप्त करना – अर्चिरादि मार्ग पर चलना, परमपदधाम पहूंचना, आदि) हमारे स्वयं के परिणाम हैं और यह बाधा है। अविध्या (अज्ञानता) का अर्थ ज्ञान का संकुचित होना – इस लौकिक संसार में शारीरिक पहलुओं का दास होना। जब भौतिक शरीर छूट जाता है तो अज्ञानता दूर हो जाती है और ज्ञान का पूर्ण रूप से विकास होता है। यह एक मुक्तात्मा की अवस्था है। अर्चिरादि गति वह पथ है जो प्रकाश से प्रारम्भ होता है और परमपदधाम जाकर समाप्त होता है। यह नहीं मानना चाहिये कि यह स्वयं का परिणाम है जो स्वयं की मेहनत का परिणाम है।
  • भगवान जो इन सभी बाधाओं को नष्ट करते हैं और हमारी खुशी के लिये आर्शिवाद प्रदान करते है वें हीं ऐसे परिणामों के शुभ चिंतक है। इसे न मानना बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: यह बहुत महत्वपूर्ण सिद्धान्त है। यह कहा गया है – “चेतन लाबम ईश्वरनुक्कु” – जब एक बद्ध आत्मा शुद्ध होकर मुक्त हो जाता है तो वह परमपद पहुँचता है और भगवान का नित्य कैंकर्य प्रारम्भ करता हैं। इसलिये भगवान को जीवात्मा की दासता से मुक्ति देनेवाले अंतिम शुभचिंतक माना गया हैं। हालाँकि जीवात्मा का सच्चा लक्षण भगवान की निरंतर कैंकर्य करना है, वह भगवान के बिना शर्त और पूर्ण कृपा से उन्नाती करता है। अत: भगवान सब के मालिक हैं और अंतिम शुभ चिंतक भी हैं। इसे श्रीवचन भूषण दिव्य शास्त्र के ७०वें सूत्र में श्रीपिल्लै लोकाचार्य स्वामीजी समझाते हैं कि “प्राप्तावुम प्रापकनुम प्राप्तिक्कु उगप्पानुम अवने” – भगवान एक मात्र हैं जो पिछा करते हैं, वह जो आर्शिवाद देते हैं और वह जो खुशी महसूस करते – उसके अंतिम परिणाम के लिये। श्रीवरवरमुनि स्वामीजी की व्याख्यान इस सूत्र के लिये उत्कृष्ट है। वें प्रमाणों द्वारा इस सिद्धान्त को समझाते हैं कि भगवान ही प्राप्ता और प्रापकन हैं है – जीवात्मा स्वयं को परिश्रम में व्यस्त नहीं रहते हैं और क्योंकि भगवान ही ऐसे हैं जो अंतिम परिणाम से प्रसन्नता का अनुभव करते हैं – जीवात्मा स्वयं के आनंद में कभी भी निरत नहीं रहता है।
  • अपनी पसन्द नापसंद में स्वयं का सम्बन्ध होना बाधा है। क्योंकि भगवान आत्मा में निवास करते है इसलिये यह उनको तय करना है कि जीवात्मा के लिये क्या अनुकूल है और क्या प्रतिकूल है। अनुवादक टिप्पणी: जब हम भगवान को अंतिम उपाय और उपेय रूप में स्वीकार करते हैं तब हमारा कार्य मूलभूत सिद्धान्त से प्रेरित होना चाहिये। हमें शास्त्रों और शिष्टाचार जो शास्त्र में समझाये अनुसार को हमारे जीवन में पालन करना चाहिये। अनुकूल और प्रतिकूल पहलुओं को शास्त्रों और आचार्य निर्देशानुसार तय करना चाहिये न कि हमारी इच्छानुसार। कई बार लोग कहते हैं “मैं पूरी तरह शरण हुआ हूँ और मेरा रवैया कैसे हो यह भगवान की ज़िम्मेदारी है”। परन्तु उनके कार्यकलाप शास्त्र और शिष्टाचार के विपरीत होते हैं – मूलत: यह पलायन का बहौत ही सरल मार्ग है जहाँ हम कानून कायदों का पालन नहीं करते हैं और फिर भी वे स्वयं को बहुत ईमानदार और ज्ञानी मानते है। ऐसे रवैया उन लोगों के लिये बहुत ही हानिकारक होगा जो अपनी आध्यात्मिक रूप से उन्नती करना चाहते हैं।
  • ऐसी पसंद और नापसंद भगवान के लिये वास्तव में उचित है जो सिर्फ एक मात्र “अहं” हैं जैसे कि समझाया गया है – बाधा है। अनुवादक टिप्पणी: जैसे कि भगवान ही गीताजी के चरम श्लोक में घोषित करते हैं “अहम त्वा सर्व पापेभ्यो मोक्षचिश्यामी” – अहम यानि मैं जो स्वयं भगवान बहुतही निडरता पूर्वक घोषित करते हैं। हमें हमेशा “अड़िएन”, “दास”, आदि कहना चाहिये जो भगवान और भागवतों के प्रति हमारा आश्रित होना उजागर करता है। क्योंकि वें हमारे सच्चे स्वामी हैं इसलिये वें हीं अपनी पसंद और नापसंद रख सकते हैं। हमारी पसंद और नापसंद उनकी इच्छानुसार होनी चाहिये। उदाहरण के लिये वे ज्ञानी को पसंद करते हैं – वे जो बहुत शिक्षित हैं और भगवान के प्रति समर्पित हैं जैसे कि भगवान ने गीता में घोषणा किये हैं। वें उनको नापसंद करते हैं जो उनके शास्त्रानुसार दी गई आज्ञाओं का पालन नहीं करते हैं और अधर्म का पालन करते हैं। हमें हमारे जीवन को ऐसी राहमें अग्रसर करना हैं जहाँ हम ज्ञानियों की सेवा कर सकें और स्वयं को अधर्म में व्यस्त होने से बचना चाहिये।
  • हमारे नित्य स्वामी जो हमें सच्चा ज्ञान देते हैं और जो हमें मोक्ष का आर्शिवाद प्रादन करते हैं – इनमें विश्वास न करना बाधा है। आचार्य वे हैं जो जिज्ञासुओं को सच्चा ज्ञान प्रदान करते हैं। भगवान स्वयं आचार्य रूप में हैं और हमें स्वीकार करते हैं। इसलिये वें नित्य स्वामी है और जो मोक्ष प्रदान करते हैं। अनुवादक टिप्पणी: हम भगवान को मुकुन्द बुलाते हैं – वह जो मोक्ष देता हैं। मोक्ष यानि परमपदधाम में नित्य कैंकर्य। ऐसे मोक्ष के लिये हम में चित्त, अचित और भगवान (तत्वत्रय) का सच्चा ज्ञान होना चाहिये। ऐसा ज्ञान आचार्य हीं शिष्य को प्रदान करते हैं। एक बार सच्चा ज्ञान मिल जाता हैं स्वाभाविक रूप से हमें इस दास रूपी जीवन से मुक्ति पाने कि इच्छा होती है और परमपद में भगवान का शाश्वत कैंकर्य की लालसा होती है। संसार से ऐसी राहत और शाश्वत कैंकर्य का आर्शिवाद भगवान से प्राप्त होता है।

-अडियेन केशव रामानुज दासन्

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