लोकाचार्य स्वामीजी की दिव्य-श्रीसूक्तियां – ८

श्रीः
श्रीमते शठकोपाय नमः
श्रीमते रामानुजाय नमः
श्रीमद् वरवरमुनये नमः
श्री वानाचलमहामुनये नमः

लोकाचार्य स्वामीजी की दिव्य-श्रीसूक्तियां

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नम्पिळ्ळै एवं एम्पेरुमान् सहित उभय नाच्चियार्

71) भक्तिमानुडैय भक्ति वैदमाय् वरुमतु । प्रपन्नुडैय भक्ति रुचि कार्यमायिरुक्कुम् । भक्तिपरनुक्कु साधनमायिरुक्कुम् । इवनुक्कु देहयात्रा शेषमायिरुक्कुम् ।

 भगवद्भक्ति (भगवद्रति) के कारण कृष्ण-तृष्ण-तत्त्वज्ञता से स्तव्य) — नम्माऴ्वार्

भक्त की भक्ति भक्ति-योग (भक्ति-शास्त्र) के नियमों के अनुसार ही होती है । परन्तु प्रपन्न के लिए भगवद्विषयोत्पन्नासक्ति ही भक्ति कहलाती है । साधना-भक्ति से भक्तिमान भगवान् को प्राप्त करता है । प्रपन्न के लिए, भक्ति का उपयोग स्वरूपानुरूप जीवन व्यापन मे होता है ।

अनुवादक टिप्पणी ःः पिळ्ळै लोकाचार्य स्वामी मुमुक्षुप्पडि ग्रन्थ मे इन तत्त्वों को बहुत सुन्दर रूप से समझाया है । सूत्र 271 मे स्वामी कहते है ः- प्रपन्न के लिए भक्ति भगवद्विषयासक्तिरूप धारण करती है । श्रीवरवरमुनि स्वामी इस सूत्र व्याख्या मे कहते है जिस प्रकार अत्यन्त भूखा जैसे अन्नादि ग्रहण करता है ठीक वैसे ही भक्ति से ही एक प्रपन्न भगवद्कैङ्कर्य को यथारूप  से कर सकता है ।

72) भक्तिमानुक्कु पलत्तिल् स्रद्दै इल्लातपोतु तविरलायिरुक्कुम्, प्रपन्नुक्कु स्वरूप-प्रयुक्तमाय् वरुमतागैयाले ओरुकालम् तविरातायिरुक्कुम्

तिरुप्पाणाऴ्वार – पूर्णतया पेरियपेरुमाऴ् के प्रति आसक्त

भक्तिमान जब उपेय (लक्ष्य) के प्रति निरुत्साहित या रुचि या इच्छा को खोता है तो उसकी भक्ति मे रुकावट होती है अतः भक्ति सफलीकृत नही होती । चूँकि प्रपत्ति जीव के स्वरूपानुरूप है अतः एक बार करने से उस जीव की रुचि (मे रुकावट) प्रतिबंधित नही होती ।

अनुवादक टिप्पणी ःः भक्तियोगानुयायी को प्रतिक्षण भगवद्चिन्तन करते रहना है । अगर गलती से भी एक क्षण के लिए भगवद्विस्मृति हो तो उसकी भक्ति मे बाधा आती है और अन्ततः रुक जाती है । चूँकि प्रपत्ति सिद्धोपाय (भगवान् ही उपायोपेय है और भगवान् अपने शरणागत की रक्षा करने मे सक्षम है) है अतः भगवान् को उपायोपेय स्वीकृति ही जीव (जो नित्य भगवद्दास है) का यथार्थ स्वरूप है ।

73) अवन् गुण निबन्धनमन्रु, अवनोट्टै सम्बन्धम् सत्ताप्रयुक्तमेङ्गै

जीवात्मा का परमात्मा से सम्बन्ध भगवद्गुणों पर आधारित नही है अपितु यह स्वाभाविक सम्बन्ध भगवच्छेषत्व (जो स्वरूपानुरूप) है के आधार पर है ।

अनुवादक टिप्पणी ःः नम्माऴ्वार  तिरुवाय्मोऴि ५.३.५ “कडियन् कोडियन्  . . . आगिलुम् कोडिय एन् नेन्जम् अवन् एन्रे किडक्कुम् ” पासुर मे कहते है भगवान् पाषाण-हृदयी है फिर भी इस दास का मन आप पर ही केन्द्रित है और सदैव आप के ही मनन चिन्तन मे है । नम्पिळ्ळै स्वामी ईडु व्याख्या मे अनसूया और श्री सीता देवी के संवाद का उदाहरण देते है । जब अनसूया कहती है कि ” एक पतिव्रता स्त्री के लिए उसका पति साक्षात् भगवान् है ” तो भगवती सीता कहती है –  सभी का ऐसा विचार है कि मै भगवान् श्रीरामचन्द्र के दिव्य गुणाधार पर उनके प्रति आसक्त हूँ । अगर मेरे स्वामी स्वगुणों को त्याग दे और बदसूरत भी हो जाए फिर भी उनके प्रति मेरी आसक्ती को नही त्यागूँगी । पर मै स्वकथन का निरूपण नही कर सकती क्योंकि मेरे प्रिय स्वामी कदाचित भी स्वगुणों का त्याग नही करेंगे । पिळ्ळै लोकाचार्य इसी तत्त्व को श्रीवचनभूषण के 111वें सूत्र मे कहते है ” गुण कृत दास्यत्तिलुम् काट्टिल् स्वरूप प्रयुक्तमान दास्यमिरे प्रधानम्” अर्थात् स्वरूपारूप भगवच्छेषत्व, गुणानुरूप भगवच्छेषत्व की तुलना मे श्रेष्ठ है । अगर मान लिया जाए कि यह भगवच्छेषत्व गुणानुरूप है तो जिस दिन यह गुण नज़र नही आयेंगे उस दिन (समय) दासत्व को छोड़ देंगे और इसी को वास्तविक आत्महत्या कहते है । परन्तु यह स्वाभाविकानुरूप (जो अपरिवर्तनशील है) है तो हम इसका (भगवच्छेषत्व का) परित्याग कदापि नही करेंगे ।

74) भगवद्विषयत्तिलोरडिवर निन्रवर्गळ् स्लाकनीयर्

जो कोई भी भगवान् के प्रति छोटा सा कार्य (करता) (कदम उठाता) है वह सदा कीर्तन (प्रशंसा) के योग्य है ।

अनुवादक टिप्पणी ःः इस भौतिक जगत् मे जीवों के लिए जब इन्द्रिय तृप्ति के अनेकानेक साधन है तो उन जीवों मे अगर एक भी जीव भगवान् के प्रति आसक्त हो, वह सदा प्रशंसा के योग्य है । ऐसे आसाक्त अगर किसी श्रीवैष्णव का नित्य मार्गदर्शन प्राप्त हो तो वह अतीव शीघ्रता और सरलता से स्वस्वरूप ज्ञान प्राप्त करता है और सद्व्यवहार से स्वस्वरूप को समझता है ।

75) अत्तलैयाले वरुमतोऴियत् तान्तामोन्रै आशैयप्पडुगैकूडप्पऴि

सब कुछ भगवदेच्छा (भगवान् की इच्छा) अनुसारेण होना चाहिए । स्वमनोरथ पूर्ती भगवान् से याचना करना स्वदोष है । सदैव भगवद्मुखोल्लास से कार्य करना चाहिये।

अनुवादक टिप्पणी ःः भगवान् शेषी (स्वामी) है और जीव शेष (किंङ्कर) है । स्वामी को इच्छा कर आशीर्वाद देना चाहिए जो उस (दास) (सेवक) के लिए अनुकूल हो । शेषी होने की वजह से जीव का स्वतन्त्र इच्छा होना दोषयुक्त है और स्वरूप नाश कारक है ।

76) उडैयवने नम् कार्यत्तुक्कुक्कडवन्

भगवान् स्वामी है और जीवात्मा उनका सेवक है । शरणागतों का पालन करना भगवान् का कर्तव्य है ।

अनुवादक टिप्पणी ःः आत्मा देह द्वारा कार्य करता है और इन्हीं कार्यों को करने का मार्गदर्शन आत्मा देता है । भगवान् जीवात्मा का आन्तरिक आत्मा के रूप मे आवास करते है और यही जीव उनका शरीर । अतः शरीर रूपी जीव का पालन करना भगवान् का कर्तव्य है । पिळ्ळै लोकाचार्य मुमुक्षुप्पडि ग्रन्थ के चरमश्लाक विवरण 258 वें सूत्र इसी विषय को समझाते हुए कहते है ःः भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र ने कहा है – “मोक्षयिष्यामि” अर्थात् ” उद्धार करूँगा ” “मै रक्षा करूँगा” । सूत्र मे स्वामी कहते है – ” इनि उन्कैयिलुम् उन्नैक्काट्टित्तरेन् एन् उडम्बिल् अऴुक्कै नाने पोक्किक् कोळ्ळेनो ” । इस सूत्र व्याख्या मे श्रीवरवरमुनि कहते है – अब तक तुम (अर्जुन) स्वयं को स्वतन्त्र मानते थे ऐसा भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा । परन्तु अब तुम परतन्त्र मानकर (जैसे देह आत्मा पर निर्भर होता है उसी प्रकार) मुझ मे शरणागति किये । वरवरमुनि स्वामी कहते है यहाँ अर्जुन का भ्रम (दोष) निवारण कर्तव्य भगवान् का है और अर्जुन का शुद्धी एवं उद्धार का फलस्वरूपी भगवान् ही हैं।

77) वस्तुवुक्कु गुणत्तालेयिरे उत्कर्षम्  । अन्द गुणाधिक्यमेङ्गेयुण्डु, अङ्गेयिरेयेत्तम् (अङ्गेयिरेयेट्रम्)

एक वस्तु के प्रति उत्कर्ष का कारण उस वस्तु मे उपलब्ध विशेष गुण ही है । जब ऐसे गुणाधिक्यता हो तो ऐसे गुण उत्कृष्टता (विशिष्टता) प्राप्त करते है ।

अनुवादक टिप्पणी ःः भगवान् मे मुख्यतः दो विशेष गुण है – पहला कि वह विशिष्ट असंख्य कल्याण गुणों का भण्डार राशि है और दूसरा असद् गुणों के विपरीत है वह । इसी कल्याण गुणों के सान्निध्य की वजह से उनकी वन्दना (स्तुति) सभी करते है ।

78) शेषभूतन् स्वरूपम् पेट्ट्रडिमै सेइगै शेषिक्कु पेट्ट्रिरे

जैसा कहा गया है “मेय्याम् उयिर् निलै” (तिरुवाय्मोऴि तनिया) – अर्थात् भगवद्मुखोल्लास तभी होता है जब जीव भगवच्छेशत्व को स्वीकार कर भगवद्सेवा करें । ऐसा करने पर भगवान् को अत्यन्तहर्ष प्राप्त होता है ।

अनुवादक टिप्पणी ःः कहा गया है – “चेतन लाभं ईश्वरनुक्कु” अर्थात् जब भगवद्सम्पत्ति जीव भगवद् निष्ठा मे परिपूर्ण रूप मे सिद्ध होता है, भगवान् ही इससे लाभ प्राप्त करते है ।

भगवान् ही जीव को मोक्ष प्राप्ति के सम्मुख लाने के लिए नित्य संसार की सृष्टि कर, विभिन्न अवतार लेकर, आऴ्वार एवं आचार्य रूप मे इस दिव्य ज्ञान का प्रसार करते है । अन्ततः यह कार्य से जब उनकी सम्पत्ति की शुद्धि होती है तो यह उनके लिए ही श्रेयस्कर है ।

79)  स्वनिकर्षम् सोल्लुगै ज्ञानकायम् । ईश्वरोऽहं एन्रिरुक्कै अज्ञान कार्यम् ।

जैसे अमुदानर (तिरुवरङ्ग स्वामी) रामानुज नूत्तन्दादि के 48वे पासुर मे कहते है – –  स्वदोष गुणानुसन्धान ही असली पहचान है सच्चे आत्मज्ञान की । अर्थात् मुझ समान कोई तुच्छ नही है ।

मै ईश्वर हूँ कहना अज्ञानता और अहं कारणोत्पन्न है ।

80) तीर्थङ्गळिळे वर्त्तिक्किर सत्त्वङ्गळुक्कु पापम् पोगिरतिल्लैयिरे ज्ञानमिल्लामैयाले

कहते है की तीर्थ स्थलों के जलों मे रहने वाले विभिन्न जीवों का आत्मोद्धार नही होता है क्योंकि उनको स्वरूपानुरूप ज्ञान नही होता है अतः दोष निवारण नही होता है । केवल और केवल स्वरूपानुरूप ज्ञान से ही जीव दोषों से मुक्ति पाता है । अतः केवल तीर्थ जल मे स्नान मात्र से उद्धार नही होता ।

अनुवादक टिप्पणी ःः उदाहरणार्थ गङ्गा मे कोई स्नान करता है तो उसको यह ज्ञान होना चाहिये कि यह दिव्य गङ्गाजल का उद्भव भगवान् श्रीमन्नारायण के दिव्य चरणारविन्दों के चरणामृत से हुआ है जो इस सम्पूर्ण जगत् के सर्वरक्षक है । जब तक ऐसा ज्ञान वर्धन विचार नही होता है और केवल सोचता है कि यह सिर्फ दिव्य नदी जल है तो कोई उद्धार नही होता है ।

पूर्ण लिङ्क यहाँ उपलब्ध है : https://srivaishnavagranthamshindi.wordpress.com/divine-revelations-of-lokacharya/

अडियेन् सेट्टलूर सीरिय श्रीहर्ष केशव कार्तीक रामानुज दास

आधार – http://ponnadi.blogspot.in/2013/08/divine-revelations-of-lokacharya-8.html

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